Saturday, July 28, 2012

त्रासदी... कहानी का भाग तीन.. "रोशनी..."

रोशनी... उसने आँखें खोली तो देखा उसके बगल में रोशनी बैठी हुई है। कमरा नम्बर एक सौ तीन की लड़की। उसे कुछ देर विश्वास नहीं हुआ... उसने अपने बिखरे हुए बालों में हाथ फेरा... तकिये को सीधा करके वह बैठ गया। ’मैं अपने फेलो पेशेंट को देखने आई हूँ...।’ ’सॉरी मैं सो रहा था.. आप क्या बहुत देर से इंतज़ार कर रही हैं?’ ’मुझे अच्छा लग रहा था.... आपने क्या सपना देखा?’ ’मैंने.. पता नहीं...।’ ’बिना सोचे बताईये... मैं आपका चहर देख रही थी... हर कुछ देर में आपके माथे पर बल पड रहीं थीं। जल्दी बताईये...।’ ’मैं... पता नहीं कुछ बचपन के पागलपन.. मौसा जी.... घर .. और पता नहीं क्या क्या...। वैसे मुझे सपने नहीं आते... पर शायद यह इतनी दवाईयों का असर है...।’ ’बस....? सपना ठीक-ठीक किसके बारे में था... क्या देखा...?’ ’मैंने देखा कि मैं मौसा जी के साथ नदी किनारे बैठा हूँ... हम पेड़े खा रहे हैं... और वह मुझसे अपने खतों के बारे में पूछ रहे हैं... उनके खत.. बस और मुझे याद नहीं...।’ कितनी आसानी से सब गड़मड़ हो जाता है..। उसका देखा हुआ.. उसका जिया हुआ... सब... वह पूरा सच कहने का हुनर भूल चुका था। हर बात को एक प्रेज़ेनटेबल फारमेट में कहना... इसकी इतनी आदत उसे पड़ गई थी कि वह कभी भी सीधा बासी सच कह ही नहीं सकता था। ’आपको मैं अपने सपनों के बारे में बताऊं?’ रोशनी को अचानक अपने बहुत से सपने याद हो आए...। ’तुम क्या एक बार में बहुत सारे सपने देख लेती हो?’ ’नहीं... मैं यहां बहुत दिनों से हूँ... और मुझे अपने सारे सपने याद रहते हैं... सारे के सारे।’ ’अच्छा तो रुको मैं दो मिनिट बाथरुम से आता हूँ।’ नर्स को बुलाया गया.. सिरिंज निकाली गई... वह बाथरुम गया इस बीच रोशनी शांत बैठी रही। वह अपने दाए पैर से स्टूल की टांग बजा रही थी.. कोई धीमे संगीत की थाप जैसा कुछ। कुछ देर में वह भीतर से निकला... चहरा धुला हुआ.. बाल कायदे से जमे हुए। फिर नर्स को बुलाया गया सिरिंज वापिस लगाई गई... पर वह बैठा रहा... नर्स के जाते ही दोनों एक दूसरे की तरफ मुख़ातिफ हुए... मानों नर्स के रहते हुए वह एक दूसरे को नहीं जानते थे, और नर्स के जाते ही दोनों की आँखों मे छोटी सी पहचान के तारे चमने लगे। ’सुनाओ..!’ नरेन ने कहा.. ’पहले कल रात मुझे जो सपना आया था वह सुनाती हूँ... सपने में मुझे कोई उड़ा रहा है... जबकि मैं चल रही थी... किसी एक गहरी रात में, पर मेरा चलना उड़ना था... पर मैं खुद नहीं उड़ रही थी कोई मुझे उड़ा रहा था। उस गहरी रात की गली थी.. मोड़ आते ही समुद्र आ गया... वहां सुबह थी... दूर पानी में कोई खड़ा था.. मैंने पीछे पलटकर देखा तो... वहां अभी भी रात थी.... मैं उस आदमी की तरफ बढ़ने लगी... समुद्र की लहरे उसके पैरों को छू रही थीं.. और वह धागा ख़ीच रहा था... उसके पैरों के पास धागा का ढ़ेर बन गया था... मुझे लगा उसने कोई मछली पकड़ी है... वह उस धागे को तेज़ी से खींचने लगा... मैं उसकी तरफ तेज़ी से भागने लगी... जब मैं उसके बगल में पहुंची तो उस आदमी क धागा टूट गया। उसने मेरी तरफ पलटकर देखा... वह आप थे..।’ ’मैं?’ ’हाँ...।’ ’अजीब है... मैं तुम्हारे सपने में था!’ ’आप एक बार फिर आए थे सपने में... मैंने देखा था कि आप किसी पुराने घर में जा रहे थे...। वह घर आपको अपनी तरफ ख़ीच रहा था। घर के बाहर किसी दूसरे व्यक्ति का नाम लिखा था..। आपको लग रहा था कि बहुत से लोग आपको उस घर में जाने से मना कर रहे हैं पर अगल-बगल कोई भी नहीं था। आप उस घर का दरवाज़ा खोलते ही भटक जाते हैं। वापिस पलटने पर वह दरवाज़ा गायब हो जाता है जहां से आप अंदर आए थे। फिर बस मैंने आपको भटकते हुए ही देखा।’ ’और..?’ ’आपके यह ही दो सपने थे.. सोचा आपको सुना दूं।’ ’उस दिन दवाईयों का शायद ज़्यादा असर था.. मैं बहक गया था, तुमने सोचा होगा अजीब आदमी है। शायद उसी दिन की वजह से तुम्हें इस तरह के सपने आए हैं।’ ’मैं सपनों को निजी जीवन से अलग रखती हूँ...। उन्हें निजी जीवन से इटरप्रेट नहीं करती।’ ’जब मैं उस घर में भटक रहा था तो तुम उस वक्त कहां थीं...’ ’मैं सो रही थी।’ इस बात पर वह ज़ोर से हंसने लगी...। नरेन को भी हंसी आ गई। ’मुझे नहीं पता.. मैं वह सपना देख रही थी... मैं उसमें नहीं थी।’ ’तुम कब से यहां हो?’ ’कहा था ना काफी समय से... ठीक-ठीक याद नहीं।’ ’क्या करती हो तुम?’ ’मैं यहां होस्टल में रहती हूँ। घर वालों को नहीं पता है कि मैं अस्पताल में हूँ... वरना वह बवाल मचा देंगें। मुझे पीलिया हो गया था.. झाड़ फूक से ठीक हो गया था... पर फिर पलटकर आया तो एडमिट होना पड़ा। अब मैं बहुत ठीक हूँ... बस कुछ दिन और...।’ ’कुछ दिन बाद गोलगप्पे..।’ ’पता नहीं...।’ ’पता नहीं...??? मतलब तुमने तो कहा था कि उठते ही सबसे पहले गोलगप्पे खाओगी...।’ ’उस वक़्त मैं करना चाह रही थी..अभी नहीं.. अभी तो मैं सीधे अपने होस्टल के कमरे में जाऊंगी... मुझे अपना होस्टल का कमरा बहुत याद आता है। मेरे पास एक बिल्ली है जिसका नाम सर्दी है.. पता नहीं वह कैसी होगी? बिल्लीयां मुझे अच्छी लगती हैं। वह जल्दी से किसी को अपनाती नहीं है... और अगर अपना भी लें तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। वह अपने मालिक होने का हक़ किसी को नहीं देतीं।’ ’मुझे कोई भी जानवर पसंद नहीं..।’ ’और इंसान...?’ ’यह क्या सवाल है?’ ’सीधा सवाल है...।’ ’पता नहीं.. मतलब मुझे पसंद है और नहीं भी... नहीं ज़्यादा... बहुत देर तक मैं किसी को भी बर्दाश्त नहीं कर सकता।’ ’और खुद को...?’ ’तुम यह सवाल मुझसे क्यों पूछ रही हो...? तुम जानती कितना हो मेरे बारे में? और क्या हक़ है तुम्हें... कि..’ नरेन चुप हो गया। उसने अपने तकिये को पलटा और लेट गया। रोशनी असहज हो गई थी। वह खड़ी हो गई। ’मुझे चलना चाहिए...।’ ’रुको... सॉरी.. बैठो कुछ देर..। मौसी आती होंगी.. उनसे भी मिल लेना..। उनको लगता है कि मैं यहां फस गया हूँ। वह बेकार ही बहुत ज़्यादा चिंता करती हैं।’ ’फसे हुए तो आप लगते ही हैं। तभी मैं भी यहां आई हूँ।’ ’दया दिखाने...।’ ’दया दिखाना मुझे नहीं आता।’ ’ठीक है.. बैठ तो सकती हो तुम..।’ रोशनी मुस्कुरा देती है.. नरेन भी उठकर वापिस बैठ जाता है। ’आपको एक बात कहूं... जो असल में मैं कहने आई थी।’ ’कहो...।’ ’मैं कुछ बारह दिन पहले तक बहुत खराब हालत में थी। लगने लगा था कि शरीर धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है। तभी कुछ हुआ था... मैंने यह किसी को नहीं बताया..। मुझे लगने लगा कि बस यहां से मैं ठीक होने लगूंगी... और ठीक उस वक़्त से मैं ठीक होने लगी...। इसी बीच मुझॆ लगने लगा कि मैं बड़ी हो गई हूँ... मैं उस दूसरी रोशनी को जानती हूँ जो इस अस्पताल में आई थी... मुझॆ लगने लगा कि वह दूसरी रोशनी मेरी कोई दोस्त थी... जिसे मैं अच्छे से जानती हूँ अब... पर वह मैं नहीं हूँ... मैं बड़ी हो गई हूँ। मुझे यह भी नहीं पता कि मैं यह आपको क्यों बता रही हूँ...। जब आप मेरे कमरे से अचानक चले गए तो मैं आपके बारे में सोचती रही.. आपकी एक कहानी भी मैंने बना ली थी।’ ’क्या कहानी है मेरी?’ ’वह छोड़िये... बचकानी है।’ ’फिर भी... मैं सुनु तो...।’ ’वह सिर्फ मेरे लिए थी.. मैं उसे कुछ भूल भी गई हूँ। चलिए अब मुझे चलना चाहिए.. गगन आता होगा।’ ’यह गगन कौन है?’ ’दोस्त है... बहुत ख़्याल रखता है...।’ ’और कौन-कौन आता है तुम्हें देखने..?’ ’मेरे बहुत से दोस्त हैं... पहले बहुत आते थे.. उन्हें लगता था कि कुछ भी हो सकता है.. फिर जब से मैं ठीक होने लगी तो सिर्फ गगन रह गया। इसके अलावा मेरे मामा आते हैं.. जो मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। पर उन्होंने वादा किया है कि वह मेरे घर पर कुछ नहीं बताएगें। अगर आप भी बंबई में एडमिट होते तो बहुत से लोग आपको देखने आते..?’ ’आशा तो मैं भी ऎसी ही करता हूँ... पर यक़ीन से नहीं कह सकता..।’ ’क्यों आपकी... मेरा मतलब है..।’ ’मैं सिंगल हूँ... डिवोर्सी... रिशतेदारो में मौसी बची हैं..। और कुछ दोस्त हैं जिनके साथ मिलकर मैं व्यस्त रहता हूँ।’ टूटे फूटे शब्दों में नरेन ने सब सच कहा...। वह पारुल के बारे में भी बताना चाहता था... सब कुछ.. पर वह चुप हो गया। रोशनी कुछ देर की चुप्पी में अपने कमरे की तरफ बढ़ गई। रोशनी ने अपने कमरे में आते दरवाज़ा बंद कर दिया। जब वह बारह साल की थी उसके पिताजी की मृत्यु हो गई थी। वह, उसकी छोटी बहन और उसकी माँ रह गए थे। नींद में अपने पिताजी का मुस्कुराता हुआ चहरा उसने आखरी बार देखा था उसके बाद वह कभी घर नहीं आए। वह चहरा आज भी रोशनी आपने साथ लेकर चलती है। मृत्यु के कुछ समय बाद से ही उसे घर में एक खाली जगह दिखने लगी..। पिताजी के जाने के बाद की छूटी हुई जगह। रोशनी को जितना दुख पिताजी की मृत्यु का था उससे कहीं ज़्यादा उसे यह ख़ाली जगह परेशान करने लगी थी। उसकी माँ की आँखें उसे कुछ खोजती हुई दिखति लगातार। उसने तय किया कि वह यह जगह भरेगी... किसी को तो वह जगह भरनी ही पड़ेगी सो वह ठीक अपने पिता की तरह व्यवहार करने लगी। उसने पेंट शर्ट पहनना शुरु कर दिया। वह अपनी छोटी बहन को स्कूल के लिए तैयार करती.. उसका लंच बनाती.. स्कूल के टांगे में उसे बिठाने के ठीक पहले उसके गालों को चूम लेती। अपनी माँ के साथ बाज़ार जाती.. पैसों का पूरा हिसाब रखती। एक दिन उसने अपनी माँ को डॉट दिया ठीक वैसे ही जैसे कभी कभी उसके पिताजी खराब खाना बनने पर डॉटा करते थे। उसकी माँ उसे आश्चर्य से देखने लगी... उसे लगा कि वह पकड़ा गई है.. उसका नाटक, जो अब उसके लिए नाटक नहीं था वह उसे जीने लगी थी... खत्म होने को है। इस घटना के बाद से रोशनी अपने बाप की भूमिका में कुछ नरम पड़ गई। पर जहां उसे जगह दिखती वह अपने पिता की तरह हो जाती। अपने पिताजी की बची हुई सिग्रेट वह अपने स्कूल बेग में रखती... अकेले कमरे में वह एक सिग्रेट निकालती और अपनी उंलियों में नचाने लगती। उसने महसूस किया था कि उसकी आवाज़ थोड़ी भारी होती जा रही है। वह भारी आवाज़ में अपने पिता की तस्वीर से बातें करती.. उन्हें सारे के सारे राज़ बताती.. घर को अच्छे से संभालने की कसम खाती...। वह अपने पिता की तस्वीर को अपने तकिये के नीचे छुपाकर रखती। घर में उसके भीतर हो रहे परिवर्तनों को महसूस करने की जगह किसी के पास नहीं थी। बहन बहुत छोटी थी, माँ बहुत चुप रहती थी। तभी घर में सिन्हा अंकल का आना जाना बढ़ने लगा। पहले रोशनी को यह बहुत अच्छा लगता था। सिन्हा अंकल उसके पापा के अज़ीज़ दोस्तों में से एक थे.. पर माँ के प्रति उनके व्यवहार में अजीब सा बनावटीपन आने लगा था। माँ उनके आने से खुश हो जाती थी सो वह अपनी बढ़ती हुई नापंसदगी कभी किसी को बता नहीं पाई। सिन्हा अंकल हर बार उसकी छोटी बहन के लिए चाकलेट लाते.. उसके गालों पर ज़बर्दस्ति चूटी काटते.. माँ उनके साथ कभी-कभी घूमने चली जाती और देर रात वापिस आती। उसने एक रात अपनी माँ से इस बारे में बात की...उसके भीतर बहुत कड़वाहट थी जिसे वह रोक नहीं पाई.... माँ ने कहा कि ’अच्छे से बात करो उनके बारे में.. वह तुम्हारे पिता जैसे हैं।’ इसके बाद से उसे खुद का अभिनय झूठ लगने लगा..। वह अपने पिता होने का झूठा अभिनय कर रही थी। देर रात वह तकिये के नीचे से अपने पिता की तस्वीर निकालती पर कुछ कह नहीं पाती.. उसे रोना आ जाता। वह इतनी बड़ी हो चुकी थी कि सिन्हा और उसकी माँ के बीच के संबंध को सूंघ सके। एक पुरुष घर में दाखिल हो रहा था जो कतई उसके पिता जैसा नहीं था.. वह बहुत फूहड़ तरीके से हंसता था.. उसके हाथ बहुत रुखे थे... शरीर का पसीना बहुत दूर तक बसाता था... खाना मुँह खोलकर खाता था.. पेट शरीर का बड़ा हिस्सा था.. बार-बार उसे गोदी में बिठा लेता.. उसकी दाड़ी उसे बहुत चुभती थी... और वह सिग्रेट भी नहीं पीता था। वह एक सुबह अपनी जीप में आया और पूरे घर को दो दिन के लिए एक हिल स्टेशन पर ले गया। बहुत बनावटीपन से उसने सारा इंतज़ाम किया हुआ था..। दिन भर की यात्रा के बाद जब वह होटेल पहुंचे तो एक कमरे में वह और उसकी बहन रुके और दूसरे कमरे में उसकी माँ और वह...। उस रात रोशनी में अपने पिताजी की तस्वीर फड़ दी थी। सिन्हा अंकल और उसकी माँ ने शादी कर ली। रोशनी को माँ ने कहा कि वह सिन्हा अंकल को अब से पापा कहकर बुलाया करे। वह कहना चाहती थी कि इस घर में वह पापा थी... उसने पापा के जाने के बाद पापा होना तय किया था... और वह कोशिश कर रही है पापा होने की...। घर रोशनी के लिए अब घर नहीं रहा था। सिन्हा अंकल पापा होते ही बदल गए थे। वह एक ऎसा खूंखार आदमी हो गया था जिसके अगल-बगल किसी का भी जीना मुश्किल था। रोशनी ने अपनी माँ को समझाया पर माँ अपने नए पति को पति मान चुकी थी... वह सुधर जाएगें जैसे वाक्य उनके मुँह से भजन की तरह निकलने लगे। रोशनी वह घर छोड़ना चाहती थी। तभी उसे गगन दिखा... जो उसके ने पिता के दोस्त का बेटा था। घर आने जाने में उसे रोशनी से लगाव हो गया। उसे पढ़ने का बहुत शोक था... रोशनी उसकी दी हुई किताबें पढ़ा करती थी। एक दिन वह ज्ञानरंजन का कहानी संग्रह ’यात्रा’ पढ़ रही थी... उस किताब के बयालीस्वें पन्ने पर बहुत छोटे-छोटे अक्षरों में गगन ने कुछ लिख रखा था...। किताब वापिस देते वक़्त रोशनी ने कुछ शब्द उसमें जोड़ दिये...। इस तरह बयालीसवें पन्ने का सिलसिला शुरु हुआ। यह सिलसिला गगन को रोशनी के बहुत पास ले आया। रोशनी ने एक दिन बयालीसवे पन्ने पर अपना घर छोड़ने की इच्छा ज़ाहिर की...। संबंध पन्नों पर ही था पर लिखित था... गगन पढ़ता बहुत था इसलिए लिखे हुए से उसका संबंध गहरा बनता था। गगन ने शहर में एक नौकरी जुगाड़ ली। कुछ ही महिनों में पढ़ाई का बहाना करके रोशनी गगन के पीछे शहर रवाना हो गई। जब वह अपना घर छोड़ रही थी तो उसे लगा कि वह पूरे घर से पल्ला झाड़कर जा रही है। अपनी माँ को गले लगाते वक़्त उसने बहुत धीरे से कहा था.. मुझे माफ कर देना..। माँ ने मानों यह सुना ही नहीं... छोटी बहन खुश थी.. उसे पता था कि वह रोशनी उसे जल्द ही शहर बुला लेगी... जो रोशनी ने नहीं किया। वह अपने पिताजी की दूसरी तस्वीर ले आई थी जिसमें वह चारों थे.. और खुश थे। गगन अभी भी दोस्त ही था। अभी भी उसना बयालीस्वे पन्ने का संबंध कायम था। अब रोशनी होस्टल में रहने लगी थी। गगन आदतन नौकरी करते-करते सच में नौकरी करने लगा था। वह अपने हस्पताल के कमरे में लेटी हुई थी, उसके हाथ हवा में कुछ तलाश रहे थे। वह एक उंगली से हवा में कुछ चित्र बना रही थी। एक खट के साथ उसके कमरे का दरवाज़ा खुला... गगन सामने खड़ा था। वह नीली शर्ट में बहुत सुंदर दिखता था। आज उसने शेव भी किया था। रोशनी ने उसे अपने पास आने को कहा... गगन उसके पलंग पर बैठ गया। रोशनी ने उसे पास खींचा और उसे चूम लिया। वह हमेशा अपनी आँखें बंद कर लेता था। रोशनी को चूमते हुए उसे देखना बहुत पसंद था। वह अपनी आँखे कुछ इस तरह मीचता था मानों कहीं बहुत हल्का दर्द हो रहा हो.. और वह बहुत तनम्यता से उस जगह को खोज रहा हो। ’तुम फिर मुस्कुरा रही हो?’ गगन धीरे से अलग हो गया। रोशनी को हंसी आ गई। ’सॉरी.. सॉरी...’ ’मैंने कहा था ना...!!!’ ’सॉरी कहा ना... तुम्हें पता है मुझे तुम्हारी ऑखों को देखकर हंसी आ जाती है। इट्स वैरी क्यूट।’ ’मैं क्यूट नहीं हूँ।’ ’आज तुम कितने सुंदर लग रहे हो।’ ’थेंक्स... तुम्हें मैं अपनी गिफ्ट की हुई चीज़ों में हमेशा सुंदर ही लगता हूँ।’ ’अरे.. क्या हो गया? बहुत चिड़े पड़े हो!!’ गगन चुप हो गया। रोशनी जानती थी गगन को कभी-कभी इस किस्म का दौरा पड़ता है। वह दोस्त हैं.. कभी-कभी लाईन क्रास कर लेते हैं.. पर चूकि वह लाईन हमेशा रोशनी ही तय करती है इस बात पर गगन हमेशा नाराज़ रहता है। इस बहस में रोशनी हमेशा कहती है कि मैं इस सबमें अपनी दोस्ती बचाना चाहती हूँ सो हमेशा एक हद में प्रेम रखती हूँ। गगन ने रोशनी को पढ़ा था सो वह असहाय रुप से जो वह कहती थी मान लेता था। ’समने के कमरे में एक आदमी आया है... इंदर उसका नाम है। वह अचानक ही मेरे कमरे में चला आया। बीमार था.. लड़खड़ा रहा था...। बड़ी अजीब सी बातें की उसने... फिर मैं उसके कमरे में गई..। मैंने उसे अपने सपने सुनाए जिन्हें मैं देखना चाहती थी।’ रोशनी ने गगन की चुप्पी में बात बदल दी। गगन खाने की कुछ चीज़े लाया था जिसे झोले से निकालने में व्यस्त हो गया था। वह नहीं सुन रहा है ऎसे अभिनय में वह रोशनी की बात सुन रहा था.. रोशनी चुप नहीं हुई। ’पता नहीं क्यों मैं इस उम्र के लोगों से बहुत आकर्षित होती हूँ जबकि मेरे भीतर इनसे बदला लेने की चाह होती है... पर जब मैं उनके निकट पहुंचती हूँ तो लगता है कि वह मुझे मारे.. मुझे डॉटे.. मुझे बेइज़्ज़त करे.. मेरे साथ...।’ गगन अपना काम रोक कर अब सुनने लगा था। ’कौन है वह?’ ’मिड लाईफ क्राईसिस से गुज़रता हुआ... नहीं मिड लाईफ नहीं... वह अकेला है.. भटका हुआ.. नहीं पता नहीं।’ ’क्या कहा उसने?’ ’सच कहना चाह राहा था पर डरी हुई कहानी उसके मुँह से निकल रही थी।’ गगन और नहीं जानना चाह रहा था। ’कल छुट्टी है।’ ’क्या???’ ’हाँ... मैं रिपोर्ट्स देखकर आ रहा हूँ रिसेप्शन पर..। बस कमज़ोरी बची है.. और खाने पीने का ध्यान रखने को कहा है..।’ ’यह तो बहुत सही है। मैं कुछ दिन तुम्हारे साथ रह लूंगी।’ ’नहीं... तुम होस्टल में ही रहना.. मैं आता रहूँगा।’ ’अच्छा!!!... कोई तुम्हारे साथ रहने लगा है?’ ’हाँ... दिप्ति आती है... उसे यूं भी तुमसे बहुत तकलीफ है।’ ’गलत तो नहीं है वह... उसे मुझसे तकलीफ होनी चाहिए।’ ’नहीं... उसे तकलीफ होनी चाहिए उस लड़की से जो बयालीसवे पन्ने पर लिखती है.. तुमसे नहीं..।’ ’अरे मैं ही तो हूँ वह...।’ ’नहीं तुम वह नहीं हो...।’ गगन बुरी तरह चिढ़ चुका था। उसने झोले में कुछ सामन रखा और जाने लगा। ’कल सुबह तुम्हारे मामा आएगें क्या?’ ’नहीं.. वह बाहर गए हुए हैं।’ ’ठीक है तो मैं आ जाऊंगा तुम्हें लेने.. नौ बजे तैयार रहना।’ ’कहां जा रहे हो?’ ’दिप्ति नीचे इंतज़ार कर रही है।’ रोशनी, गगन को बहुत पसंद करती थी। सांवला सा मृदुभाषी.... उसे उसके होंठ बहुत पसंद थे। जब भी उसके जीवन में दूसरा कोई प्रवेश करता वह उसकी तरफ बुरी तरह आकर्षण महसूस करती। यहां तक कि वह इंतज़ार करती कि उसके जीवन में कोई दूसरी लड़की आए। दिप्ति को लेकर वह कुछ ज़्यादा ही संजीदा हो गया है.. पर रोशनी खुद को रोक नहीं पाती है। आज उसे गगन को चूमना नहीं था.. पर उसने दिप्ति को सूंघ लिया था। दूसरी लड़की की खुशबू गगन के शरीर में थी जो बहुत ही उत्तेजक थी। उसे लगा था कि रात तक गगन उसके पास ज़रुर आएगा.. पर गगन नहीं आया। वह देर तक अपने ’पिता होने’ के नाटक के बारे में सोचती रही। उसे लगने लगा कि किसी भी संबंध में उसे किसी के जैसा होना बहुत सामान्य लगता है। वह अपने घर में पिता की खाली जगह भरना चाहती थी.. पिता होकर..। वह नहीं हो पाई... और इस बात की ग्लानी उसे अभी भी है... शायद उसी के पिता ना होने के कारण वह दूसरा व्यक्ति घर में प्रवेश कर सका.. उसे लगा था कि उसने पिता की खाली जगह अपने नाटक से भर दी है.. पर वह गलत थी। रात में उसने खुद को इंदर के कमरे में पाया। बदला लेने की भावना उसके भीतर थी... पर वह हारना भी चाहती थी। उसने इंदर के पैरों को छुआ... हल्के से... इंदर ने आँखे खोली और वह झटके से उठकर बैठ गया। ’अरे क्या हुआ? सब ठीक है।’ उसने इसका कोई जवाब नहीं दिया..। वह उसके बगल में बैठ गई। उसने उसके हाथों से उसकी सिरिंज निकाल दी.. उसने उसकी छाती पर धीरे से अपना हाथ रखा। इंदर उसकी आँखों में कुछ तलाश रहा था जो वहा नहीं था। उसने अपने हाथों से धीरे से इंदर को धक्का दिया। इंदर लेट गया था। रोशनी ने अपनी चप्पल उतारी... इंदर के दाहिने हाथ को फैलाय और उसपर अपना सिर टिकाकर लेट गई। ’तुम्हें पता है तुम क्या कर रही हो?’ इंदर ने बहुत हिचकिचाते हुए कहा। रोशनी ने अपना हाथ उसके होठों पर रख दिया। इंदर की तरफ करवट कर के वह उससे चिपक गई। ’क्या तुम मेरे सपने में आई हो?’ कुछ देर की शांति के बाद इंदर ने कहा। ’तुम्हें दवाईयों के कारण बहुत सपने आते हैं अजकल।’ ’यह सपना कौन देख रहा है।’ ’यह सपना नहीं है।’ ’क्या मैं तुम्हें छू सकता हूँ... क्या तुम हो यहां?’ रोशनी चुप थी। ’मैं कुछ नहीं कर सकता... ।’ ’मैं जानती हूँ..।’ ’क्या सुबह होने पर यह याद रहेगा।’ ’तुम सुबह के बारे में क्यों सोच रहे हो?’ ’मैं इसे जीना चाहता हूँ।’ ’तुम जी रहे हो।’ ’मैं नहीं जी रहा हूँ। मैं इसे होता हुआ नहीं देख पा रहा हूँ। क्या मैं लाईट ऑन कर सकता हूँ?’ ’ना.... मुझे नींद आ रही है।’ ’मैं सोना नहीं चाहता हूँ।’ ’मैं यहां सोने आई हूँ।’ ’क्या तुम सुबह चली जाओगी।’ ’पता नहीं।’ ’क्या यह सब कुछ रुक नहीं सकता? यहीं.. बस ऎसा का ऎसा...।’ ’अगर तुम इसे रोकना चाहते हो तो मुझे जाना पड़ेगा।’ ’यह खत्म हो जाएगा।’ ’यह खत्म हो रहा है।’ ’मुझे खांसी आ रही है.. पर मैं ख़ांसना नहीं चाहता.. मुझे डर लग रहा है कि मेरे ख़ासने से कहीं मैं जाग ना जाऊं।’ ’तुम ख़ांसके देख सकते हो।’ ’नहीं मैं यह रिस्क नहीं ले सकता।’ इंदर रोशनी की तरफ करवट बदलता है। रोशनी का सिर इंदर की छाती से चिपक जाता है। इंदर की छाती गर्म है। कुछ देर में दोनों हल्के होने होने लगते हैं.. रोशनी का सिर लटक जाता है। इंदर सबकुछ देख रहा है... सूंध रहा है.. महसूस कर रहा है... बहुत देर तक उसको लगता है कि उसकी आँखें खुली हुई हैं।

Thursday, July 26, 2012

धुंध..

Sona pani.. फिर पहाड़ों पर... बहुत थका हुआ काठगोदाम से एक गाड़ी लेकर पहाड़ों पर निकल गया। ड्रायवर शांत था... मैं अपने सपनों से बाहर निकलकर हर कुछ देर में उससे एक सवाल पूछ लेता... वह छोटी सी आवाज़ में मेरे सवालों को खत्म कर देता..। मेरे सवाल इस डर से निकलते थे कि कहीं वह सो ना जाए..। भीम ताल से कुछ पहले ही धुंध भरी पेंटिग में हमारी गाड़ी प्रवेश कर गई। यह दुनिया जो अब तक सच में मेरे सामने थी गायब हो गई। मैं जिन भी सपनों में तिर रहा था सब खो गए। मैं उस चित्र में प्रवेश कर चुका था जो दिख नहीं रहा था। कार की गति बहुत धीमी हो गई... मैं कार की खिड़की से अपना सिर बाहर को निकाल लिया..। नमी... मेरी त्वचा बहुत दिनों बात नमी महसूस कर रही थी। भवाली में हम कुछ देर रुके... मैं हमेशा भवाली में रुक जाता हूँ.. ’कव्वे और काला पानी..’ कहानी को खोजने के लिए..। बहुत बार मैं महसूस करता हूँ कि उस कहानी का नायक (निर्मल वर्मा) खुद यहीं से गुज़रे होंगें। चाय पीते हुए अचानक बारिश होने लगी... मैं उस कहानी के बहुत करीब था। तभी फिर धुंध की परतों में सब कुछ खो गया। मैं बस अपने चाय के गिलास के साथ था... ड्रायवर चाय नहीं पीता था.. उसने पान की मांग की..। ’उड गया अचानक लो भूधर...’ पंत जी की कविता जो बचपन में पढ़ी थी, we live as if its real… Cohen की यह लाईन भी याद हो आई.. और फिर पहाड़ में बिताए दिनों की झड़ी लग गई। कुछ देर में सब कुछ धुंधलाने लगा.. मैं धुंध में दृश्य खोज रहा था। मैं टुकड़ों-टुकड़ों में यहां आता हूँ... पर जब यहां रहता हूँ तो लगता है कि मैं टुकड़ों-टुकड़ों में शहर जाता हूँ...। पहाड़ आपसे इतना दूर रहते हैं कि अपनापन देते हैं। ज़मीन मेरे रेंगते हुए जब सवालों से मैं भर जाता हूँ तो पहाड़ आ जाता हूँ.. पहाड़ में प्रवेश करते ही सब कुछ छिछला लगने लगता है..। भवाली से तल्ला, मल्ला होते हुए.. सोना-पानी के करीब पहुंच गए। कार को अलविदा कह दिय..। लंबी यात्रा का सामान कुछ ज़्यादा था... खुद को कोसते हुए.. मैं उसे सिर पे लादे चल दिया। बादल, धुंध.. पहाड़.. बिजली.. चहचहाहट..। कभी-कभी लगता है कि हज़ारों सालों से ज़िदा हूँ... बिना रुके जिये चला जा रहा हूँ। दृश्य बदल रहे हैं... लोगों के साथ संवाद बदल जाते है पर मैं वही हूँ.. सालों से एक सा...। अपनी बातें वैसी की वैसी दौहराता हुआ। मैं किससे क्या कह दूंगा..? और क्यों? मैं हर बिखराव को अपनी बातों से एक तारतम्य को देना चाहता हूँ.. मैं जो मुक्त (झूठ).. बिखराव पसंद करता हूँ (यह भी झूठ ही है)... वह हर चीज़ को सांचे में क्यों ढ़ालना चाहता है..? झूठ.. मैं चुप हूँ..। सुबह-सुबह भीतर जंगल में जाकर बैठ गया। सामने अलमौड़ा कभी दिखता कभी लगता कि वहां कुछ कभी था ही नहीं। अतीत मधुमक्खीयों के झुंड की तरह लगता है... जब तक चलते रहो तो वह पीछे रहता है. जैसे ही कहीं बैठ जाओ तो वह आपको धर दबोचता है..। मुझे बारिश में पहाड़ इसलिए बहुत खूबसूरत लगते है क्योंकि यहां अतीत की मधुमक्खीयां आपको परेशान नहीं करती। अतीत धुंध में भटक जाता है.. मैं आगे कहीं निकल जाता हूँ...। सामने बादल का एक टुकड़ा अलमौड़ा पर कुछ इस तरह टंगा है जैसे लगता है कि किसी ने रस्सी से इस बादल को सुखाने के लिए डाला हो..। मैं पर्यटक नहीं हूँ.. पर मैं दृश्य भी नहीं हूँ। मैं बीच में कहीं डोल रहा हूँ। मैं शांति के लिए लड़ाई नहीं करना चाहता सो हिंसा में गोबर लीप रहा हूँ। क्या मैं यहां हूँ? मैं कब दृश्य हूँ? और कब उसे महज़ दूर से देखता हूँ? तभी एक वह पीली चिडिया दिखी.. और मैं रुक गया।

Friday, July 13, 2012

चाय या कॉफी...

हर लड़ाई के पहले बहुत देर तक सोचता हूँ कि स्टेक पर क्या है? यहां बहुत देर- क्षणिक है। सुबह-सुबह चाय पियूं या कॉफी... जूता पहनू या चप्पल... तेज़ चलू कि धीरे.... उठ जाऊं या बिस्तरे पर ही लोट-पोट होता रहूं? यह छोटे-छोटे चुनाव ही लड़ाई है। यह छोटे चुनाव और जीवन के बड़े-बड़े निर्णय बिल्कुल एक ही तरह के क्षणिक बिंदु पर टिके रहते हैं। दोनों पर एक ही बात लागू होती है.. स्टेक पर क्या है? बार बार यह सवाल गूंजता है। समस्या इस सवाल की नहीं है.... कुछ ही क्षण में हम अपने जवाब के बादल को लिए बारिश कर रहे होते हैं... समस्या इसके बाद शुरु होती है... चुनाव खत्म होते ही रंग बदल जाते हैं.... जो नहीं चुना वह दिमाग़ में रह जाता है और जो चुन लिया वह मेरे थके हुए जीवन का हिस्सा बन जाता है। ठीक इस वक़्त मैं चाय पी रहा हूँ... जबकि कॉफी दिमाग़ में है...। बाल्कनी में तकिये लगाकर बैठ गया कि पढ़ूंगा... The naïve and the sentimental novelist… नाम की किताब बाल्कनी में ले आया जबकि kafka on the shore बिस्तर पर पड़ी है, कल रात वह पढ़ते-पढ़्ते मैं सो गया था। हाथ में Orhan Pamuk है और दिमाग़ में Murakami….. दुविधा। मैंने चाय पीना बंद किया... लिखना बंद किया.. सीधे कॉफी बनाई और उसे बाल्कनी में लेकर आ गया...। साथ में Murakami को भी ले आया...। आप जीवन के बड़े-बड़े निर्णयों के साथा ऎसा नहीं कर सकते हैं...। अब Pamuk और Murakami … चाय और कॉफी... दोनों मेरे साथ हैं.. सामने हैं। जब मैंने अपने सारे options को अपने सामने पाया.. तो चीज़े कुछ ज़्यादा कांप्लेक्स हो गई। अब ना तो मैं कॉफी पी रहा हूँ ना चाय... दोनों किताबों के कवर पर आँखें जमाता हूँ... पर उठाता किसी को भी नहीं। नाटकीयता किस बात की है..? नाटकीयता तलाशने की है... अपने आपको चाय की जगह बिठाने की है... मानों मैं Murakami हूँ जो बाल्कनी में बैठे हुए खुद को देख रहा हूँ। हर चीज़ का अर्थ उसके होने में है.. भीड़ में रहकर अकेलेपन की कल्पना हमेशा सुख देती है.. पर अकेले में अकेलेपन का स्वप्न क्या है... यह दोगलापन है..। यात्राओं की कल्पना में जब भी अपने घर के दरवाज़े पर ताला लगाता हूँ तो दरवाज़ा वापिस खोलने का स्वप्न भीतर घर कर जाता है.... यह दूसरा बिंदु है..। दूसरे बिंदु का स्वन ही टाईम और स्पेस को पैदा करता है...। मेरी यात्रा का समय वह स्वप्न निर्धारित करना चाहता है....। मैं लगभग उसे फुस्लाते हुए कह देता हूँ कि करीब शाम तक.. या एक महिने बाद वापिस अपने घर का दरवाज़ा खोलूंगा...। इस दूसरे बिंदु के आते ही सब कुछ फिक्शन हो जाता है... यह सब एक कहानी में तबदील हो जाता है...। जिसकी शुरुआत मेरा घर में ताला लगाना है और अंत अपने घर का ताला खोलना है। अब यात्रा पर कौन निकला? मैं नहीं... ठीक अभी मैंने कॉफी और चाय दोनों को सिंक में उड़ेल दिया...। Murakami और Pamuk दोनों को वापिस बाक़ी किताबों के बीच फसा दिया...। एक नई शुरुआत... ’नई शुरुआत..’ इस शब्द के अपने स्वप्न है.. जिससे फिर टाईम और स्पेस पैदा होगा और फिर सब कुछ फिक्शन हो जाएगा... फिर मैं सिर्फ एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुंचता हुआ एक आदमी होंऊगा... और वह कोई दूसरा होगा जो कहानी का नायक है..। मैं नायक नहीं हूँ... मैं अपने शरीर का एक अंग हूँ... जिसका मैं नाम नहीं रखना चाहता..।

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मानव

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल