Thursday, April 29, 2010

फ्रिज में रखा हुआ सुख...


किसी कविता का फिर से पढ़ा जाना जो सुख की गुदगुदी पैदा करता है वह उसका पहली बार पढ़ा जाना नहीं करता है। पहली बार का आश्चर्य होता है। दूसरी बार में अपनापन शामिल रहता है। मैं भी बड़े अपनेपन से अपनी कुछ कविताए दुबारा पढ़ता हूँ। दौबारा वही सुख, उसी अपनेपन की तलाश मुझे अपने ही जिए हुए अनुभव की तलाश जैसी लगती है, जो बहुत ही हास्यास्पद है। मानों अपनी बचपन की किसी ब्लैक-एंड-व्हाइट तस्वीर में दौबारा घुसने की कोशिश करना।
तो कैसे हमें ’सुख’ शब्द पता है... सुख शब्द की कुछ कहानिया हमने पढ़ी है, कुछ किस्से सुने है, कुछ लोगों को कर्तब करते देखा जिन्हें बाद में उन्हीं लोगों ने सुख का नाम दिया है... और कुछ वह है जो इस परिभाषा में हुए हमारे जीए हुए क्षण है....। हम इन्हें ’सुख’ के फ्रिज में डाल देते हैं...। वहाँ सुख खराब नहीं होगें... वहाँ हमने सुख के पहले अनुभवों को संभालकर रखा है। जब भी हम अपने जीने में सुख जैसी कोई छु लेते है तो तुरंत अपना फ्रिज टटोलते हैं... ’हाँ यह सुख ही है।’ की आह से हम सुखी हो जाते है।
कल नाटक खत्म होने के बाद, रिक्शा में अकेला, एक बीयर की बोतल के साथ हाईवे पर, घर की ओर चला जा रहा था... देर रात...। रिक्शा वाला बहुत ही धीमें रिक्शा चला रहा था...। अचानक एक शांति... शांति नहीं, कुछ ओर... शांति जैसी कुछ... ठीक सुख भी नहीं... खुशी भी नहीं... ऎसा कुछ भी नहीं जिसे अपने अनुभव के फ्रिज में हाथ डालकर, टटोलकर छू सकूं... कुछ ओर... तसल्ली सा... कुछ... महसूस हुआ।
देर रात घर में पहुंचकर मैं काफी देर तक भीतर टटोलता रहा... क्या था वह? मैं नहीं बयान कर सका...। चूंकि मेरे अनुभव के बाहर का वह कुछ था सो उसे फ्रिज में भी नहीं ठूसते बना... तो क्या होगा इसका? बहुत देर तक मैं सोचता रहा.... हल्का गुस्सा भर आया, इच्छा हुई कि अपने फ्रिज को एक झटके में पूरा का पूरा कूड़े में उड़ेल दूं... क्योंकि यही है जो मुझे बार-बार एक जैसा जीने पर मजबूर करता है....। पर यह दोग़्लापन होगा... फ्रिज यूं ही.. इतनी आसानी से खाली नहीं होते... इसके लिए बच्चा हो जाने जितनी पवित्रा चाहिए...। एक नए तरीक़े के, अपरिभाषित सुख ने... मुझे उतना सुख नहीं दिया जितना... पुराने सुखों को सड़ान में बदल दिया?........................................................।

Sunday, April 25, 2010

निर्मल और मैं....


निर्मल- क्या भाई अकेले-अकेले ही चाय पी लोगे... एक मेरे लिए भी बना दो?
मैं- वाह! बड़े दिनों बाद... बैठिये मैं चाय चढ़ाता हूँ।
निर्मल- तुम जगह ही नही दे रहे हो? ना तो आने की और ना अभी बैठने की?
मैं- यहाँ बैठिये... आईये।
निर्मल- कितने टुकड़े हैं..? और कितने जुड़ चुके हैं?
मैं- टुकड़े ही टुकड़े हैं। जोड़-घटाने का हिसाब हमेशा शेष रह जाता है। मैं उस और ध्यान नहीं देता।
निर्मल- हम सब हिसाबी है। हम सब हर चीज़ का हिसाब रखते चलते है... कितना खेल चुके है, कितना बक़ाया है, इसका गुणा-भाग लगातार हमारे दिमाग़ में चल रहा होता है।
मैं- निर्मल जी कुछ चीज़े पीढ़ियों से चली आ रही हैं। यह हमारे इस धरती पर बने रहने के इतिहास का हिस्सा है...। इससे अलग होना मुश्किल है। अब हम क्या कर सकते है इस जवाब का जो हमें बहुत पहले मिल चुका है कि अंत में फैसले का दिन आएगा और वहाँ सबका हिसाब किताब होगा...। तो बस अब हम लाचार है और पूरी ज़िन्दग़ी “हम ग़लत नहीं है” के सिक्के जमा कर रहे होते हैं।
निर्मल- यह क्या किताब है...?
मैं- दूधनाथ सिंह की... अच्छी है।
निर्मल- और ..क्या पढ़ रहे हो आजकल?
मैं- दूधनाथ सिंह पढ़ रहा था... फिर चेख़व के नाटक... और एक बर्नाड शॉ का नाटक.. कुछ टूटा फूटा सार्त्र भी... सार्त्र अभी-अभी खरीदकर लाया हूँ।
निर्मल- नई कहानी में कुछ स्थिरता है।
मैं- यह आप पूछ रहे हैं या बता रहे हैं?
निर्मल- बता रहा हूँ।
मैं- हाँ, मैंने महसूस किया था उसे लिखते वक़्त... अभी आज ही नई कहानी शुरु की है..। उसके बारे में सोचते हुए अच्छा लग रहा है। निर्मल जी मैं आपसे यह पूछना चाह रहा था... कि जैसे यह कहानी जिसकी अभी मैंने शुरुआत ही लिखी है... इस वक़्त इतना सुख दे रही है कि मैं बता नहीं सकता। और यह सुख अजीब सी मीठी खुजली है जो हड़्ड़ीयों में होती है.. ऊपर खुजाने से वह मिटती नहीं है... मतलब उसे किसी को बयान भी नहीं किया जा सकता है। लगभग मैं हर जगह एक छोटी सी मुस्कान लिए होता हूँ। पर कहानी के पूरा होते ही एक अजीब सी दूरी उससे बन जाती है। कभी-कभी इच्छा होती है कि कहानियाँ पूरी ही ना की जाए उसे कहीं अधूरा छोड़कर उठ जाना चाहिए... जिससे उस कहानी में मैं बना रहूँ... उस कहानी से मैं खत्म ना हो जाऊं।
निर्मल- वैसे कहानी खत्म होने के बाद भी, कहानी बची रहती है...उसके पूरे सत्य वहाँ नहीं होते, कुछ सिर्फ तुम्हारे पास ही बने रहते हैं... जब कभी तुम उस कहानी पर वापिस जाते हो, तब तुम वह कहानी नहीं पढ़ते हो, तुम उसके बीच में धीमी गति से सांस लेते हुए सत्य छुते हो.. और तुम्हें अच्छा लगता है। लेखक के पास इससे ज़्यादा और कोई सुख नहीं है।
मैं- चाय थोड़ी कड़क बन गई है? है ना?
निर्मल- ठीक है, शक्कर थोड़ी ज़्यादा है।
मैं- छोड़ दीजिए मैं दूसरी चाय बनाता हूँ।
निर्मल- रहने दो मुझे अच्छी लग रही है।
मैं- जल्दबाज़ी में चाय भी ठीक से नहीं बना पाया। आपसे मिलने की उत्सुक्ता थी।
निर्मल- चलो मैं अब जाता हूँ... तुम्हारी नई कहानी का इंतज़ार रहेगा... “स्थिर” शब्द: “स्थिर” ध्वनीश:।
मैं- हं... हं... ह॥

Sunday, April 18, 2010

दूसरा आदमी....


दूसरा आदमी...

मैं खाना बनाने की तैयारी करने लगा। पीछे से माँ ज़िद्द करने लगी ‘नहीं खाना मैं बनाऊंगी’। इस युद्ध में जीत माँ की ही होनी थी... पर मैं ज़िद्द करके टमाटर, प्याज़, हरि मिर्च काटने लगा।
’आप इतनी दूर से सफर करके आई हो। खान आप ही बनाना, मैं बस तैयारी कर देता हूँ।’
माँ चुपचाप बालकनी पर जाकर खड़ी हो गई। उन्हें मुझे इस तरह देखने की आदत नहीं है। कई साल पहले जब वह मुझसे मिलने आती थीं तो अनु साथ होती थी... तब मैं शादी-शुदा था। माँ, अनु को बहुत पसंद करती थीं....। शायद इतने साल माँ इसलिए मुझसे मिलने नहीं आई...
’घर बहुत छोटा है... पर सुंदर है।’
माँ ने कहाँ...मैं चुप रहा। सब काट लेने के बाद मैं भी बालकनी में जाकर खड़ा हो गया। पीछे जंगल था.. हरियाली दिखती थी। माँ कुछ और तलाश रही थी... उनकी निग़ाहें कहीं दूर किसी हरे कोने से जिरह कर रही थी। मैं बगल में आकर खड़ा हो गया, इसकी उन्हें सुध भी नहीं लगी। माँ बहुत छोटी थी... मेरे कंधे के भी नीचे कहीं उनका सिर आता था। मेरा भाई और मैं मज़ाक में कहाँ करते थे कि ’अच्छा हुआ हमारी हाईट माँ पर नहीं गई, नहीं तो हम बोनज़ाई humans लगते।’ माँ की आँखों के नीचे कालापन बहुत बढ़ गया था... वह बहुत बूढ़ी लग रही थी। क्या मैं रोक सकता हूँ कुछ..? उनका बूढ़ा होना ना सही पर उनके आँखों के नीचे का कालापन वह?... पता नहीं कितनी सारी चीज़े है जिनका हम कुछ भी नहीं कर सकते है.. बस मूक दर्शक बन देख सकते हैं.. सब होता हुआ... सब घटता हुआ, धीरे-धीरे। मेरी इच्छा हो रही थी माँ के गालों पर हाथ फेर दूं... उनकी झूल चुकी त्वचा को सहला दूं... कह दूं कि ’मुझसे नहीं हो सका माँ... कुछ भी नहीं’। पर इस पूरी प्रक्रिया में वह रो देती.. और मैं यह कतई नहीं चाहता था। पिछले कुछ सालों में मैंने माँ के साथ अपने सारे संवादों में ’मैं खुश हूँ..’ की चाशनी घोली है...। उन्हें मेरे अकेलेपन, खालीपन की भनक भी नहीं लगने दी.. जिसकी अब मुझे आदत हो गई है... अब लगता है कि इस खालीपन, अकेलेपन के बिना मैं जी ही नहीं सकता हूँ...
’इस बालकनी में तुम कुछ गमले क्यों नहीं लगा लेते?’
इस बीच माँ की आवाज़ कहाँ से आई मुझे पता ही नहीं चला...उनके बूढ़े झुर्रियों वाले गाल बस हलके से हिले थे। वह अभी भी मुझे नहीं देख रही थी।
’इच्छा तो मेरी भी है.. पर यह किराय का घर है, पता नहीं कब बदलना पड़े... और यूं भी मेरा भरोसा कहाँ है.. कभी ज़्यादा दिन के लिए कहीं चला गया तो....।’
माँ मेरे आधे वाक्य में भीतर चली गई....। मेरे शब्द टूटे... झड़ने लगे.. गिर पड़े और मैं चुप हो गया। माँ ने खुद को खाना बनाने में व्यस्त कर लिया।
मेरे और माँ के बीच संवाद बहुत कम होते गए थे। पहले ऎसा नहीं था, पहले हम दोनों के बीच ठीक-ठीक बात चीत हो जाती थी... और विषय भी एक ही था हमारे पास-अनु। पर अब उन्हें लगता है कि मैं अनु की बात करके इसे दुखी कर दूगीं... अगर गलती से मैं अनु की बात निकाल लेता तो वह कुछ ही देर में विषय बदल देती। इन बीते सालों में.... माँ खूब सारी बातों का रटा-रटाया सा पुलिंदा लिए मुझसे फोन पर बात करती थी... फिर बीच में बातों के तार टूट जाते या पुलिंदा खाली हो जाता तो हम दोनों चुप हो जाते.... बात खत्म नहीं हुई है मैं जानता था, वह कुछ ओर पूछना चाहती हैं.. कहना चाहती हैं... कुछ देर मैं उनकी सांसे सुनता.. और वह धीरे से बिना कुछ कहे फोन काट देती। धीरे-धीरे हमारा फोन पर बात करना बंद हो गया। मैं कभी फोन करता तो वह जल्दी-जल्दी बात करती मानों बहुत व्यस्त हो। इस बीच वह मुझे ख़त लिखने लगी थी। शुरु में जब ख़त मिलते तो मैं डर जाता... पता नहीं क्या लिखा होगा इनमें? पर अजीब बात थी कि वह सारे ख़त मेरे बचपन के किस्सों से भरे हुए थे... कुछ किस्से इतने छोटे कि उनके कुछ मानी ही ना हो। उन ख़तों के जवाब मैंने कभी भी नहीं दिए। मैंने बहुत कोशिश की पर जब भी पेन उठाता तो मुझे सब कुछ इतना बनावटी लगने लगता कि मैं पेन वापिस रख देता। मैं अधिक्तर खतों में भटक जाता था.. या कभी-कभी कुछ इतनी गंभीर बात लिख देता था कि उसे संभालने में ही पूरा का पूरा ख़त भर जाता। वह ख़तों में मेरे बचपन के आगे नहीं बढ़ती थी...। बचपन के बाद जवानी थी जिसमें मैं अकेला नहीं था, वहाँ अनु मेरे साथ थी... इसलिए वह ख़त कभी लिखे नहीं गए।
खाना खाते वक्त हम दोनों चुप थे। माँ ने टमाटर की चटनी बनाई थी जो मुझे बहुत पसंद थी। जब भी माँ खाना खाती है तो उनके मुँह से खाना चबाने की आवाज़ आती है.. करच-करच। मुझे शरु से यह आवाज़ बहुत पसंद थी... मैंने कई बार माँ की तरह खाने की कोशिश की पर वह आवाज़ मेरे पास से कभी नहीं आई।
’क्या हुआ? मुस्कुरा क्यों रहे हो?’
वह मुझे देख रही थीं मुझे पता ही नहीं चला...मैं उस आवाज़ के बारे में उनसे कहना चाहता था पर यह मैं पहले भी उनसे कह चुका हूँ सो चुप रहा।
खाना खाने के बाद मेरे दोस्त रिषभ का फोन आया...मैं उसके साथ कॉफी पीने चला गया। रिषभ जानता था माँ आ रही है। हमारे दोस्तों के बीच यह बहुत प्रचलित था... जब रिषभ के माँ-बाप शहर आए हुए थे तो हमारी ज़िम्मेदारी होती थी उसे घर से बाहर निकालने की । वह बाहर आते ही लंबी गहरी सांस लेता और कहता ’ओह.. मैं तो मर ही जाता अगर तुम्हारा फोन नहीं आता तो।’
coffee shop में जैसे ही रिषभ ने मुझे देखा वह हंसने लगा...
’बचा लिया.. बच्चू...।’
मैं खिसिया दिया। उसने कॉफी आर्डर की और मेरे सामने आकर बैठ गया।
’क्या? बचा लिया... तुझे?’
इस बार उसने प्रश्न पूछा। क्या जवाब हो सकता है इसका। मैं फिर मुस्कुरा दिया और सोचने लगा किससे बचा लिया... माँ से? उनके मौन से? उन बातों से जो माँ से आँखे मिलते ही हम दोनों के भीतर रिसने लगती थी? या फिर खुद से....?
’मैंने मेघा को भी बुला लिया.. वह भी आती होगी।’
’क्यों? मेघा को क्यों बुला लिया?’
’अरे यूं ही... उसका फोन आया था वह तेरे बारे में पूछ रही थी।’
’मैं ज़्यादा देर रुक नहीं पाऊंगा... माँ अकेली है।’
माँ अकेली है कहने के बाद ही मुझे लगा... हाँ माँ बहुत अकेली है। इच्छा हुई कि अभी इसी वक़्त वापिस चला जाऊं... पर मैं बैठा रहा।
’उसने कहाँ... उसने तुझे फोन किया था पर तूने उठाया नहीं...?’
’हाँ मैं व्यस्त था।’
’कैसी है माँ?’
’अच्छी हैं...।’
’यार सुन.. चली जाएगीं माँ कुछ दिनों में इतना परेशान होने की ज़रुरत नहीं है।’
’नहीं, मैं परेशान नहीं हूँ... सब ठीक है... थेंक गॉड तूने फोन कर दिया...अभी अच्छा लग रहा है।’
यह सुनते ही रिषभ खुश हो गया। जो वह सुनना चाहता था मैंने कह दिया था। तभी किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा.. मैं उसकी तरफ मुड़ा ही था कि वह मेरे गले लग गई... कुछ इस तरह कि ’मैं तुम्हारा दुख समझती हूँ।’ मैं समझ गया यह मेघा ही है। वह कुछ देर तक मेरे गले लगी रही, मैं थोड़ा असहज होने लगा था। तभी वह मेरी पीठ पर हाथ फेरने लगी... मुझे ऎसी सांत्वनाओं से हमेशा घृणा रही है। मैंने तुरंत मेघा को अलग कर दिया। वह मेरे बगल में बैठ गई और बैठते ही उसने भरे-गले से पूछा...
’कैसे हो....?’
मेरी इच्छा हुई कि अभी इसी वक्त यहाँ से भाग जाऊं...।
’कॉफी पियोगी...?’
यह कहते ही मैं उठने लगा। तभी रिषभ The Matchmaker बोला...
’तुम लोग बैठों... मैं लेकर आता हूँ कॉफी...।’
रिषभ के जाते ही मेघा ने अपना हाथ मेरे हाथ पर रख दिया।
’मैंने तुम्हें फोन किया था।’
’हाँ.. sorry मैं बिज़ी था।’
’yaa.. I understand..’
‘मैं यहाँ ज़्यादा रुक नहीं पाऊंगा.. माँ घर में अकेली होगी...।’
’तुम चाहो तो मैं तुम्हारे साथ आ सकती हूँ।’
’no thank you…’
मुझे पता है रिषभ कॉफी लेकर जल्दी नहीं आएगा। वह हम दोनों को “अकेले” समय देना चाहता है। मेघा बहुत अच्छी लड़की है पर उसमें मातृत्व इतना भरा हुआ है कि वह मुझे असहज कर देती है। रिषभ के हिसाब से वह मेरा ख्याल रखती है, जबकि मेरे हिसाब से वह उन महिलाओं में से है जो दूसरों के दुख की साथी होती हैं... उन्हें इस काम में बड़ा मज़ा आता है... दूसरों के दुखों में एक सच्चे दोस्त की हैसियत से भागिदारी निभाना। मेघा जब भी मुझे देखती है मुझे लगता है कि वह मेरे चहरे में दुख की लक़ीरे तलाश कर रही है। उसके साथ थोड़ी देर रहने के बाद मैं सच में दुखी हो जाता हूँ। रिषभ के कॉफी लाते ही मैं उठ गया। रिषभ मना करता रहा पर मैं नहीं माना... जाते-जाते मेघा ने बहुत गंभीर आवाज़ में मुझसे कहाँ कि ‘you know i am just a phone call away... ‘ मैंने हाँ में सिर हिलाया और लगभग भागता हुआ अपने घर चला गया।
मेरी कभी-कभी इच्छा होती थी कि मैं झंझोड़ दूं या पुरानी घड़ी की तरह, माँ और मेरे बीच के संबंध को नीचे ज़मीन पर दे मारु और यह संबंध फिर से पहले जैसा काम करना शुरु कर दे। बीच में बीते हुए सालों को रबर लेकर मिटा दूं.. घिस दूं.. कोई भी निशान ना रहे। मैं सब भूलना चाहता हूँ पर माँ भूलने नहीं देती, शायद माँ भी सब भूलना चाहती हैं पर मेरे अगल-बगल के रिक्त स्थान में उसे बार-बार अनु का ना होना दिख जाता होगा।
अनु यहीं है इसी शहर में..., अगर वह किसी दूसरे शहर में होती.. या दिल्ली में, अपनी माँ के पास चली जाती तो शायद सबकुछ थोड़ा सरल होता। माँ अभी-भी आशा रखती हैं कि सबकुछ पहले जैसा हो सकता है। जीवन कितने तेज़ी से आगे बढ़ जाता है... पता ही नहीं चलत। माँ बहुत पुराना जी रही हैं... नया उन्हें कुछ भी नहीं पता। उन्हें नहीं पता कि अनु अब किसी ओर के साथ रहने लगी है। वह उससे जल्द शादी करने वाली है। हमारा लिखित, कानूनन तलाक़ हो चुका है। जिसके पेपर मैंने ना जाने क्यों अपने ज़रुरी काग़ज़ातों के बीच संभालकर रखे हैं। मैं कभी-कभी उसे अकेले में खोलकर पढ़ लिया करता था.. पूरा, शुरु के आखीर तक... हमेशा मुझे आश्चर्य होता था कि एक निजी संबंध को अलग करने में कितने सरकारी मरे हुए शब्दों का प्रयोग किया जाता है। मुझे हमेशा वह petition एक कहानी की तरह लगता था।
मैंने दरवाज़ा खोला तो माँ सतर्क हो गई। मैंने देखा उनके हाथ में मेरी डायरी है। कुछ सालों से मेरी डायरी लिखने की आदत सी लग गई थी। उसमें मैं दुख, पीड़ा, दिन-भर की गतिविधी नहीं लिखता था.. उसमें मैं आश्चर्यों को लिखता था। छोटे आश्चर्य.. जैसे आज एक लाल गर्दन वाली चिड़ियाँ बालकनी में आई... मैंने उसके ठीक पास जाकर खड़ा हो गया पर वह उड़ी नहीं वह मुझे बहुत देर तक देखती रही... या आज चाय में मैंने शक्कर की जगह नमक डाल दिया। माँ ने मुझे देखते ही वह डायरी फ्रिज के ऊपर ऎसे रख दी मानों सफाई करते हुए उन्हें वह नीचे पड़ी मिली हो।
’रात को क्या खाओगे?’
माँ ने तुरंत बात बदल दी। मैंने डायरी को अलमिरा के भीतर, अपने कपड़ों के नीचे दबा दिया।
’आज कहीं बाहर चलकर डिनर करें?’
’कहाँ जाएगें?’
’बहुत सी जगह हैं। चलिए ना... मैंने भी बहुत दिनों से बाहर खाना नहीं खाया है।’
’ठीक है।’
माँ को बाहर होटल में खाने में बहुत मज़ा आता था। जब भी वह बहुत खुश होती थी तो कहती थी ’चलो आज बाहर खाना खाते हैं।’ एक बार अनु और मैं उन्हें सिज़लर खिलाने ले गए थे.. उन्हें सिज़लर खाते हुए देखना... हम दोनों की हंसी रुक ही नहीं रही थी।
हम दोनों एक साऊथ इंडियन रेस्टोरेंट में जाकर बैठ गए। मैंने स्पेशल थाली आर्डर की और माँ ने रेग्युलर। मुझे बहुत भूख लग रही थी सो मैं थाली आते ही खाने पर टूट पड़ा। माँ बहुत धीरे-धीरे खा रहीं थी। कुछ देर में उन्हेंने खान बंद कर दिया।
’खाना ठीक नहीं लगा क्या?’
मैंने खाते हुए पूछा।
’मन खट्टा है... स्वाद कहाँ से आएगा।’
मेरा भी खाना बंद हो गया। जिन बातो के ज़ख़्म हमने घर में दबा के रखे थे... मुझे लगा वह यहाँ फूट पडेगें। ’क्या हुआ?’ मैं पूछना चाहता था पर मैं चुप रहा। माँ पानी पीने लगी। मेरी भूख अभी खत्म नहीं हुई थी... पर एक भी निवाला और खाना मेरे बस में नहीं था।
’भाई कैसा है?’
माँ ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। मेरे भाई और मेरी बातचीत बहुत पहले बंद हो चुकी है। मेरे अकेले रह जाने का ज़िम्मेदार वह मुझे ही मानता है। माँ उसी के साथ रहती हैं। उसने माँ को भी मना कर रखा था मुझसे मिलने के लिए। अब शायद उसका गुस्सा भी शांत हो गया होगा और उसने माँ से कहाँ होगा कि ’जाओ देख आओ आपने लाड़ले को..’ और माँ भागती हुई सब ठीक करने चली आई।
’अजीब सा बनाया है आपने यह... कोई स्वाद ही नहीं है।’
मैंने वेटर को बुलाके फटकारा... वह दोनों थाली उठाकर ले गया।
’माँ चलो आस्क्रीम खाते है...।’
’मुझे कुछ भी नहीं खाना है... कुछ भी नहीं... चल घर चलते हैं।’
मैंने बिल चुकाया और हम दोनों घर वापिस आ गए।
माँ ने मेरा हाथ पकड़ा और वह मुझे लेकर बालकनी में चली आई...। वह हमेशा ऎसा ही करती थी... जब भी कोई ज़रुरी बात हो वह हाथ पकड़कर, अलग लेजाकर बात कहती थी। पर यहाँ तो कोई भी नहीं था... शायद बात ज़ाया ज़रुरी होगी।
’अब तू क्या करेगा?’
’कुछ भी नहीं माँ... मैं क्या कर सकता हूँ।’
’तू एक बार उसे फोन तो कर लेता...?’
’नहीं... उसने मना किया है।’
’क्या? क्यों? तू उसका पति है... तू फोन भी नहीं कर सकता है क्या?’
माँ की आवाज़ थोड़ी ऊंची हो गई... मैं चुप ही रहा।
’तू बहुत ज़िद्दी है। यह ठीक नहीं है... कभी-कभी तुझे जो अच्छा ना लगे वह भी तुझे करना चाहिए.. कभी तो अपने अलावा किसी ओर के बारे में सोच... तू हमेशा, हर जगह महत्वपूर्ण नहीं है।’
’माँ इस संबंध को अब नहीं बचाया जा सकता है।’
’अगर तू चाहे तो सब हो सकता है।’
’अब वह समय निकल चुका है... यूं मेरे हाथ में कुछ था भी नहीं...।’
’क्या मतलब समय निकल चुका है?’
’जैसे आप यह सब होता हुआ देख रही है वैसे ही मैं भी यह सब होता हुआ देख ही रहा हूँ।’
’तू सीधे-सीधे क्यों नहीं बात करता है?’
क्या सीधे-सीधे बात की जा सकती थी? शायद मैं सीधे-सीधे बात कर सकता, पर उन सीधी बातों के शब्द इतने नुकीले थे कि वह मेरे कंठ में कहीं अटक जाते, चुभने लगते..| मैं सब कुछ सीधा ही कहना चाहता पर उस चुभन के कारण बाहर अर्थ बदल जाते... मैं अब सीधी बात नहीं कह सकता हूँ। मैं बालकनी से निकलकर भीतर चला आया...। माँ वहीं खड़ी रही... मैं जानता हूँ इस वक्त माँ मेरी बातों के ताने-बाने से अर्थ निकालने में जुटी होगीं.. फिर उन अर्थ के बहुत से सवाल होगें... और उन सवालों के जवाब फिर मेरे कंठ में चुभेगें और इस बार मैं चुप रहूंगा।
क्या हुआ था मेरे और अनु के बीच..?
अब मैं उसके बारे में सोचता हूँ तो मुझे हंसी आ जाती है।
हम दोनों एक लंबी सैर के लिए निकले थे... मैं अपना वालेट घर पर भूल गया। उसने कहाँ ’क्यों चाहिए तुम्हें वालेट? तुम्हारे पास कभी पैसे तो होते नहीं है।’ पर मैं वापिस घर चला गया अपना वालेट लेने..। जब मैं वापिस आया तो वह वहाँ पर नहीं थी... वह चली गई थी। मैंने उसे फोन किया ’कहाँ चली गई?’ उसने कहाँ ’आती हूँ।’ वह बस आने ही वाली थी और मैं इंतज़ार नहीं कर रहा था। जब मैंने इंतज़ार करना शुरु किया, वह वापिस नहीं आई।
माँ बहुत देर बाद वापिस कमरे में आई। मैं दोनों के बिस्तर लगा चुका था। माँ ने हाथ मुँह धोए, अपने बेग से सुंदरकांड की छोटी सी किताब निकाली और उसका पाठ करने लगी। मैं अपने बिस्तर पर लेट गया। बचपन से ही मुझे माँ के मुँह से सुंदरकांड़ सुनने की आदत है। कुछ देर में मुझे झपकी आने लगी... कब नींद लग गई पता ही नहीं चला। अचानक मुझे आवाज़ आई...
’बेटा...बेटा...।’
मैं थोड़ा हड़बड़ाकर उठा...। माँ मेरे बगल में बैठी थी...।
’क्या हुआ माँ..?’
’तेरी कमर में दर्द रहता है ना... तेरी गरम तेल से मालिश कर देती हूँ।’
मैंने देखा माँ के हाथ में एक कटोरी है..।
’कितना बज रहा है?’
’तू सो जा ना... मैं मालिश करती रहूगीं।’
’माँ मेरी कमर ठीक है बिलकुल... कुछ नहीं हुआ है।’
’मुझे सब पता है तू पलट जा... चल।’
मैं पलट गया और माँ मेरी कमर की मालिश करने लगी। पूरी मालिश के दौरांन मै माँ को कहता रहा ’बस..बस.. हो गया...’ पर माँ नहीं मानी।
मैं उठकर बैठ गया।
’क्या हो गया बेटा...?’
’बाथरुम से आता हूँ...।’
मैं बाथरुम में जाकर थोड़ी देर बैठ गया। माँ मेरी मालिश नहीं कर रही थी वह अपने उस बेटे की छू रही थी जिसे उन्होंने बचपन में अपना दूध पिलाया है, नहलाया-धुलाया है... जिसे उन्होने अपने सामने बड़ा होते देखा था। मैं वह नहीं हूँ। मैं बड़ा होते ही दूसरा आदमी हो चुका हूँ। बचपन मेरे सामने एक खिलोने की तरह आता है... जिससे मैं खेल चुका हूँ। मेरे घर में वह खिलोना अब सजावट की चीज़ भी नहीं बन सकता है।
मैंने मुँह पर कुछ पानी मारा। बाहर आया तो देखा माँ अपने बिस्तर पर लेट चुकी है।
’लाईट बंद कर दूं।’
’हुं...।’
मैंने लाईट बंद कर दी। धीरे से अपने बिस्तर में मैं घुस गया। कुछ करवटों के बाद अचानक माँ की आवाज़ आई।
’बेटा कल मेरा रिज़र्वेशन करा देना।’
’कुछ दिन रुक जाओ।’
’नहीं तेरे भाई ने जल्दी आने को कहाँ था।’
’ठीक है।’
मौन.... सन्नाटा... कुछ करवटों की खरखराहट... फिर मौन... और अंत में नींद।

ऊब से सुलह....



दिनचर्या को खगालने लगा। पड़े-पड़े घर में विचरण.. और क्या कह सकता हूँ इसे मैं? घर के मेरे कई ठिये बन गए हैं, (यूं एक कमरे के घर में बहुत गुंजाइश नहीं होती।) यह विचारबद्ध तय नहीं हुए... यह रहते-रहते आदतन और आलस्य की खिचड़ी से पक के तैयार हुए हैं। सुबह मुझे किचिन की दिवार से टिक के बैठना ठीक लगता है। दोपहर होते ही बालकनी में कुर्सी डाल लेता हूँ, बिस्तरे और कुर्सी के बीच चहलकदमी में शाम हो जाती है। शाम होते ही कुर्सी खुद-ब-खुद भीतर चली आती है। इस सारी दिनचर्या में शाम को नीचे जाकर गोलगप्पे खाना, आजकल शामिल हो गया है। शाम वापसी कुर्सी से चिपकी होती है...। इन सबके बीच चाय का तारतम्य बना रहता है। सूरज ढ़लती चाय मुझे सबसे ज़्यादा पसंद है... उसे मैं अपनी बालकनी में चिड़ियों से संवाद करते हुए पीता हूँ। इस बीच कुछ चीज़े मैंने बंद कर दी है.. जैसे पंखा ताकते-ताकते दिवास्वपन देखना, टीवी को घूरते रहना, देर तक अखबार पढ़ना, किसी दोस्त के घर यूं ही चले जाना... आदि आदि।
इस सारी मेरी दिनचर्या में जब कभी मेरा फोन बजता है तो मैं उत्साहित हो जाता हूँ। पर फोन पर बात करते ही एक तरह की ऊब मुझे घेर लेती है। तुरंत मैं ’अच्छा फिर... ठीक है.. चलो... ओके... ’ जैसे शब्दों को थूकने लगता हूँ। इस बीच अगर मेरा कोई दोस्त मुझसे कहता है कि ’अगर आप व्यस्त नहीं है तो मैं घर आ जाता हूँ’, तो मैं बड़े उत्साह से जवाब देता हूँ ’अरे.. क्यों नहीं आओ भई... गरमा-गरम चाय पिलाता हूँ।’ फिर मेरी चहल कदमी शरु हो जाती है। मैं इंतज़ार का स्नान कर लेता हूँ, इंतज़ार के कपड़े बदल लेता हूँ, इंतज़ार का घर जमने लग जाता हूँ.... इंतज़ार के बर्तन मांझ देता हूँ...। फिर इसी बीच मेरी बच्चों की सी इच्छा होती है कि कुछ लिख लूं... कुछ ज़रुरी बात, महत्वपूर्ण शब्द, एक वाक्य, आधे संवाद... हाथी, घोड़ा, मानुष, आचार...। मैं तुरंत अपना यंत्र खोलने में लग जाता हूँ... । कुछ देर में दोस्त का आगमन होता है...मैं यंत्र बंद कर देता हूँ...। अगर एक वाक्य भी लिख गया तो मैं बच्चों का सा उछलकर उसका स्वागत करता हूँ। यूं लगने लगता है कि मैंने चोरी की और पकड़ी भी नहीं गई...। मैं चालाक-चालाक सा घर में मंड़राने लगता। मुझे चालाक होना शुरु से पसंद है..। बचपन में मेरे पिता कहते थे... बुद्धु कहीं का चालाक बन.... सो जब भी कोई मुझसे पूछता कि तू बड़ा होकर क्या बनेगा रे.... मैं कह देता मैं बड़ा होकर चालाक बनूगाँ। इस चालाकी से खुश मैं अपने दोस्त के लिए तुरंत चाय चड़ा देता। यहाँ चाय की चुस्की शुरु ही हुई होती कि मैं फिर वही... उसी ऊब का शिकार होने लगता। मैं इस ऊब से छुटकारा पाने के लिए तरह-तरह की बातें करता, छिछोरी निंदाओं पर उतर आता, मायापुरी जैसी बातें करने लगता पर सब कुछ धूम फिर कर वही ऊब में मिल जाता। क्या करें इसका....?
मैं बहानों के पैबंद में उस दोस्त को धीरे से चलता करता। कुछ दोस्त समझ जाते, कुछ समझते हुए भी मेरी सनक मानकर मुस्कुरा देते। उनके जाते ही मैं आत्मग्लानी में घुस जाता। पछताया सा एक ख़राब किताब उठाकर पढ़ना शुरु कर देता... फिर अपना गुस्सा उस झूठे लेखक पर निकालता। किताब को दीवार पर फेंक कर मारता और टहलने लगता।
धीरे-धीरे यह ऊब खिसककर किताबों, कहानियों, कविताओं पर भी छाने लगी है। किताब उठाता हूँ उत्सुकता घिर आती है… पर लेखक की चालें जैसे ही दिखने लगती है ऊब… धीरे से मेरा टेटुआ खुजाने लगती है… मैं खखारता हूँ, फिर पानी ढ़ूढ़्ने उठता हूँ… और वापिस उस किताब पर कभी भी नहीं लौटता। एकांत से बहुत ऊब नहीं होती… या ऊब एकांत का ही हिस्सा है… यह मालूम नहीं।
मैंने एक बार इस ऊब के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया… गहन, घनघोर युद्ध। कई बार उस युद्ध में मैं भीड़ में नाचता गाता पाया गया, कई बार गंदे भद्दे चुटकुलों पर हंसते-हंसते मेरे आंसू निकल आए, एक बार तो भीड़ में किसी छिछली बात पर मेरी आह निकल आई थी। ऊब से युद्ध मेहगा पड़ता जा रहा था। सो मैंने उससे सुलह करनी चाही।
बहुत मान मनऊअल के बाद इस ऊब से सुलह हो गई…… सुलह कुछ यूं है कि…ऊब ने मुझे सुलह का लोन दिया है। मुझे लगातार ऊब को किस्ते चुकानी होती है… लगभग हर रोज़। यह किस्ते गंभीर रुम से निजी है… सो मुँह से उगला नहीं जाएगा। बस इतना ही कह सकता हूँ कि कई सालों बाद आप मुझे जैसा देखियेगा… यह उन किस्तों का ही परिणाम होगा…।
ओह! लो, फिर मैं ऊबने लगा।

Wednesday, April 14, 2010

बेचारा बनना सीखो....


April 14, 2010
मेरे घर के सामने (मैं घर के पीछे वाले हिस्से को घर का सामने वाला हिस्सा मानता हूँ) बहुत से बगुले, छोटी चिड़िया, किंगफिशर आदि आकर पेड़ पर बैठते हैं। इस बात से बिलकुल अंजान कि दुनिया बदल रही है। मैं कभी-कभी इन्हें चिल्लकर कहता हूँ... ’अरे दोस्तों दुनिया बदल रही है।’ पर यह मेरी तरफ देखते तक नहीं है। इन बिचारों को कुछ नहीं पता.... उनको ’बिचारा’ कहकर मैं बड़ी सांत्वना भरी नज़रों से उन्हें देखता हूँ। अरे 2050 तक इस देश में माओवादी राज करेगें... एक किताबी समाज की परिकल्पना साकार करने पर तुले हुए है वह लोग। कुछ बगुले इस बात पर पेड़ से उड़ गए। पर एक चिड़िया आकर मेरी बालकनी की मुड़ेर पर बैठ गई। मुझे लगा चलो इसे तो इस बात में दिलचस्पी है कि दुनिया बदल रही है। मैंने धीरे से उससे कहाँ कि ’सुनों और अपने साथियों को भी बता देना कि सिर्फ धमाकों की आवाज़ भर से तुरंत उड़ जाने वाली कला अब तुम लोगों के लिए काफी नहीं होगी। तुम्हें और भी गुण सीखने होगें...। पहले तो मेरे जैसे बहुत कम लोग है जो तुम्हें बेचारा समझते हैं... तुम्हें यूं इठलाते हुए उड़ने की बजाए.. बेचारा दिखने का अभ्यास करना होगा। अगर मनुष्य को तुमपर दया नहीं आई तो तुम लोगों का जीवित रहना एक सभ्य समाज में नामुम्किन है।’ तभी वह चिड़िया मुड़कर दूसरी तरफ देखने लगी...मुझे लगा नाराज़ हो गई है। मैंने होले से कहा कि ’तुम्हें शायद पता नहीं है... कि मनुष्य ने तुम सब लोगों और तुम्हारे जैसे जितने भी इस पृथ्वी पर मौजूद हो.... की छान बीन कर चुका है। अब अगर तुम अपने आपको लुप्तप्राय प्रजाती में शामिल कर लोगे तो मनुष्य तुम्हारी मदद करेगा।’ इस बात पर वह उड़ गई... मैं अपने कंधों को उचकाया और सोचा... मरेगीं यह भी...। तभी मैंने देखा कि मेरी बालकनी की मुड़ेर पर दो चिड़िया आकर बैठ गई। शायद यह पहली चिड़िया को लगा होगा कि मैं कोई महत्वपूर्ण बात कह रहा हूँ जो उसकी समझ में नहीं आ रही है सो वह अपने बीच की एक समझदार चिड़िया को साथ लेकर आ गई है। मुझे ऎसा लगा...मैं ठीक-ठीक कुछ भी नहीं कह सकता। ’मैं ठीक-ठीक कुछ भी नहीं कह सकता हूँ” मुझे यह वाक्य बहुत अच्छा लगा.. सो उन चिड़ियाओं से बातचीत मैंने यहीं से शुरु की.... मैंने कहा.... ’देखों मनुष्य कभी भी ठीक-ठीक कुछ भी नहीं कह सकता है। पर वह ऎसा मानता है कि दुनिया जो चल रही है वह ग़लत है... जिस दुनिया की कल्पना उनके दिमाग़ में है वह बहुत उमदा है... एक विचित्र आदमी हुआ था उसने एक आदर्श दुनिया को किताब में भी उतार दिया था। कुछ लोगों का तो यह भी मानना था कि देखों किताब पर कितनी सुंदर लगती है.. तो सच में भी यह इतनी ही सुंदर होगी... फिर इन मानने वालों ने सबको मनवाने के लिए... सारे प्रयत्न किये.. । अब कुछ लोग इस काल्पनिक दुनिया को जल्द से जल्द व्यवहार में लाना चाहते है... इसके लिए उन्होंने उन सब लोगों को मारने की ठान ली है जो उनकी दुनिया का हिस्सा नहीं होना चाहते हैं।’ मैंन देखा दोनों चिड़ियाओं ने मेरे सामने shit कर दिया... एक बार मुझे देखा और उड़ गई। मैं पीछे से चिल्लने लगा... ’अच्छा तुम्हें यह सब मज़ाक लगता है... दुनिया सच में बदल रही है.... यह तो मैंने सिर्फ एक बात कहीं है ऎसे कई समुह है... यह दुनिया नहीं रहेगी कहे देता हूँ... या तो हिंदु राष्ट्र होगा... या इस्लाम सब को निग़ल जाएगा.... या तो माओवादी आदर्श समाज बनेगा... या तो ईसा मसीह सबको अपनी ओर कर लेगें और अपने पापों के प्राश्चित के लिए चर्च में बंद करके सबको खूब रुलाएगें....’ भाई सब कुछ होगा... पर यह दुनिया वैसी नहीं रहेगी जैसी यह दिख रही है सो मेरे प्यारे पक्षियों तैयारी कर लो... कुछ ओर होने की...। इस बदलाव की आंधी में ’बेचारे’ ही बचेगें... ’बेचारा’ बनना सीखों... ।

Tuesday, April 13, 2010

बेमतलब के खर्च....


देर रात,
इन दिनों की क्या कहें? यूं पड़े-पड़े गुज़र रहे हैं मानों बेमतलब के खर्चे। शाम के वक़्त कुछ चिल्लर बची रह जाती है जिन्हें घर में चारों तरफ बिखेर देता हूँ। फिर देर रात तक उनसे लुका-छिपी का खेल खेलता हूँ। जब तक अंतिम सिक्के पर पहुंचता हूँ नींद आ जाती है। पर आज रतजगा है... क्योंकि अंतिम सिक्का अभी भी मिला नहीं है। सारे सिक्कों को कई बार गिन लेने के बाद भी कुछ कमी है... एक अंश गायब है... की टीस भीतर है। कैसे इस टीस के साथ सोया जाता है? यह हुनर बहुत समय बाद ही आता है शायद। हर बार घड़ियाल पर निग़ाह जाते ही मैं खुद को कोसने लगता हूँ... क्यों नहीं खर्च कर देता मैं इन सिक्कों को भी? क्यों हर बार बचा लाता हूँ इन्हें? किस तरह का मनोरंजन है यह?
पिताजी की याद हो आई... वह इस वक़्त हस्पताल में हैं...। वह अपनी चोर जेब में सिक्के छुपा के रखा करते थे। जब भी बहुत लाड़ करता, उनके गालों को चूम-चूम कर गीला कर देता तो वह दो रुपये का एक सिक्का मुझे दे देते। मैं भाग खड़ा होता। मैं उन्हें कभी भी स्वार्थी नहीं लगा... पर मैं स्वार्थी हूँ। आज भी मैं आपना दो रुपये का सिक्का मुँह में दबाए यहाँ बैठा हूँ... जबकि वह वहाँ हैं।
’बेमतलब के खर्चे’ अपनी विचित्र दुनियाँ इख़्तियार कर चुके हैं। इसमें किसी के आने के इंतज़ार की गुदगुदी उसके आने को नीरस कर देती है। इसमें कहीं चला जाऊगाँ की उछाल बिस्तर के आस पास ही कहीं होती है। इसमें ’कुछ हो रहा है’ की उम्मीद... बिल्ली है जो ’कुछ नहीं हो रहा है’ के चूहों को मारते चलती है। इसमें रात हमेशा घर को बड़ा कर देती है... जबकि दिन में घर वापिस एक कमरे की गुफा हो जाता है। इसमें शहद का एक छत्ता बुन्ने की त्तृप्ते है पर शहद हमेशा दूसरों ही चखते हैं की हताशा भी है। इसमें नींद पर तब तक बस है जब तक दिन भर के बेमतब के खर्च हो जाने पर रात को अंतिम सिक्का हाथ लग जाता है। इसमें सब कुछ है और इसमें कुछ भी नहीं है।

Wednesday, April 7, 2010

निर्मल और मैं....


04/03/10….CALCUTTA…
निर्मल और मैं...
निर्मल- बड़े दिनों बाद लिखने बैठे हो?
मैं- बहुत पीड़ा में था। आपको बहुत याद किया।
निर्मल- तो अब कैसी हालत है?
मैं- ठीक है... पर बहुत अच्छी नहीं।
निर्मल- हम अपने कमीनेपन को उस वक़्त कभी याद नहीं करते जब हम पीड़ा में बहते हैं।
मैं- मैंने बहुत याद किया था... पर मुझे लगता है जो आपको जीना है वह जीना ही है... उसका कुछ भी नहीं किया जा सकता। चाहे वह पीड़ा हो... प्राश्चित हो... या पाप हो... उससे कुछ भी छुटकारा नहीं है। सारी की सारी किताबें, फलसफे, बातें धरी की धरी रह जाती हैं।
निर्मल- फलसफे, किताबें... इन ओछी समस्याओं के लिए नहीं है।
मैं- यह निर्मल जी... यह बात भी उस वक़्त काम नहीं आती।
निर्मल- तो अंत में क्या काम आया।
मैं- उसे उसकी पूरी निर्ममता के साथ जीना.... बस यह.., और कुछ भी नहीं।
निर्मल- अभी अगर उसे ही जी रहे हो तो मैं चलता हूँ? क्यों कि मैं तो आया था कि तुम बहुत दिनों बाद कुछ लिखने लगे हो... सो उसपर कुछ बात की जाए।
मैं- बैठिये... मैं भी बात ही करना चाहता हूँ।
निर्मल- मुझे अपना डॉक्टर मत समझने लगना... कि सब कुछ कह दूंगा और अच्छा लगने लगेगा... मैं तुमसे पहले भी कह चुका हूँ कि मेरा तुम्हारा संबंध सिर्फ लेखन का है... उससे ज़्यादा कुछ भी नहीं।
मैं- आपको हर बार यह बात इतनी ही क्रुरता से क्यों कहनी होती है।
निर्मल- मुख्य बातें जितनी कड़वी होती है वह उतनी ही ज़्यादा अच्छे से याद रहती हैं।... तो बताओ क्या लिखा?
मैं- एक कहानी ’नक़ल नवीस’ और दूसरी आधी है ’मुमताज़ भाई पतंगवाले...’ आपके आने के ठीक पहले नए नाटक पर भी कुछ काम कर रहा था... पर कविता आ ही नहीं रही है।
निर्मल- अच्छा है... ज़बर्दस्ती की कविताए झूठा संसार पैदा करती है...। पर.... मैं खुद नहीं जानता कि तुम वह एकांत कब पाओगे जिसमें तुम जो लिखते हो वह देख सको... उसे छू सको... उसे चख़ सको। तुम समझ रहे हो.... तुम अभी अपने आपको वेस्ट कर रहे हो।
मैं- मैं जानता हूँ... मैं उन शब्दों तक पहुंच भी जाता हूँ कभी-कभी उन्हें छू भी लेता हूँ पर चख़ने के ठीक पहले विचार कहीं ओर भागने लगते हैं... कुछ छिछली बातें दिमाग़ में घर कर जाती है और मुझे उठ जाना पड़ता है। कैसे मैं उस सन्नाटे को उगल डालू जिसे मैं जानता हूँ... जिसे मैंने भीतर कई बार महसूस किया है। मैं जानता हूँ उपन्यास लिखने के लिए अभी मैं तैयार नहीं हूँ...। लंबी यात्राओं का एक डर है मेरे अंदर... वह समय रहते ही जाएगा... पर छोटी यात्राएँ... कहानिया...वह... उन्हें तो मैं अपनी पूरी इंमानदारी से छूना चाहता हूँ... वह मेरे साथ क्यों लुका-छिपि का खेल खेलती रहती हैं?
निर्मल- खेल तो किसी भी एकांत में खत्म नहीं होगा.... वह तो रहेगा ही... पर तुम्हें वह खेल तब तक खेलते रहना पड़ेगा जब तक तुम थककर ढूढ़ना बंद ना कर दो... फिर वह कहानी खुद तुम्हारी पूरी थकान में तुमसे मिलने आएगी... पर जब तक खेल रहे हो एक भी शब्द मत लिखो।
मैं- आज फिर आपको पढ़ रहा था... अच्छा लगा। बहुत सी किताबें भी खरीदी... धीरे-धीरे पूरा करुगाँ... बहुत छोटी बातों की लंबी यात्राए मुझे बहुत पसंद हैं.... मैं तैयारी करना चाहता हूँ...। यह पूरा महीना मेरे पास है हो सकेगा तो इस महीने बहुत कुछ लिख पाऊगाँ।
निर्मल- मुझे तुम्हारी चिंता लगी रहती है.... तुम बहुत बच्चे हो इस संसार के लिए जिसे तुमने चुना है। पर मैं क्या कहुं... अब इसे छोड़ना तुम्हारे हाथ में भी नहीं है। कैसे करोगे?
मैं- जैसे तैसे कर लूगां।
निर्मल- मृत्यु के बारे में फिर कभी मत सोचना... वह तुम्हारी तरफ खुद आएगी जब उसे आना होगा... उसके पास कूदकर जाना... या उसके बारे में सोचना भी कायरता है... फिर नहीं...। दुख है... तक़लीफ है... तो वह रहेगी... हमेशा... जो नहीं है उसके बारे में सोचकर खुदको वेस्ट मत करो... वह करो जिसके लिए तुम पैदा हुए हो। अच्छा हुआ तुम कलकत्ते आ गए... तुम्हें भी अच्छा लग रहा होगा?
मैं- हाँ... आज मैं बहुत शांत था। Indian coffee house गया... बहुत अच्छा लगा...।
निर्मल- चलो चलता हूँ... सुनकर अच्छा लगा कि तुम अब ठीक हो... जल्द मिलना होगा.... !!!!

red sparrow... (play...)



30th jan 2010...
सही-सही और स्पष्ट-स्पष्ट कह देना भाई....:-)
Red sparrow के shows खत्म हुए...नाटक बहुत से लोगों को समझ में नहीं आया... नाटक के बाद बहुत से लोगों से बात हुई... सभी लोगों ने अपनी-अपनी समस्याए बताना चालू की... मैं शांत था... मुझे लगा कि मेरा शायद कुछ भी कहाँ गया बहाना लगेगा। सो मैं लगभग समर्थन में सिर हिलाता रहा…. जो पीड़ा था। खैर इसके अलावा बहुत कुछ कर सकने की वहाँ जगह भी नहीं थी। मेरे हिसाब से नाटक celebration जैसा कुछ है... बहुत सी चीज़ो का.. और उसे उसी गति से direct भी किया गया है... जितना दिखता है उससे बाहर उसका कोई अस्तित्व नहीं है। लोग कह रहे थे कि ’जो तुम कहना चाहते हो वह हम समझ नहीं पाए’। अरे भाई मैं कुछ भी नहीं कहना चाह रहा था... यह सब fun की तरह पिरोया और प्रस्तुत किया गया था। यह बात अलग है कि इसमें बहुत से छोटे-छोटे connections हैं, जिनका स्वाद मैंने लिखते और direct करते हुए चख़ा है। जिन्हें वह समझ में आएगें वह बहुत ही प्रसन्न होगें और जिन्हें नहीं... उनसे भी कोई समस्या नहीं है क्योंकि नाटक का निर्देशन कुछ इस तरह किया गया है कि... उसके परे भी आपको जो कुछ नज़र आता रहे....उसके अपने साफ सुथरे सत्य हैं। मैं समझ सकता हूँ कि कितने लोगों ने Charles bukowski को google किया होगा... नाटक के बाद.. हा..हा...हा। फिर कुछ इस तरह के लोग भी आए जिन्हें नाटक बहुत पसंद आया... पर उन्हें हमारे चहरे पर बहुत से शक़ दिखे सो वह सभी बहुत आगे बढ़ बढ़ के तारीफ करने लगे जिसे हमने सहर्ष ग्रहण किया। इस नाटक में हम जितने भी writers के नाम लेते है... उन नामों के कारण एक तरह का गमभीर वातावण तैयार हो जाता है.. खासकर उन लेखकों के कारण जिनका नाम लोगों ने सुना ही नहीं है... उस वजह से वह इस नाटक को कुछ और समझते हैं जो वह है नहीं...शायद।
कहीं तो मैंने पढ़ा था कि ’आप वह ही दुनियाँ बनाते हो जिसमें आप रहते हो...।’ मैं इस बात को थोड़ा सा आगे बढ़ाना चाहता हूँ कि... ’मैंने एक दुनियाँ बनाई है... मैं उसी में रहता हूँ और जो भी करीब आता है वह वही देखता है जो यहाँ इस दुनियाँ में बचा पड़ा है। जो मैं लिखता हूँ वही मैं हूँ उसके बाहर मेरा कोई अस्तित्व नहीं है।’ कहानी ना कहने का एक प्रयोग जिसका मैं बहुत समय से प्रयास कर रहा था... वह ’पार्क’ और ’red sparrow’ में पूरा होता सा दिखा है।

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल