Sunday, December 16, 2012

किंगफिशर....

क्या मैं बता सकता हूँ कि आज किंगफिशर आया था। खोज रहा था कुछ... बीच झाड़ी में पहली बार उसकी अस्थिरता देखी..। वह फिर चला जाता और बहुद देर बाद किसी अलग टहनी पर कुछ खोजता हुआ दिखता। क्या मैं खुद को देख रहा हूँ... क्या वह मैं हूँ और बार बार भीतर कमरे में बहुत देर घूमकर वापिस बाहर कुछ खोजने लगता हूँ... जबकि वह स्थिर वहीं एक जगह बैठा है। क्या मैं बता सकता हूँ कि चाय का स्वाद बदल गया है... मैं कई बार अपनी जीभ जला चुका हूँ...। हर बार शाम के वक़्त कॉफी निकालता हूँ और बनाना भूल जाता हूँ। एक टहनी से दूसरी टहनी पर दृश्य नहीं बदलता है.. सारा का सारा वैसा का वैसा ही दिखता है...। मैं कहता हूँ कि बदल गया हूँ पर हर बार वही... वैसा का वैसा टहलता हुआ दिखता हूँ। क्या मैं कह सकता हूँ कि मैंने सपने में अपनी बाल्कनी में झूला देखा था। उसमें एक सुंदर चर-मर की आवाज़ हो रही थी... मर ज़्यादा सुनाई दे रही थी...। क्या मैं कह सकता हूँ कि कुछ रातें डरावने सपने लिए आई थीं.... मैं देर तक आँखे टपकाए खोजता रहा उसे जिसे मैं देखना नहीं चाहता था..। क्या मैं कह सकता हूँ कि दिनभर एक गाना निरंतर चलता रहता है... उस सीमा तक कि वह चुप्पी में शामिल हो जाए। मैं घर में रहता हूँ बाहर दिखाई दिये जाने का खतरा है... मैं दिख जाऊंगा.. मैं देख लूंगा...। क्या मैं कह सकता हूँ मैं खुद को बचाए रखने की कला की वजह से डरपोक हो गया हूँ... मैं घबरा जाता हूँ बहुत जल्दी..। सबके सामने कैसे पेश आना है के हुनर मैंने कभी सीखे नहीं... मेरे हुनर गरीब हैं। क्या मैं कह सकता हूँ कि मैं थक गया हूँ... अपने लेटे रहने से.. अपने चल देने से... अपने होने से... और बहुत देर तक नहीं होने से...। क्या मैं कह सकता हूँ।

Thursday, December 13, 2012

ब्लू रेनकोट.....

बहुत देर से सोने के बाद भी सुबह बहुत सुबह हो गई.. यह सुबह धुंध लिए हुए थी.. पौ फटने को थी... सुबह इतनी खूबसूरत थी कि चुभ रही थी। मैंने सिगरेट जला ली। ख़ाली कमरा किसी सुबह जीवन के ख़ालीपन की चीख़ की तरह दिखता था... आज वही सुबह थी। पौ फटी और मैं बैठा रहा... पलंग से बाल्कनी की दूरी ज़्यादा नहीं थी... पर मैं हिला नहीं... वहीं एक जगह बैठे हुए अपने कमरे को ताकता रहा। बिस्तर के बगल में पड़ा हुआ रात का ख़ाली गिलास... झूठी थाली जिसमें चावल और सब्ज़ी सूख गई थी... टूटी हुई एशट्रे...। सामने गेरुए रंग का धुंध में लिपा पुता सूरज निकला... पहली किरण पेड़ों में से टूटती-फूटती हुई मेरा चहरा छूने लगी। पिछली ठंड की इन्हीं सुबहों में मैं उसके साथ था। यही हल्का सूरज.. उसकी पहली किरण पेड़ों में से टूटती-फूटती.. उसकी नंगी देह को छू देती... मैं सूरज को उसकी देह पर पकड़ना चाहता था... मैं उसे यूं छूता मानो पहली बार छू रहा हूँ। वह अपनी अलसाई अंगड़ाई में चाय मांगती... मैं बहुत देर तक चाय टालता रहता...। मैं उसे चूमता... मानों सूरज की रोशनी उसकी देह पर से चुगना चाहता हूँ। उसकी देह पर रोंगटे खड़े हो जाते... मैं अपने हाथों से उन्हें सहलाकर वापिस बिठा देता..। उसने फिर सुबह की चाय की इच्छा जताई...। मैं चाय बनाने लगा। ख़ाली पड़े गिलास को... थाली को सिंक में डाला... एशट्रे को डस्टबिन में खाली किया। हमेशा लगता है कि कुछ दिन बस गुज़र जाएं... बिना महसूस हुए.. खत्म हो जाएं...। ज़िदग़ी कितनी बड़ी है... कितनी लंबी... रोज़ सुबह होती है... रोज़ रात नींद के लिए करवटों के करतब.. मुझे अचानक अपनी दीवाल घड़ी से नफरत होती जा रही है..। उसका सेकेंड का काटा बहुत तेज़ चलता है... पर समय कहीं अटक जाता है..। मैं उसे बदल दूंगा... मैं दीवाल का रंग बदल दूंगा....मैं इस कमरे को बदल दूंगा.. मैं खुद को बदल दूंगा। बदल लूंगा वाली बात लिए मैंने कब लेपटाप खोल लिया मुझे पता ही नहीं चला...। एक मेल आया हुआ था...कोरिया जाने का न्यौता... एक महिने के लिए बतौर लेखक कोरिया के किसी गांव में...। मुझे अचानक अपना उपन्यास दिखने लगा..। मैंने अब तक कहानिया लिखी.. नाटक लिखे.. कविताएं.. पर उपन्यास कभी नहीं लिख पाया। त्रिभुवन भाई ने एक बार मुझसे कहा था कि उपन्यास लंबी यात्रा है... तुम्हारे भीतर अभी लंबी यात्रा का संयम नहीं है। मुझे उस वक़्त यह बात बहुत खटकी थी। उसके बाद मैंने लगभग हर कहानी उपन्यास के लिए शुरु की.. पर हर उपन्यास एक किस्से के बाद अपना दम तौड़ देता। बाद में मैंने त्रिभुवन भाई को कहा कि आप सही हैं... मुझमें संयम नहीं है उपन्यास का...। वह हंस पड़े उन्होंने कहा कि देखो कहानियां तुम्हारे जीवन में आ रही महिलाओं की तरह है.. एक तरह का अफेयर... पर उपन्यास शादी जैसा है... जिससे तुम हमेशा भागते रहे हो..। इस बात पर हम दोनों बहुत हंसे थे...। मैंने तुरंत उस मेल का जवाब दिया और उपन्यास की शुरुआत खोजने लगा। उसकी पृष्ठभूमी... कहां? किस स्थिति? किसके बारे में? अब वक़्त रुकता नहीं था। मेरा एक डच लेखक मित्र था क्लाऊस जो अपनी जेब में एक छोटी नोटबुक हमेशा रखता था... जब भी कोई अच्छा विचार आए उसे दर्ज कर लेता...। मैंने भी एक नोटबुक ख़रीद ली... कॉफी हाऊस की भीड़ में उस नोटबुक के कोरे पन्नों को निहारता... कुछ देर में दिनांक डालता... ऊपर उपन्यास लिखकर उसके नीचे कुछ लाईने ख़ीच देता.. फिर चित्र बनाने में मैं व्यस्त हो जाता। यह सब गलत है... मुझे लगा मैं जैसे ही कोरिया जाऊंगा... उपन्यास का आईडिया मेरे पहले वहां होगा..। मैंने नोटबुक को कॉफी हाऊस की डस्टबिन में त्याग दिया और अपने जाने की तैयारी करने लगा। एक बार उसे फोन करके बता दूं.. कि महिने भर के लिए कोरिया जा रहा हूँ? हम किस-किस तरह बदला लेना चाहते हैं? एक संबंध खत्म होने के बाद कितना ज़्यादा अंदर रह जाता है। क्या संबंधों को बचाया जा सकता है...? या कुछ सालों के बाद उसे वैसा का वैसा जिया जा सकता है? मैं अपने पुराने संबंधों पर कभी भी वापिस नहीं गया था। मेरे लिए जो खत्म हो गया वह अतीत का हिस्सा हो गया... यह कह देना भी एक फलसफे की तरह लगता है.. पर सच्चाई यह है कि मैं सैल्फ डिस्ट्रक्शन पर होता हूँ... जो चीज़ उस वक़्त मुझे सबसे ज़्यादा अपनी तरफ ख़ीच रही होती है मैं उसी चीज़ से बदला ले रहा होता हूँ... उसके विरुद्ध चलकर... इसलिए कोरिया बहुत ज़रुरी था। मैं अपने हिससे की पीड़ा चुनना कभी भूलता नहीं था.. पर यह संबंध मुझे वह भी नहीं दे पा रहा था, इसलिए मेरी इच्छा थी कि फोन करके बता दूं... कह दूं कि जा रहा हूँ..। वह शायद बात भी ना करे... गलियां दे दे... तो शायद मैं पीड़ा के कुछ हिस्से बटोरकर एक महिने के लिए निकल जाऊं। मैंने फोन नहीं किया। Toji… नाम की इस स्कालरशिप पर मैं कोरियन एयरपोर्ट पर था। घर छोड़ने के पहले मेरी पुरानी आदत पड़ चुकी है अपने घर से बात करने की... ताला लगाने के ठीक पहले... बिस्तर पर बैठकर... मैं हवा में अपने घर से (कमरे से...)... गुड बॉय कहता हूँ। जो हमें लगता है निर्जीव है.. वह कितनी ज़्यादा ज़िदा हैं हमारे भीतर... मैं कितना खुल के अपने कमरे से बात कर लेता हूँ..। तभी मुझे मेरा नाम चमकता हुआ दिखा.... एक आदमी मुझे लेने आया था। करीब चार घंटे का ड्राईव करके हम एक गांव में पहुंचे... वांजू। मैं लगभग पूरे सफर में सोता रहा। यह एक बहुत सुंदर गांव था... चारों तरफ गहरे हरे पहाड़.. खेत.. उनके बीच में यह तीन अलग-अलग बिल्डिंग बनी थी। बीच की बिल्डिंग ऑफिस था दूसरी दो बिल्डिंग में आर्टिस्ट रहते थे। एक महिला मिलि जिनकी अंग्रेज़ी बहुत खराब थी.. बड़ी मुश्किल से वह मुझे समझा पाई कि यह मेस है.. यहां नाश्ता आपको खुद बनाना है... लंच और डिनर का एक निश्चित समय है...। वहां सब कुछ कोरियन में लिखा था.... सो मैंने अनुमान लगा लिया... मैं लगभग हर बात पर ओके.. ओके कह रहा था। एक दूसरा आदमी मुझे मेरे कमरे की तरफ ले गया... सामान उठाने में किसी ने कोई सहायता नहीं की.. मैं खुद ही अपने साथ अपना बोझ घसीट रहा था। मेरे कमरे में घुसते ही आदमी ने मेरा हाथ पकड़ लिया.. वह आदमी मेरे जूतों की तरफ इशारा कर रहा था। मैंने तुरंत बाहर निकलकर जूते उतारे... आदमी ने एक चप्पल की तरफ इशारा किया.... मैंने चप्प्ल पहनी और पीछे से दरवाज़ा उस आदमी के मुँह पर बंद कर दिया। अंदर आते ही मानों कुछ चिटक गया हो.. मैं झटके से बैठ गया.. जहां था वहीं। कई बार बहुत सालों की थकान एक क्षण में महसूस होने लगती है। उस एक क्षण में सब कुछ भारी लगता है। आठ साल पहले लिखी मेरी पहली कहानी... पता नहीं किस क्षण में कैसे भीतर कहीं पड़ी बातें पन्ने पर तैरने लगी थीं। उसके बाद असल में मैंने कुछ नहीं किया... सिवाए अपना लेखक होना बार-बार सिद्ध करने के। लंबी यात्रा के पहले क्षण में ही मैं थक गया था.. उपन्यास। कमरा बहुत सुंदर था। बाल्कनी जंगल की तरफ खुलती थी। एक छोटी खिड़की थी जिससे सामने की सड़क दिखती थी। पलंग उसके ठीक बगल में लगा हुआ था। छोटा फ्रिज, चाय बनाने का इलेक्ट्रिक केटल, बड़ा सा टेबल, कुर्सी, टेबल लेंप... और एक एशट्रे। मैंने अपनी कुछ किताबें निकालकर टेबल पर जमाई... फिर सिगरेट के कार्टन.. अलमारी में अपने कपड़ों को सलीके से रखा। इस सारी कारवाही में मैं एक घंटे व्यस्त रहा। अब व्यस्त होने के लिए कुछ बचा नहीं था सो मैं अंत में अपने लेपटाप के सामने बैठा गया। उपन्यास की शुरुआत... पहले नाम.. नाम.. नाम... नाम...। नाम बाद में.. पहले कुछ लिखना शुरु करता हूँ.. यह सोचकर मैंने एक नया वर्ड डाक्युमेंट खोला...। हड़बड़ाकर उठा तो देखा मैं एक खाली से कमरे में था... मैं अपने घर पर नहीं हूँ.. मैं कब सो गया था मुझे पता ही नहीं चला...। मैं एक सुंदर कमरे में हूँ... वानजू नाम के एक गांव में। अचानक सारा जिया हुआ अपनी व्यवस्था में वापिस आ गया। मेरे सोने से फाईलों में अव्यवस्था फैल गई थी... सारी पुरानी फाईलों में मैं कुछ तलाश रहा था... कहीं पीछे अतीत में कोई टुकड़ा गुम गया था। एक कड़ी.. एक कड़ी जिससे हर चीज़ अपने मायने पा जाए.. मेरा जीवन कुछ मायने पा जाए..। टेबल पर घड़ी रखी हुई थी। रेंगते हुए समय देखा.. शाम के छे बजने वाले थे। बालकनी का दरवाज़ा खोला तो सामने पहाड़ दिखाई दिये... गहरे हरे रंग से पुते हुए। किसी ने दरवाज़ा खटखटाया... यह वही आदमी था जिसके मुँह पर मैंने दरवाज़ा लगा दिया था। उसने खाने का इशारा किया... मैंने उससे कहा कि आता हूँ। मेरे अलावा यहाँ सभी कोरियन हैं... किसी को भी कोरियन के अलावा कोई भी भाषा नहीं आती है... या शायद आती हो पर कोई मुझसे बात करने में दिलचस्पी ना रखता हो। मैं जल्दी-जल्दी तैयार होकर खाने के लिए मेस में निकल पड़ा....। सिर्फ आँखे और मूक अभिवादन पहचान के थे..। सभी लोग मुझे इस आश्चर्य से देखते कि मुझे लगता कि मेरे सिर पर सींघ हैं... या मेरे चार हाथ हैं। कुछ ही देर में हम सब अपनी-अपनी थालीयों में सिर घुसाए खाते रहे..। खाने के बाद मैं टहलने के लिए गांव की तरफ निकल आया... बहुत साफ सुथरा गांव है... बहुत कम लोग दिखाई देते है...। घर हैं लेकिन घर के बाहर कोई चहलकदमी नहीं दिखती.. लॉन ख़ाली... घरों के भीतर झांको तो कुछ परछाईयों से लोग टहले दिख जाते हैं.. पर लगभग सभी बूढ़े..। चारों तरफ खेती है... और उन खेतों को गहरे हरे रंग के पहाड़ों ने चारों तरफ से घेर रखा है..। एक बूढ़ा आदमी खेतों में काम करता दिखा...मैंने अभिवादन मे सिर झुकाया तो वह शर्मा गया। किसी अजनबी देश के अजनबी गांव में आपको लोगों की आँखें अजीब सी लगती हैं.. लगता है वह लोग एक खूबसूरत संसार में हैं.... जिसकी प्रदर्शनी किसी आर्ट गैलरी में लगी है.. और मैं किसी गंदे पर्यटक की तरह उन्हें निहार रहा हूँ, उनकी तस्वीरें लेना चाहता हूँ... जिसे वह बिलकुल भी पसंद नहीं करते। कुछ ही देर में मैं वीराने मे पहुच गया.. घर खत्म हो गए थे... यह वीराना मेरे भीतर के खालीपन से मेल खा रहा था.. सो मैं आराम से सांस लेने लगा। इस पूरे इलाके में अजीब सी चुप्पी है.. हर कुछ देर में कोई गाड़ी सड़क पर से गुज़र जाती है तो उस चुप्पी का एहसाह होता है जो स्थिर है... जो चारों तरफ फैली हुई है। मैं एक पत्थर पर बैठ गया... इस गहरी चुप्पी में कुछ बुदबुदाने लगा... फिर मुझे याद आया मैं असल में बहुत समय से चुप हूँ... मैंने अभिवादन और धन्यवाद जैसे शब्दों के अलावा कुछ भी नहीं बोला है..। मैं खुद से बातें करने लगा कुछ ऎसे जैसे खुद से नहीं किसी दूसरे से बोल रहा हूँ। फिर अपनी ही बातों से चिढ़ होने लगी... खुद से मैं कितने झूठे सुर में बोलता हूँ.. इससे तो चुप्पी ही बहतर है..। मैंने सिगरेट जलाई और कुछ आगे की ओर चल दिया...। तभी सामने से आती हुई एक वृद्ध महिला दिखी... मैं उन्हें पहचान गया.. मेस में इन्हें लगातार देखता आया हूँ और यह हमेशा एक अजीब सी चौड़ी टोपी लगाए रहती हैं..। वह मेरी तरफ ही चली आ रही थी... मैं उन्हें देखकर मुस्कुरा दिया... पर भीतर एक डर था कि उनसे बात क्या होगी...? उन्होंने आते ही.. कोरियन भाषा में बोलना चालू किया... मैं उनका दिल नहीं तोड़ना चाहता था सो कुछ यूं सिर हिलाता गया कि मुझे कुछ-कुछ बातें समझ में आ रही हैं..। सब लोगों के सामने वह अभिवादन करने में भी झेंप रही थीं.. पर अकेले में वह लगातार बोले जा रही थीं...। फिर बीच में वह बोलते-बोलते हंसने लगी..। मेरे लिए सब कुछ संगीत था सो मैं बस सुरों के उतार चढ़ाव समझ रहा था। हंसने के बाद वह कुछ देर चुप रहीं... इधर-उधर देखने लगी.. फिर एक छोटे से घर की तरफ इशारा किया.. और कुछ धीमी आवाज़ में बोलने लगी...। जब वह मेरी तरफ मुड़ी तो उनकी आँखें भीगी हुई थी...। मैं यह सुर पहचानता था... असल में हम सारे सुर पहचानते हैं...। शब्द झूठ को सहारा देते हैं.. सच सुरों में सुना जा सकता है। उनमें एक पवित्रता थी.. एक बच्चों सा भोलापन... जिसे देखकर मुझे खुद से घृणा सी होने लगी.... मैंने अपनी आखें नीचे कल ली...। उनके सुर टूट गए.. वह अचानक नीचे सुर में गाते-गाते रुक गई.... मुझे पता था कि उन्होंने पूरा राग नहीं गाया है... मेरी आँखे नीचे कर लेने में वह टूट गया बीच में कहीं। उन्होंने कुछ कदम मेरी तरफ बढ़ाए... मेरे कंधों को छुआ... सहलाया। मेरे भीतर एक चोर था... एक झूठ से भरा हुआ थेला लिए चोर... जो मेरे सारे जीने को, उनके अनुभवों को अपने झूठ के थेले में भर लेता है। जब भी मैं अपने अनुभवों, अपने जीए हुए के बारे में कुछ कहता, लिखता... सब कुछ झूठा दिखता..। वह मेरे कंधे को सहलाती हुई कितनी पवित्र थीं... मैं उनका सामना नहीं कर सकता था। मुझे पता था जैसे ही मैं उनकी तरफ देखूंगा, वह मेरे भीतर का चोर उनकी सारी पवित्रता को झूठ में बदल देगा...। फिर मुझे लगने लगा कि पहली बार मुझे किसीने पकड़ा है.... असल में पहली बार मैंने खुद को पकड़ा है... अपने समूचे झूठ को, अपनी पूरी कायरता में...। उन्होंने मेरे बालों पर हाथ फेरा और दूसरी ओर चल दी... मैं जड़ था। भाषा कितना छोटा कर के रख देती है हर स्वाद को...। मैं अपनी इस बात को भी लिखने में असमर्थ हूँ.... भाषा घुसते ही नमक हो जाती है और हमको सब कुछ ठीक लगने लगता है... स्वादिष्ट। मैं जड़ था.. और इसमें कोई स्वाद नहीं था... मैं कुछ भी देखना सुनना नहीं चाहता था...। मैं अभी भी उनका स्पर्ष अपने कंधे पर महसूस कर सकता था। मैं बार-बार अपने कंधे को छु रहा था... उनके बूढ़े कोमल हाथ... मैं उन्हें चूम लेना चाहता था... उन हाथों में अपना अनकहा पढना चाहता था। मैं अकेला वहीं खड़ा था। रात हो चुकी थी... सब कुछ चुप था.. सिवाए रात की आवाज़ों के। मैं अपने कमरे की तरफ मुड़ गया...। अपना लेपटाप खोलकर मैं बहुत देर कोरेपन को ताकता रहा....। मुझे वह सारे कमरे याद आ गए जिनमें मैं रहा था... वह सारी दीवारें, जिनपर मेरे शरीर के निशान रह गए थे...। वह अकेली वीरान रातें जिन्हें मैं भूल चुका था। तभी दरवाज़े पर ’खट..’ हुई...। मैंने दरवाज़ा खोला वह सामने खड़ी थी... उनके हाथ में एक बीयर की केन थी... और दूसरे हाथ में एक चिप्स का पेकेट... उन्होंने मुझे दिया... और वह जाने लगी.. मानों वह अपने इस बर्ताव से बहुत शर्मिंदा हों....। मैंने उन्हें रोका.... और धन्यवाद कहा... वह घबराई हुई जाने लगी...। मैंने उन्हें अपना नाम बताया... उन्होंने जवाब में कहा.... ’खुश....’। यह उनका नाम था... ’खुश..’। बाहर घांस काटने की आवाज़ आ रही थी। एक चिड़िया तार पर बैठकर बहुत देर तक पूंछ हिला-हिलाकर किसी को बुला रही थी। दूर किसी के कपड़े धोने की आवाज़ थी। बीच-बीच में हवा का झोंका तेज़ी से आता और खिड़की के पर्दे उड़ जाते। मेरे बगल में पी हुई कॉफीयों के ख़ाली कप पड़े हुए थे, एक एशट्रे, लाईटर, कुछ आधी-अधूरी पढ़ी हुई किताबें... टेबिल लेंप.. और कुछ कोरे कागज़...। बहुत बुलाने पर भी उस पूंछ हिलाने वाली चिड़िया के पास कोई नहीं आया सो वह उड़ गई....मेरे खिड़की से बाहर देखने के एक मात्र कारण को लेकर...। मैं वापिस अपनी डेस्क पर आ गया। बहुत देर डेस्क की बिखरी हुई चीज़ों को देखा तो थकान से भर गया... फिर मेरी निग़ाह उस पेंटिंग पर गई जो मेरे कमरे में लगी हुई है। कोरे से केनवास पर एक आदमी (काली श्याही से आदमी का आकार) सिर झुकाए सात घांस के टुकड़ों को देख रहा है....और उसपर कुछ कोरियन भाषा में लिखा हुआ है। मैंने उस लिखे को एक कोरे पन्ने पर टाप लिया। बाहर निकला तो खुश मिली... उन्होंने मुझे अपने साथ चलने को कहा...। कुछ देर में उनके पीछे-पीछे मैं उनकी वर्कशाप में पहुंच चुका था। उन्होंने अपनी बहुत सी पेंटिंग दिखाई। मैं बहुत देर तक उनकी पेंटिग्स के सामने खड़ा रहा.. मेरे भीतर कुछ है जो टूटता नहीं है.. मुझे पेंटिंग्स समझ में नहीं आती.. कविताए अपने मतलब खो देती हैं.. संगीत चुप रहता है। मैंने कुछ झूठी तारीफ की... अपनी आँखें चुराते हुए.. उन्होंने एक बीयर मुझे पकड़ा दी। मैंने बीयर पीते हुए अपनी जेब सी पर्ची निकाली और उन कोरियन शब्दों का अर्थ पूछा...। उन्होंने बताया... I AM NATURE…. AS YOU ARE… मुझे यह बात बहुत सुंदर लगी..। पता नहीं क्या हुआ मैंने उन्हें कहा कि मुझे पेंटिग समझ में नहीं आती.. रंग ही दिखते हैं मुझे बस.. और रंग अच्छे हैं। मुझे अपने कमरे में लगी पेंटिग अच्छी लगने लगी.. बिना रंग वाली..। जब भी इस पेंटिंग पर निग़ाह जाती है मेरे भीतर कुछ सुलझ जाता है..। मुझे विश्वास करने की इच्छा होती है सब पर... अपने डरे हुए कोनों में दिया जलाकर टहलने की इच्छा होती है। उन जगहों की याद हो आती है जिन जगहों पर जाना मैंने सालों से टाल रखा था। फिर अपने खालीपन में एक घांस का तिनका गिरा पड़ा मिलता है... और तब एक बोझ महसूस होता है...। उस तिनके को अपने जीए हुए लेंडस्केप में फसाने की कोशिश करता हूँ...। वह अपनी अलग कहानी लेकर आया हुआ लगता है...। उसे छूने पर लगता है कि यह सुख है... पर इस सुख को कहां टिकाकर रखूं इसका कोना कहीं दिखता नहीं है। अभी रात है... देर रात अपनी बाल्कनी के कोने में खड़े रहने पर लगता है कि अंधकार कुछ खींच रहा है...। कहीं से कुछ रिसने लगता है.. मैं छूटता जाता हूँ... I AM NATURE.. AS YOU ARE…. वाली बात दिमाग़ में एक तिनके की तरह बैठी रहती है... वह सुख है.. पर उसे अपने भीतर टिकाकर रखने का कोना अभी भी खाली नहीं है। मैं बाहर सड़क पर था। ठंड़ी हवा मेरे चहरे को छू रही थी। मैं ऊपर की तरफ चलने लगा.. अपने कमरे से दूर.. जहां अभी भी खुला हुआ लेपटाप है.. उसके सामने कुर्सी है..। मैं कहां से शुरु करुं... कैसे...? मुझे लगने लगा कि मैं एक युद्ध के मैदान में आ पहुंचा हूँ.. अपने सारे अस्त्र-शस्त्र के साथ.. पर सामने कोई नहीं है... पूरा मैदान खाली पड़ा है। क्या यह मेरा जीवन नहीं है...? किससे लड़ रहा हूँ? कौन है जिसके लिए शब्द निकल रहे हैं..? या नहीं निकल रहे हैं। सामने से बड़ी सी टोपी लगाए हुए एक आदमी दौड़ता हुआ मेरी तरफ आ रहा था। वह जहां था वहीं रुक गया... कुछ देर में मेरी समझ में आया कि यह आदमी जागिंग कर रहा है..। मेरी आँखों में कुछ था.. शायद डर.. जिसकी वजह से वह कुछ धीमा हुआ। दौपहर को जब सूरज की परछाई जूता खा रही है... यह आदमी दौड़ रहा है.. मुझे आश्चर्य हुआ। वह मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। मैंने उसे अपना नाम बताया... उसने मुस्कुराते हुए यस.. यस कहा..। जैसे वह चाहता नहीं था कि मैं कुछ बोलूं... मैं चुप हो गया..। वह मुस्कुराते हुए मुझे देख रहा था जैसे हम किसी बच्चे को देखते हैं। उसकी आँखें... मैंने इतनी शांत आँखें बहुत कम देखी थीं..। वह वापिस दौड़ने लगे..। मैं उन्हें देखता रहा.. यह मुझे जानते हैं..। मैं इन्हें बहुत सालों से मिलना चाह रहा था... मुझे लगा कि यह मेरी किसी कहानी के पात्र हैं.. मानों मैं अपने ही लिखे हुए से अभी-अभी मिला हूँ। मेरा झूठ मेरे लिखे हुए पात्र जानते हैं या मैं..। किसी के साथ बिताया गया ख़ाली अल्साया वक़्त कभी भूलता नहीं है। एक दूसरे की चद्दरों को देर तक ख़ींचना... चाय के बहानों से बहुत दूर चले जाना... फिर वापिस आकर ऎसे मिलना जैसे बरसों बाद मिलें हों..। मेरा शिक़ायत करना... तुम्हारा नाराज़ होना... किचिन में देर तक खाना बनाना... बाथरुम के बाहर खड़े होअकर नहाना सुनना... और वह चलना रुकना.. देर तक आईने के सामने खड़े रहना... बार-बार एक ही गानों का लगना.. चाय... फिर चाय और बहुत सारी चाय। मैं अपने कमरे में वापिस था। लेपटाप पर गेम खेल-खेलकर मैं थक गया था। कुछ देर में मैं बाल्कनी पर आकर खड़ा हो गया। बाहर मौसम बदल गया था... धुंध थी... हल्की फुहार पड़ रही थी। बाल्कनी की मुडेर पर बैठकर मैंने सिगरेट जला ली। मेरी बाल्कनी से सटी हुई एक दूसरी बाल्कनी थी... जिसका दरवाज़ा हमेशा बंद रहता था। तभी मुझे नीचे झाड़ीयों से एक आहट सुनाई दी.. हिरन का एक छोटा सा बच्चा डरा हुआ झाड़ियों के पीछे कुछ चबा रहा है...। उसके ठीक पीछे उस बच्चे की माँ भी है। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा... बाल्कनी के नीचे हिरन..। मैं हंसने लगा.. अपना केमरा लाकर मैंने कुछ तस्वीरे ख़ींची... तभी इच्छा हुई कि किसी को यह बात बताऊं... किसे..? तभी बगल की बाल्कनी का दरवाज़ा खुला... एक लड़की.. छोटे बालों वाली.. बाहर निकली... मैंने अपने उत्साह में हिरन की तरफ इशारा किया...। वह हिरन को देखकर मुस्कुरा दी... बस..। मैं चिल्लाने सा लगा कि मेरी खुशी को बांटने के लिए कोई तो है.. पर उस लड़की ने बस यस.. यस कहा.. और वह भीतर चली गई। मुझे अचानक सब कुछ बहुत सामान्य लगने लगा। लगा कि कितना मूर्ख हूँ मैं.. इस उत्साह में मैं ठीक से हिरन भी नहीं देख पाया था। नीचे देखा हिरन भी गायब थे... भीतर कमरे में आकर अपने केमरे में क़ैद हिरन को देखने लगा..। शाम को खाने के बाद एक छोटी सी पार्टी का आयोजन किया गया। मेरे अलावा वहां करीब पंद्राह और लेखक.. कवि... म्युज़िक कंपोज़र.. पेंटर रह रहे थे। मैं अपने देश की सस्ती विस्की लेकर उस महफिल में पहुंचा... मेरे भीतर पहुचते ही मेरी कुछ आवभगत होने लगी। अगर उन लोगों के सुर को शब्द मिले तो मुझे वह बिचारा समझ रहे थे.. क्योंकि यहां उन लोगो के बीच मैं अकेला पड़ गया था... उन्हें ऎसा लग रहा था... पर मैं यूं भी अकेला ही हूँ.. अपने देश में भी.. सो मुझे बहुत फर्क नहीं पड़ता..। पर इन कोरियन लोगो को यह बात समझाने में बहुत समय लगता सो मैं बेचारा बना रहा। उन्होंने मुझे चावल की लोकल शराब पेश की गई... उसका स्वाद कुछ वाईन जैसा था। सभी ने धीरे-धीरे अपना परिचय कराया। मैं नाम याद रखने में यूं भी बहुत कमज़ोर हूँ पर उसमें से कुछ लोगो के नाम मैंने अपने दिमाग़ में दौहरा लिये... एक जो वृद्ध महिला मेरे कमरे के सामने रह रही थी उसका नाम janghae(जंगहे..) है.. वह म्युज़िक कंपोज़र है.., sook (painter) जिससे मैं पहले ही मिल चुका था... son young-hee वह लड़की थी जिसकी बालकनी मेरी बालकनी से लगी हुई थी... उसके बाद मेरे याद रखने की क्षमता खत्म हो गई सो मैं बस सतही अभिवादन में व्यस्त हो गया। फिर मेरी बारी आई...नाम के बाद मैं बहुत आत्मविश्वास से नहीं कह पाया कि मैं लेखक हूँ...। मैंने कुछ मज़ाक करते हुए कहा कि मैं शायद एक लेखक हूँ जिससे अब लिखते नहीं बनता है.... पर मेरा जोक कोई समझ नहीं पाया...। मुझे लगा मैं अपना परिचय दे चुका हूँ.. पर सभी कुछ और इंतज़ार करते रहे.... सो कुछ टूटे फूटे शब्दों में मैंने नाटक, कहानिया और कविताए भी लिख चुका हूँ कहकर बैठ गया। फिर वह लोग अपनी बातों में मश्गूल हो गए। हर कुछ देर में वह मेरी तरह मुख़ातिफ होते पर अंग्रज़ी की समस्या के करण वह चुप रह जाते। सन-यग-ही ने कुछ ज़्यादा पी ली थी.. सो उसके अंग्रज़ी के वाक़्य कुछ ठीक निकल रहे थे.. उसने बताया कि वह पहले भी यहां आ चुकी है.. तब उसने एक बच्चों का बेस्ट सेलर उपन्यास लिखा था। अभी वह अपना दूसरा उपन्यास लिखने आई है। मैंने बहुत मंद स्वर में कहा कि मैं भी यहां उपन्यास ही लिखने आया हूँ.. पर उस मंद स्वर की गूंज मेरे भीतर बहुत ज़ोर से हुई..। रुके थमे तलाब में किसी ने बूढ़े देवदार को गिरा दिया हो। तभी वह आदमी दिखा जिसे मैंने दौड़ते हुए देखा था.. वह लगातार मुझे देखे जा रहा था। मैंने सन-यग-ही से उसके बारे में पूछा...उसने बताया कि उनका नाम MOON-YOUNG HOON वह एक कवि हैं। करीब बीस सालों से पेरिस में रह रहे हैं... वह फ्रेंच और कोरियन दोनो भाषाऒं में कविताएं लिखते हैं। मैंने अपने दिमाग़ में उस आदमी का नाम कवि रख लिया। मैं सिगरेट पीने के बहाने बाहर आया..। बाहर ठंड बढ़ गई थी... मैंने कुछ कांपते हुए सिगरेट जलाई... भीतर से हंसी के ठाहाकों का स्वर यहां तक रेंगता हुआ चला आ रहा था। मैं कुछ आगे की तरफ चलने लगा...। सिगरेट खत्म हो चुकी थी पर भीतर से आती आवाज़ों के बाज़ार में मेरी घुसने की इच्छा नहीं हुई..। कोरियन वाईन का असर मेरी चाल में था... जब आवाज़े पीछे से खत्म हो गई तो मुझे अच्छा महसूस होने लगा..। यही वह समय है जब मेरी इच्छा भटकने की होने लगती हैं... लगता है कि गुम हो जाओ... बंधे-बंधाए रास्तों को रबर लेकर मिटा दो... और भटक जाओ..। मैं ऊपर आसमान की तरफ देखने लगा... कितने सारे सितारे हैं... यह वहां से भी दिखते हैं... मैं उन तीन सितारों को खोजने लगा जिसे मैं अपने घर की बाल्कनी में से देखा करता हूँ...। मुझे अचानक एहसास हुआ कि मेरे पीछे कोई है। मैं पल्टा तो पीछॆ कवि खड़े हुए थे..। इस बार मैं सीधा उनकी आँखों में देख रहा था। नशे ने एक अजीब तरीके का गुस्सा भीतर बढ़ा दिया था...। कवि ने आसमान की तरफ इशारा किया और कहा ’स्टार्स...(तारे)’। मेरी इच्छा हुई कि मैं चला जाऊं पर मैं वहीं खड़ा रहा...। फिर उन्होंने कहा... ’अलोन.. ’ यह कहते ही एक सांत्वना भरी मुस्कान उनकी आँखों में छलक आई..। मेरी इच्छा हुई कि उन्हें धक्का दे दूं... चिल्ला दूं उनके सामने... चीख़ पड़ू... मैंने कहा.. गुड नाईट.. और वहां से चल दिया। बहुत देर बाद अपने कमरे की खिड़की से झांककर देखा तो वह वहीं खड़े थे... तारों को देखते हुए। तभी दरवाज़े पर आहट हुई। सन-यग-ही बाहर खड़ी दिखी.. उसने पूछा ’आपके पास सिगरेट है क्या?’ मैं भीतर सिगरेट लेने आया तब तक वह अंदर कमरे में आ गई थी। मैं ने उसको सिगरेट दी... उसके हाथ में बियर थी...। मैंने उसे भीतर आने को कहा... जबकि वह पहले ही भीतर खड़ी थी सो वह बैठ गई। मैं बहुत असहज था... मैंने बाल्कनी का दरवाज़ा खोल दिया..। फ्रिज से एक बियर निकालकर उसे दी... और उसकी बीयर मैं पीने लगा... इस बात पर उसको हंसी आ गई। वह बहुत देर तक अपनी हंसी को शब्द नहीं दे पा रही थी। मैंने एक सिगरेट जलाई और बालकनी में आ गया.. सन-यग-ही भी पीछे-पीछे बाल्कनी में आ गई। बहुत विचित्र था... हम दोनों की भाषा अलग थी.. वह पता नहीं कौन थी और उसके लिए मैं पता नहीं किस विचित्र टापू का आदमी था... फिर भी मैं ठीक ऎसा कितनी बार महसूस कर चुका था.. मैं मानों अपना ही पुराना लिखा पढ़ रहा था। मुझे इस बात से बहुत... घुटन सी होने लगी... मेरा दिमाग़ इस बात को इटरप्रेट करने में व्यस्त हो गया। मैं लिख नहीं पा रहा हूँ उसका शायद कारण है कि मैं बिलकुल एक जैसा जी रहा हूँ। मैं ठीक ऎसा जी चुक हूँ.. यह सब हो चुका है मेरे साथ...। मैंने अचानक सन-यग-ही को अपनी तरफ खैंचा और उसे चूमने लगा। पागलों की तरह.. उसकी बीयर उसके हाथों से गिर गई। मैंने भी अपनी बीयर छोड़ दी...। कुछ देर में वह मुझे मना करने लगी.. मैं ज़बर्दस्ती करने लगा..। मैं उसके कपड़े उतारने वाला था कि उसने झटके से मूझे अलग कर दिया...। मैं सॉरी बोलना चाह रहा था पर मैंने नहीं कहा... क्यों कि मेरे सॉरी कहते ही मैं फिर वही जीने लगता जो जी चुका हूँ.. सो मैं चुपचाप खड़ा रहा..। वह कुछ देर में अपने कमरे में चली गई। मुझे शायद अपने से इतनी घृणा कभी नहीं हुई थी। मैं उल्टी करना चाह रहा था... पर मैं कर नहीं पाया..। मैंने फ्रिज से और बीयर निकाली... और अपने लेपटाप के सामने आकर बैठ गया.. मैंने पहला शब्द लिखा.. ’अलोन...’ फिर उस शब्द को बहुत देर तक घूरता रहा..। कवि ने यह शब्द कहा था... अलोन..। वह अभी ठीक इसी वक़्त उसे जी रहा था। दरवाज़े पर फिर आहट हुई...। मैं खोलने उठा पर लड़खड़ाकर गिर पड़ा... मैं बहुत नशे में था। दरवाज़े पर सन-यग-ही खड़ी थी..। नहा धोकर एकदम पवित्र... मैं कह भी नहीं पाया और वह अंदर आ गई। सीधे पलंग पर लेट गई और अपने कपड़े उतारकर एक चद्दर ओढ़ ली...। मैं इसके लिए तैयार नहीं था...। नशा बहुत था मैं ठीक से सोच नहीं पा रहा था... फिर वही बात मेरे दिमाग़ में उबकाई मारने लगी कि मुझे पता है इसके बाद क्या होगा... और मैं पलट गया। मेरा सिर भारी हो रहा था.. मैं वापिस जाकर अपने लिखे अलोन के सामने बैठ गया। मैंने लिखा... ’वह मेरे पलंग पर नंगी लेटी हुई थी... मैं किसी दूसरी लड़की से बदला लेने के घमंड में बिस्तर पर नहीं जा रहा था।... रात होते ही जैसे सारा दिन भर का जिया सिमटकर कमरे में जमा हो जाता है। रात होते ही घर के कोने बहुत भारी लगने लगते हैं..। दिन भर के जिए हुए के कुछ कोमल क्षण अपने होने पर संदेह में रहते हैं। वह आपस में सिमटकर एक छोटा सा जुगनू बना लेते हैं.. जुगनू की कहानी उसके अंधेरे में है जिसे वह अपने दो चमकने के बीच में जीता है... यह मैंने ही लिखा था कहीं... पर इस कमरे के भारीपन में जल्द ही जुगनू दम तोड़ देता है। मैं कल के इंतज़ार हूँ.. हमेशा से.. मैं उस लड़की के पास नहीं जाता हूँ जो अभी.. इसी वक़्त.. मेरे बिस्तर पर मेरा इंतज़ार कर रही है.. मैं शायद कल उसका इंतज़ार करुं... कल...मैं आँखें बंद कर बैठा रहता हूँ... कितना विचित्र है यह.. कितना हास्यासपद.. कितना।’ मेरे लिखने का एक सिलसिला शुरु हो गया...। अब सच क्या था?, क्या हुआ था...? पलंग पर कौन लेटा था? सब पीछे छूटने लगा.. मैं कहीं दूसरी ही जगह पहुंच गया था। मेरा नशा उतरने लगा... मेरी कमर सीधी होने लगी... तभी बहुत तेज़ इच्छ हुई सिगरेट पीने की.... मैंने बाल्कनी का दरवाज़ा खोला और सिगरेट पीते हुए अपने लिखे के तार जोड़ने लगा। मुझे समय का पता नहीं चला.. कुछ समय में दरवाज़ा बंद होने की आवाज़ आई। वह अपने कमरे में वापिस जा चुकी थी। फिर मैं नहीं लिख पाया.... एक शब्द भी नहीं...। क्या यह सच में हुआ था.. जो भी अभी तक मैंने लिखा है? यह मेरे भीतर की एक अव्यवस्थित दुनियां है जिसमें ख़ाली पग्डंडियां अनंत में कहीं खुलती है... जिनमें मैं भटक रहा हूँ। शायद सन-यग-ही का नाम बस मैं जानता हूँ... शायद उससे कभी मेरी बात भी नहीं हुई... शायद मैं यह नहीं लिख रहा हूँ। मैं ’अलोन’ शब्द के लिखते ही कमरा छोड़कर चला गया था...। मेरा इस लिखे से कोई संबंध नहीं है। सुबह बहुत बोझ लिए हुए हुई। देर तक आईने में खुद को देखता रहा। सोते उठते हुए कई बार मैंने अपना रात का लिखा पढ़ा। बहुत दिनों तक मैं सन-यग-ही को देख नहीं पाया.. कई बार मैंने अपनी बाल्कनी से उसे आवाज़ लगाई पर उसकी बाल्कनी का दरवाज़ा बंद ही रहा। इस बीच मेरी जंगहे से दोस्ती बढ़ गई थी... जो मेरे ठीक सामने रहती थीं। उन्हें वॉक करने और पहाड़ चढ़ने का बड़ा शोक़ था... मैं उन्हें एक सही साथी मिल गया था। Janghae 48 साल की थीं पर उतनी उम्र की लगती नहीं थी... वह Switzerland में रहती हैं पिछले बीस सालों से... अकेले। मेरी उनसे दोस्ती बहुत जल्द हो गई थी..। उन्हें अंग्रेज़ी बोलना आता था यह बात उन्होंने अब तक मुझसे छुपाकर रखी थी... क्योंकि वह नहीं चाहती थीं कि वह मेरे और बाक़ी कोरियन आर्टिस्ट के बीच ट्रांसलेटर बन जांए..। मैं उनकी तक़लीफ समझ सकता था सो मैंने कभी उन्हें ट्रांस्लेटर नहीं बनने दिया। इस बीच मुझसे एक ग़लती हो गई... एक दिन जब हम घूमने गए थे.. मैंने मस्ती में उनसे कह दिया कि मैं हाथ पढ़ सकता हूँ...मुझे नहीं पता था कि कोरिया में fortune telling एक बिज़नस है... लोगों का गहरा विश्वास है उसपर...। मेरा मज़ाक मुझपर ही भारी पड़ गया... janghae ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और बहुत संजीदगी से मुझे देखने लगी। मुझे कुछ भी नहीं आता था.. पर मैंने अपने दोस्तो को बहुत ही संजीदगी से यह सब करते हुए देखा था सो मैं उन्हें कुछ सतही चीज़े बताने लगा... पर मेरी हर बात को वह कुछ इस तरह भीतर जज़्ब कर रहीं थी मानों वह पूर्ण सत्य हो...। सो मुझे लगा कि कुछ अच्छी बात कर लेनी चाहिए... मैंने उन्हें बताया कि आपकी luck line बहुत बढ़िया है.... आप बहुत lucky हैं.. वह चुप रहीं... मैंने कहा कि आपका जल्दी विश्वास नहीं करती लोगों पर... ऎसा उनसे बात करते हुए मैंने महसूस किया था। मैंने कहा आपके पास जल्दी ही बहुत काम आने वाला है.... क्योंकि वह इस बात को लेकर बहुत परेशान थी कि उनके पास आजकल कोई काम नहीं है...। वह मेरी एक बात पर बहुत मायूस हो गईं कि उनकी luck line बहुत अच्छी है.. वह कहने लगी कि ’मैं बिल्कुल भी lucky नहीं हूँ... मैंने बहुत संघर्ष किया है.. अब इस उम्र में मैं अकेली हूँ.. कोई आगे-पीछे नहीं है.. अपना कोई घर भी नहीं.... बहुत ज़्यादा महत करती हूँ तो एक कमिश्न मिल जाता है संगीत बनाने का.... हर महीने अपना किराया देने के लिए उठा-पटक करनी पड़ती है....” मैं स्तब्ध रह गया। मैंने उनसे कहा कि मैं एक fraud palm reader हूँ... पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी... मेरे कहे हर वाक़्य को मैं उनके चहरे पर देख सकता था। उन्होंने कहा कि ’एक अर्टिस्ट का retirement कितना दुखद होता है... वह retire होना चाहे तो कहाँ जाए????’ मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था..। मैंने शायद पहली बार अपने मज़ाक का इतना बड़ा असर देखा था। वह अचानक मुझे बहुत बूढ़ी दिखने लगीं। हम दोनॊं एक रेस्टोरेंट में बैठे हुए थे। मैंने कहा कि ’लेट मी ट्री यु टुडे..’। यह उन्हें सांत्वना सी लगी...। मैंने उनके मन पसंदिदा नूडल्स मंगाए.. हमने कोरियन वाईन पी... मुझे लगा हम बात-चीत में सब कुछ भूल गए हैं। पर वह बार-बार अपना हाथ देखती रही। अंत में हम दोनों ने अपने-अपने खाने का पैसा दिया। बस में बैठे हुए वह खिड़की के बाहर कुछ तलाश रही थीं... एकदम चुप... मुझे मेरा शब्द फिर याद हो आया...’अलोन..’। मेरा अकेलापन इनके अकेलेपन के सामने छिछला था। मेरे सामने अभी भी दरवाज़े खुले हुए थे... मैं अभी भी बहुत से निर्णय ले सकता था... पर जंगहे... मैं उनकी असहयता बस समझ सकता था। मैंने अपने बेग से निकालकर एक चॉक्लेट उन्हें दी... उन्होंने मना कर दिया.. तब मैंने देखा वह रो रहीं थी। रोते हुए उन्होंने मुझे कई बार सॉरी कहा... जबकि मैं उनसे माफी मांगना चाहता था। जंगहे बहुत व्यस्त हो गई थीं... उन्होंने बताया कि.. ’हमारे वापिस आने के बाद मैंने संगीत की दो कंपोजिशन लिखीं ... ऎसा मेरे साथ पहले कभी नहीं हुआ है... शायद तुम सही कह रहे थे... मुझे जल्द ही कोई बड़ा काम मिलने वाला है।’ उन्होंने अपना हाथ मेरे सामने बढ़ाया और कहा luck line….। मैं खुश हो गया... कि वह खुश थीं...। इस बीच मैं वापिस अपनी उपन्यास रुपी कहानी पर आया... जंगहे भी उस उपन्यास में आ गई... पर यह मेरी उपन्यास में अभी भी रो रहीं थी... मेरी इच्छा नहीं हुई कि वह खुश हों... मुझे शायद कहीं पता था कि यह खुशी क्षणिक है। रोज़ खाने की मेज़ पर कवि से मुलाकात हो जाती। उनको लेकर धीरे-धीरे मेरे भीतर आत्मीयता जाग उठी थी। वह हमेशा कोने वाली कुर्सी पर बैठते... अगर मैं पहले पहुंच जाता और कोई दूसरा उस कुर्सी पर आकर बैठता तो मैं उसे उठा देता.. कहता कि यह कवि की कुर्सी है। एक शाम डिनर के बाद उन्होंने मुझे अपने कमरे में कॉफी का न्यौता दिया। मैं उनके साथ हो लिया... वह बहुत उत्सुकता से मुझे अपने कमरे की तरफ ले गए। उन्होंने अपने कमरे का दरवाज़ा खोआ और मुझे बाहर ही इंतज़ार करने को कहा... फिर वह दरवाज़ा बंद करके भीतर चले गए। मैं बाहर खड़ा रहा। मुझे लगा भीतर कोई है जिसे वह मेरे आने के पहले छुपाना चाहते हैं...। मुझे यह सोचने में इतनी गुदगुदी महसूस हो रही थी कि एक बूढ़ा आदमी जो अकेला रहता है भीतर इस वक़्त क्या कर रहा होगा...। मैं सिगरेट जलाने ही वाला था कि उन्होंने दरवाज़ा खोल दिया... मैं अपने जूते उतारकर भीतर गया। बहुत अच्छी खुशबू आ रही थी। कोने में एक लेंप जल रहा था जिसकी पीली रोशनी पूरे कमरे में थी... एक दीवार पर सूखी लकड़ियों का जंगल था जो वह अपनी वॉक पर बटोरते चलते होंगे शायद। एक कोने में बच्चों की सी स्कूल डेस्क पड़ी थी जिसपर बैठकर वह लिखते होंगे..। मेरे भीतर पहुंचते ही उन्होंने संगीत लगा दिया। आपने ही कमरों में जिसमें हम बहुत सहजता से रहते हैं किसी अजबी के आते ही वही कमरा हमे सबसे असहज कर देता है... लगता है कि हम नंगे हो गए हैं.. वह हमारी व्यक्तिगत चीज़ो को देखकर मुझे जज कर रहा है। वह असहज थे.. मैंने उनके कमरे की तारीफ की... वह कॉफी ग्राईड करने में व्यस्त हो गए। मेरी निगाह पीछे रखी किताबों पर गई... फ्रेच और कोरियन किताबें भरी हुई थीं। कॉफी बनाते हुए वह अपनी टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में कहने लगे.. ’बहुत पहले मेरे पास एक रेनकोट हुआ करता था... मुझॆ बताया गया था कि मौसम जीवन के जैसा है... सो कभी भी बारिश हो सकती है। अगर बारिश हो गई और तुम्हारे पास ठीक उस वक़्त रेनकोट नहीं हुआ तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी। मैं मौसम के बदलने से बहुत डरने लगा... जब भी बिजली कड़ती.. बादल गरजते.. मैं खुद को अपने रेनकोट में सुरक्षित महसूस करता... पर असल में बारिश कभी हुई नहीं। एक दिन किसी व्यस्तता में मैं रेनकोट ले जाना भूल गया और उस दिन अचानक बिना बादल गरजे... बारिश होने लगी। मैं अपने घर की तरफ भागने लगा अपना रेनकोट उठाने... पर भागते-भागते मैं पूरा गीला हो चुका था... मैं रोने लगा.. फिर फिसल कर गिर पड़ा... जब उठा तो सामने से आती गाड़ी ने मेरे ऊपर कीचड़ उछाल दिया...। मैंने समर्पण कर दिया... मुझे लगा बस अब सब गड़बड़ हो गई... सब खत्म...। मैं वहां पड़े-पड़े भीगता रहा...। उस दिन मैंने मेरे शरीर से सब कुछ बहते हुए देखा था और मैंने अपनी पहली कविता बारिश पर लिखी थी। आज भी मैं अपना रेनकोट हर जगह साथ लेकर घूमता हूँ पर कभी पहनता नहीं हूँ।’ ’पर आप अब रेनकोट क्यों साथ लिए घूमते हो?’ मैंने पूछा.. ’हम बहुत जल्दी भूल जाते हैं... और मैं यह बात भूलना नहीं चाहता..। मेरा ब्लू रेनकोट हमेशा साथ रहता है।’ पता नहीं क्यों मुझे ऎसा लगा कि मैंने इन्हें भीगते हुए देखा है। उस वक़्त उस सड़क पर मैं भी खड़ा था। मैंने इनके ऊपर कीचड़ उडते हुए देखी है। उन्होंने मुझे कॉफी दी..। मैंने उनसे पूछा... ’डू यू नो मी?’ उन्होंने बहुत सहजता से मना कर दिया। हम दोनों अपनी-अपनी कॉफी पर शांत बैठे थे। वह अपनी डेस्क पर चले गए। और उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं उन्हें अपनी कुछ कविताएं सुना सकता हूँ। मैंने उनसे कहा कि मुझे फ्रेंच या कोरियन भाषा नहीं आती है... पर उन्होंने कोई बात नहीं कहकर अपनी कविताएं पढ़ना शुरु कर दी। हर कविता पूरी होने के बाद वह कुछ देर का वक्फा बीतने देते और दूसरी कविता शुरुकर देते..। मैं हर बार उनसे कहता कि मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है... पर वह बिना रुके बढ़ते जा रहे थे... मुझे हंसी आने लगी... मैं पहले अपनी हंसी दबाता रहा फिर ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगा...। उन्हें भी हंसी आने लगी... वह अब हंसते हुए कविताएं पढ़ने लगे। मैं हंसना नहीं चाहता था... मैं उन्हें रोकना चाहता था...। अंत में मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उनकी किताब उनके हाथ से छीनी और बंद कर दी... और उनसे कहा कि मैं जाना चाहता हूँ। उन्होंने ठीक है कहा और खड़े हो गए। मुझे बड़े बेईज़्ज़ती सी महसूस हुई। मैं अपनी कॉफी बिना खत्म किए उठ गया। वह दरवाज़े पर खड़े होकर मेरे जूते पहनने का इंतज़ार करने लगे...। जूते पहनते ही मैं खड़ा हो गया... वह मुस्कुरा रहे थे... बिलकुल वैसे ही जैसे कि वह मुझे जानते हो... मुझे लगा कि मैं उन्हें कुछ कह दूं कि वह थोड़ा बेईज़्ज़त महसूस करें। मैंने पूछा... ’आपने मुझे वह कविताएं क्यों सुनाई जो मेरी समझ में भी नहीं आ रही थीं?’ मैं बहुत गुस्से में था। ’तुम भी यही कर रहे हो।’ उन्होंने कहा..। मुझे लगा कि उन्होंने यह वाक़्य हिंदी में बोला है। या शायद यह वाक़्य इतनी बुरी तरह मेरे भीतर गिरा कि उसकी गूंज हिंदी की सी सुनाई दी। मैं हतप्रभ रह गया। उन्होंने दरवाज़ा बंद कर लिया। मुझे याद नहीं कि मै कितनी देर उनके दरवाज़े के बाहर खड़ा रहा। ’मैं भी यही कर रहा हूँ...’ फिर उनकी ब्लू रेनकोट वाली कहानी मेरे दिमाग़ में घूमने लगी। मैंने खुद को सड़क पर खड़ा पाया.... मैं बहुत देर से तारे देख रहा था। ठंड़ बहुत बढ़ गई थी। मैंने अपने कमरे की तरफ देखा... वहा अंधेरा था। मैं अंधेरे की तरफ मुड़ गया। यह दौपहरे कितनी देयनीय कर देती हैं कभी-कभी। यह इतनी बीच में होती हैं कि कुछ किया नहीं जा सकता... मैंने कुछ कॉफी पी ली... कई बार सोने की कोशिश की... लिखना कुंए में अपनी आवाज़ सुनने जैसा है... क्या किया जा सकता है इन दौपहरों का? फिर मैं उसके साथ बिताए दिन टोहने लगा। कोई भी संबंध का खत्म हो जाना इन्हीं दौपहरों में असहनीय हो जाता है। मैं खत्म कर चुका हूँ सब कुछ फिर भी यह तकलीफ शारिरिक रुप से असहनीय जो जाती है कभी-कभी। कहां होगी वह..? इस वक़्त किसके साथ होगी? क्या मेरे बारे में सोचती होगी? ऊफ!! यह दयनीयता...। मैं दौपहर में जंगहे के पास चला गया...। वह काम कर रही थी... उसने कहा शाम को मिलते हैं। मेरी इच्छा हुई कि सन-यग-ही से मिलूं... मैंने हिम्मत करके उसका दरवाज़ा खटखटाया.... वह सो रही थी... उसके बाल अस्त-व्यस्त थे..। पर उसने एक मिनिट कहा और दरवाज़ा बंद कर लिया। कुछ देर में वह अपनी अस्त-व्यस्तता खत्म करके मेरे सामने खड़ी थी। इच्छा हुई कि उसे सब कुछ कह दूं... सारा मवाद.. सारे घिनौने सत्य... सब कुछ... मैंने कहा कि चलो कहीं घूमने चलते हैं... मैं बोर हो रहा हूँ। उसने मेरे संवाद की दयनीयता सूंघ ली वह मेरे साथ हो ली। हम बस पकड़कर युनिवर्सिटी की तरफ चले गए..। वहां एक तलाब था। तलाब के बगल से एक छोटा रास्ता जंगल की तरफ जाता था.. हम वहां निकल गए। मैं जगह तलाशने लगा अपने संवाद कहने की.. मैं अपने भीतर से सब कुछ निकाल देना चाहता था। मैं रोना चाहता था। तभी उसे एक फूल दिखा.. सफेद पंखड़ियों वाला छोटा फूल जो बीच में पीला रंग दबाए होता था। सन-यग-ही ने कहा कि बचपन में वह इस फूल को अंडे का फूल कहती थी... यह उसे बिल्कुल अंडे जैसा लगता है। मुझे अचानक वह बच्ची सी दिखने लगी...। मैं तलाब किनारे एक पेड़ से टिक्कर खड़ा हो गया... वह अंडे के फूल से खेलती रही। मुझे कवि की याद हो आई... उनकी ब्लू रेनकोट वाली बात... उनकी कविताएं... एक टुकड़ा सुलझ गया..। मैं इसे कह नहीं सकता... पर मुझे लगा कि कुछ ठीक हो गया। सन-यग-ही का फूल से खेलना... ब्लू रेनकोट.. फ्रेंच और कोरियन कविताएं... कुछ मेरे भीतर सुलझ गया.. तिड़क गया। मैं जहां था वहीं बैठ गया। सन-यग-ही मेरे बगल में आकर बैठ गई..। यही वह जगह थी जिसे मैं ढूंढ रहा था जहां मुझे अपने भीतर का सब कुछ कह देना था.. पर भीतर कहीं कुछ बचा नहीं था। सब सरल हो गया था। सन-यग-ही के हाथ में फूल था और मुझे सच में वह छोटा सा अंडा दिखने लगा था। मैंने सन-यग-ही से सॉरी कहा...। वह मुझे इस तरह देखने लगी मानों वह खुद को देख रही हो... वह मेरे बहुत करीब आ गई....। पहले उसकी सांस जो मैं अपने होठों के आसपास महसूस कर सकता था... फिर उसके गर्म मुलायम होंठ मेरे होठों को छूने लगे...। मैं चूम रहा था उसे... बिल्कुल वैसे ही जैसे वह मुझे चूम रही थी। वह झटके से हट गई और वापिस चलने लगी। हमने आपस में पूरे रास्ते कोई बात नहीं की। मैं हल्का था.. उसके भीतर बहुत कुछ चल रहा था। मैंने उससे पूछा ’यू वांट टू ड्रिंक टुनाईट?’ उसने हामी में सिर हिला दिया। मैंने जंगहे के लिए भी उसकी पसंदीदा बीयर उठा ली। हम दोनों शाम को सीधे जंगहे के रुम पर गए और उसे बीयर दी... उसने आज बहुत काम किया था सो वह भी सलीब्रेट करने के मूड में थी। हम तीनों बरामदे में कुर्सी लगाकर बैठ गए। फिर वह हुआ जिसे मैं कमीनापन कहता हूँ... यह ठीक-ठीक झूठ भी नहीं है... यह किसी एक बहुत अंतरंग अनुभव को हास्यासपद बनाने का हुनर है। जो बतौर किस्सागो आपके भीतर बढ़ता रहता है। मैंने उन दोनों के बीच कवी का किस्सा छेड़ दिया। लगभग वैसा ही जो हुआ था... पर उसका एक छिछला... सतही... हास्यासपद... घटना क्रम... जिसमे मैं नायक था और वह महज़ जोकर। दोनों हंस-हंसकर दौहरे हो गए। मैं भी बीयर के नशे में उस पूरी घटना में अपने चालाक हिस्से जोड़ता जा रहा था। मैं कहां बदल जाता हूँ...? यह कौन था जो मेरे भीतर के अंतरंग अनुभव को एक किस्सा बनाए जा रहा था? फिर हम दोनों में से वह कौन है जो लिखता है, और वह कौन है जो कमरा छोड़कर चला जाता है??? कुछ ही देर में मैं उन दोनों के बीच एकदम अकेला हो गया। ’मैं नहाना चाहता हूँ...’ यह कहकर मैं अपने कमरे में गया.. फिर बाहर आने की इच्छा नहीं हुई। मैं कुछ देर में सच में नहाने लगा था। मैंने ठंडा पानी अपने शरीर पर डाला... कुछ सुन्न करने लिए। साफ कपड़े पहनकर मैं अपने लिखे के सामने बैठ गया। ईमांदार... कम से कम मैं यहां तो ईमांदार हो सकता हूँ। मैंने पहला वाक़्य लिखा... ’यह उपन्यास नहीं है.... यह एक छोटी कहानी है.. मैं उपन्यास नहीं लिख सकता... उपन्यास लिखने का ठहराव मेरे भीतर नहीं है। लंबी यात्रा का संयम मेरे पास नहीं है।’ मुझे अचानक लगा कि यह हार भी मेरी कहानी का अंग होना चाहिए.. मेरे पूरे कमीनेपन से लथ-पथ कहानी होनी चाहिए। यह काल्पनिक है... काल्पनिक ही होनी चाहिए.. क्योंकि यथार्थ बहुत उबाऊ है...। सो जो भी कहानी में हो रहा है.. वह हो सकता था की परिधी पर भाग रहा है... और जो हुआ है.. वह मूल है जिसका कहानी से बहुत ज़्यादा संबंध नहीं है। ’अलोन..’ मैंने फिर वह शब्द पढ़ा और कहानी लिखना शुरु किया। अब इस कहानी के मुख्य पात्र.. जंगहे, सन-यग-ही और कवी थे... और मैं इस कहानी में..... विदुषक हूँ। मैंने ’अलोन..’ शीर्षक को मिटाया और उसकी जगह कहानी का नाम रखा “ब्लू रेनकोट..”। मैं कितना कुछ देख सकता था इन तीनों में...। जंगहे के बारे में लिखते हुए मुझे बार-बार लगता रहा कि मैं अपनी माँ के बारे में लिख रहा हूँ...। एक दिन मैंने उनसे कहा कि ’मैं आपसे मिलने एक दिन Switzerland आऊंगा...’ उन्होंने कहा ’ठीक है आना.. सुंदर जगह है.. पर मैं तुमसे नहीं मिलूंगी..।’ मैं आश्चर्य से उन्हें देखता रहा.. उन्होंने भी बहुत देर मुझसे निग़ाह नहीं हटाई...। यह अजीब क्रूरता है... जो मैंने जंगहे में कई बार देखी थी... एक क्षण में वह मुझे इतना दूर कर देती थीं कि लगता नहीं था कि हमने इतना सारा वक़्त साथ बिताया है...। सन-यग-ही नाम लिखते ही मुझे सब सरल और शुद्ध लगने लगता। अपनी खिड़की से मैंने उसे कई बार जंगल में अकेले घूमते हुए देखा था... कई बार इच्छा हुई कि उसके साथ हो लूं... पर मैं नहीं गया। उसका अकेले घूमना, यह दृश्य इतना कुछ कह रहा होता था कि मैं उसे लिखे बिना नहीं रह सकता था। फिर ऎसी बहुत सी बातें थी जो मेरी लिखी हुई सन-यग-ही और जो असल सन-यग-ही है उससे मेल नहीं खाती थी.. जैसे उसका देर रात मेरे कमरे में चले आना... बहुत समय तक एक कोने में कुर्सी लगाकर बैठे रहना.. बिना बात किसी भी समय कह देना ’I hate you..’। मैं समझता था.. मैं बहुत सारी चीज़े नज़रंदाज़ कर देता था। मुझे पता था क्या असर हो रहा है उसपर... मुझे पता था बीच में अचानक उसका कुछ दिनों के लिये गायब हो जाना क्या था....। उसकी पीठ के कंपन्न से मैं उसके भीतर की उथल-पुथल समझ सकता था... पर मैं कायर था। मैं हमेशा से बचना जानता था। मुझे यह हुनर बहुत अच्छी तरह आता था...। मैं उससे कहना चाहता था कि... मुझे नहीं पता.. सच मेरे पास उसको कहने के लिए असल में कुछ नहीं था। मैं उसे पसंद करता था और वह इसे भोग रही थी। कवी ने सब सुलझा दिया था। यह सब फिर से गड़-मड़ होने वाला है मैं जानता था। पर अभी... फिल्हाल कवी ने धो पोछकर मुझॆ सुखा दिया है। मैंने उनको एक बार अपने कमरे पर आमंत्रित किया... वह बहुत देर तक मेरा आमंत्रण सुनते रहे फिर उन्होंने मना कर दिया। मुझे अच्छा लगा... उन्हें नहीं आना था और वह नहीं आ रहे हैं। पर उन्होंने इसका एक कारण बताया... कहने लगे कि ’मैं एक कविता लिख रहा हूँ... और उस कविता से मेरी लड़ाई चल रही है।’ मैं फिर फस गया...। ’तो उस लड़ाई का मेरे आमंत्रण से क्या संबंध है?’ मैंने पूछा.. ’मैं इस लड़ाई में हर उन जगहों पर जा रहा हूँ जिन जगहों का ज़िक्र मैंने अपनी कविता में किया है... जैसे नीचे का तालाब.. ऊपर जंगल में एक मंदिर.. पीछे मिर्ची के खेत..। जबकि कविता अकेली कमरे में पड़ी रहती है... उन्हीं चीज़ों का मुर्दा ज़िक्र लिए।’ ’इससे क्या होता है?’ मैंने शायद यह नहीं पूछा था... या यह मेरे चहरे पर उन्होंने पढ़ लिया था। ’फिर जब मैं उन जगहों से घूमकर वापिस अपनी कविता के पास आता हूँ तो वह मुझे स्वीकार कर लेती है। अभी जो कविता मैं लिख रहा हूँ वह ज़्यादा ज़िद्दी है।’ खाने के बाद मेस के कोने में पड़े कॉफी मेकर से हम दोनों ने कॉफी बनाई...। मुझे कवी की बातें सपनों के भीतर के संवाद जैसे लगती हैं। इनमें कोई सिरे नहीं होते... बस एक सघनता है जो बहुत ही सरल है। मैं उनके बगल में खड़े होकर कितना विचलित लगता हूँ... जबकि वह कितने स्थिर..। वह जाने लगे... मैंने उनसे कहा कि..’मैं आपका ब्लू रेनकोट देखना चाहता हूँ।’ उन्होंने चलते-चलते अपना हाथ हवा में हिला दिया... जिसका मतलब हर भाषा में ’ठीक है’ होता है...। देर रात मैं कवी के बारे में लिख रहा था... तभी मुझे रात में एक परछाई सामने की सड़क पर चलती हुई दिखी। जब ध्यान से देखा तो सन-यग-ही और कवी तलाब की तरफ जाते हुए दिखे। मैं बहुत देर तक सोचता रहा कि उनके पीछे हो लूं... पर बाहर इतनी ठंड थी कि हिम्मत नहीं हुई। सोचा सन-यग-ही से कवी के बारे में पूछूंगा कि वह उससे क्या बात करते होंगे? क्या उससे भी संवाद बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे वह मुझसे करते हैं? पर यह तो सीमा लांघना हुआ... अपने ही लिखे एक पात्र से, अपने ही लिखे दूसरे पात्र के बारे में पूछना... यह कितना छिछला काम है। नहीं मैं यह नहीं कर सकता...। वापसी का वक़्त निकट आ चुका था। मैं वापिस जाऊंगा फिर उसी जंगल में... जहां कभी-कभी सांस लेना भी दूभर लगता है.. पर वह नशा है.. बार-बार मैं सिगरेट जला लेता हूँ। मैं धीरे-धीरे अपने सामान को समेटने लगा हूँ... हर बार पीछे जंगल में जाता हूँ तो लगता है कि यह शायद आखरी मैं इन्हें देख रहा हूँ। मैं कभी भी सन-यग-ही जितना पवित्र संबंध पेड़ों, फूलों, जंगलों से नहीं बना सकता... मैं उनसे बात करते हुए भी एक नाटकीयता महसूस करता हूँ...। मैं उन पेड़ों को छू रहा था जिनके नीचे, इस बीच, मैंने अपने अकेलेपन भोगे हैं.... उनसे मैं संवाद कर पा रहा था.. मैं गुडबॉय कह रहा था। अजीब है कि मैं इन्हें शायद अपने पूरे जीवन में फिर कभी दौबारा नहीं देख पाऊंगा... भीतर तीव्र इच्छा हुई कि कह दूं कि मैं आऊंगा... इस सड़क पर एक बार फिर चलूंगा... एक बार फिर...। कमरे पर वापिस आ रहा था तो देखा कवी मेरा इंतज़ार कर रहे थे। मैं भागता हुआ अपने दरवाज़े तक पहुंचा.. बिना अभिवादन के मैंने दरवाज़ा खोल दिया... मेरी हड़बड़ाहट में वह शांति से भीतर घुसे..। कमरा अस्त-व्यस्त था। वह अपनी जगह ढ़ूढ़कर शांत बैठ गए। मैंने कॉफी पीयेंगें पूछा... उन्होंने कहा.. इसलिए तो आया हूँ। वह खुश थे... यह देखकर मैं भी सहज हो गया। कॉफी बनाने की व्यस्तता में मैंने देखा वह मेरा कमरा ठीक करने लगे..। मैंने उन्हें रोका नहीं... उनका मेरे ऊपर कुछ अधिकार था.. वह उस अधिकार से मेरा कमरा जमा रहे थे। मैं कॉफी तैयार करके उनके सामने आया... उन्होंने कहा कि वहां टेबल पर रख दो। कुछ देर में हम दोनों टेबल पर आमने सामने थे... कमरा की अस्त-व्यस्तता खत्म हो चुकी थी। उनकी निग़ाह मेरे लिखे पर पड़ी.. उन्होंने कभी हिंदी लिपी नहीं देखी थी.. वह आश्चर्य से उसे देखने लगे। फिर बच्चे के उत्साह से मुझसे आग्रह किय कि कुछ लिखो... मैंने उनका नाम लिखा.. उनके बारे में कुछ शब्द लिखे...। वह हंसने लगे बच्चों जैसे। अचानक आपके सामने वह क्षण आ जाता है जब आप महसूस करते हो कि मैं खुश हूँ। मैं खुश था.. और यह खुशी यहीं इसी कमरे की अस्त-व्यस्तता में कहीं बिखरी पड़ी थी...। सब कुछ आस-पास ही था। तभी उन्होंने अपने झोले से रेनकोट निकाला... ब्लू रेनकोट..। क्या मैं इसे छू सकता हूँ....? मैंने उनसे पूछा... उन्होंने वह मेरे हाथों में दे दिया..। मैंने हल्के से उसे घुमाकर देखा.. वह जगह-जगह से छन गया था... उसकी बाहों के छोर काले पड़ गए थे.. पर वह ज़िदा था। मुझे लगा उस कोट के भीतर कोई है... मैंने उसे समेट कर अपनी गोदी में रख लिया मानों वह एक छोटा बच्चा हो..। मुझे अचानक खिड़की दिखी.. खिड़की नहीं रोशनदान... सुबह का सूरज छनता हुआ मेरे घर की दीवर पर पड़ता था... फिर वह पेड़... नदी... गलियां... मेरे घर के पीछॆ मैंने खुद को चलते हुए देखा.. सपने देखते हुए... बड़बड़ाते हुए.. मुझे माँ दिखी... अपने सपनों को मुझे सोपती हुई... पिताजी नदी से एक डूबे हुए जहाज़ को बाहर निकाल रहे थे... मैं अपने घर को चारों तरफ से सूंघ रहा था। ’मैंने कविता पूरी कर ली...’ उन्होंने कहा... ’अरे वाह! क्या मैं सुन सकता हूँ?’ मैं बाहर आ गया... ’सुनाऊंगा अगली बार...’ हम दोनों को पता था कि अगली बार नहीं आने वाला है। अगली बार हम कभी भी एक दूसरे को नहीं मिलेंगें... अगली बार अंत है। ’तुमने क्या लिखा?’ ’मैं उपन्यास लिखना चाह रहा था... पर वह... नहीं हुआ.. और फिर..।’ ’लिखना नाखून है... उंग्लियां है... या किसी-किसी के लिए पूरी बांह है... बस...जीना पूरा शरीर है.. उसे मत भूलना।’ ’पर मुझे लगता है कि मैं जो जी रहा हूँ वह जी नहीं रहा उसे लिख रहा हूँ।’ ’अगर लिख रहे हो तो ऎसा लिखना कि बूढ़ा होने पर उसे पढ़कर आनंद मिले....’ ’आनंद.... मैं वापिस नहीं जाना चाहता... मुझे नहीं पता कि मैं क्या करुंगा वहां... मेरा कहीं कोई काम नहीं है.. मैं यहां छुपने आया था... मैं... जाना चाहता हूँ।’ मुझे लगा कि वह शायद मेरे कमरे की तरह मेरे भीतर के अस्त-व्यस्त आदमी को जमा देंगें...। मैं अपने भीतर का सारा बिखराव उनके सामने उड़ेल देना चाहता था। ’कॉफी बहुत अच्छी थी... अब मैं चलता हूँ मुझे वॉक पर जाना है...।’ मैं ब्लू रेनकोट उन्हें सोंपा.. और वह चल दिये। वह कवी थे.. और कविता जी रहे थे। मैं उनसे कितना कुछ कहना चाहता था..। मैं पूछना चाहता था उन खाली खिड़कियों के बारे में... खिड़कियां नहीं रोशनदान... उन लंबी घनी अकेली रातों के बारे में... उन अलिखित शामों के बारे में.. मैंने हिसाब सा कर रखा था.. एक हज़ार एक घनी क्रूर रातों का.... उसके एक-एक क्षण का..। उनके जाते ही मैं हल्का हो गया... मुझे कुछ भी बहुत बुरा नहीं लग रहा था.. बहुत अच्छा लगने के कारण मेरे पास ज़्यादा नहीं थे। मैंने सोचा काश कुछ लिख लिया होता... पर यह् सोच हमेशा मेरे साथ बहती रहती है। सुबह एक नई चिड़िया बाल्कनी की मुडेर पर बैठे चहक रही थी। मैंने अपनी अल्साई अंडाई में उसे देखा। मुझे सुबह की दूसरी बस की आवाज़ सुनाई दी... वह अभी-अभी आई थी। यह आख़री स्टाप है बस का.. वह बस आकर करीब बीस मिनिट खड़ी रहती है फिर चल देती है... एक लंबा हार्न बजाकर...। मैंने चाय चढ़ाई... और बाल्कनी में आकर खड़ा हो गया। बस स्टाप पर मुझे सन-यग-ही दिखी... अपने सूटकेस के साथ.. उसके बगल में जंगहे थी शायद... । मैंने ज़ोर से आवाज़ लगाई... उसने मुझॆ देखकर हवा में हाथ हिलाया... मैंने इशारे से पूछा कि कहां जा रही हो... उसने कोई जवाब नहीं दिया.. वह पलट गई। जंगहे ने मुझॆ इशारे से आने को कहा... पर सन-यग-ही ने जंगहे का हाथ रोक लिया...। मुझे ठीक नहीं लगा.. मैं तुरंत बस स्टाप की तरफ लपका..। मेरे वहां पहुंचते ही जंगहे हम दोनों को एक साथ करके खुद दूर जाकर खड़ी हो गई। मैंने देखा सन-यग-ही रोए जा रही है...। मैंने उससे पूछा... ’कहां जा रही हो? क्यों? मैं कल जा रहा हूँ.. तुम मुझे गुडबॉय नहीं करोगी?’ ’नहीं... बिल्कुल नहीं...।’ उसने जवाब दिया.. ’कहां जा रही हो?’ ’कुछ काम है।’ वह एक टक मुझे देखे जा रही थी। अचानक मुझे उसमें वह असहायता दिखी... जिससे छिपकर मैं यहां कोरिया में बैठा था। मैं समझ सकता था... मैं जानता था... पर मैं चुप था। तभी बस ने अपना आखरी लंबा हार्न बजा दिया। जंगहे मेरे पीछे प्रगट हो गई। उसने सन-यग-ही के कसकर गले लगे... और वह बिना मुझे देखे.. बस में चढ़ गई। जाती हुई बस से उसने एक बार मेरी तरफ देखा बस... एक बार.. आखरी बार..। मैं और जंगहे जब वापिस आपने कमरों में आ रहे थे तो उन्होंने कहा कि ’सन-यन-ही बहुत अच्छी लड़की है... भावुक.. तुम्हें समझना चाहिये था।’ मैंने इसका कोई जवाब नहीं दिया... मैं वापिस अपने कमरे में आकर बैठ गया। चाय का पानी कब का गर्म होकर ठंडा भी हो गया था। मैंने उसे फिर गर्म करने रख दिया...। हम खुद को बचाने के चक्कर में कभी कभी कितने कठोर हो जाते हैं... खुद पर। मैं वापिस जाने का डर भीतर लिए बैठा हूँ... फिर उसी दुनिया में जिसे मैं छोड़कर यहां छुपने आया था। मुझे लगा कि मैं हमेशा से एक भारी ब्लू रेनकोट जैसी कोई चीज़ लिये हर जगह पहुंच जाता हूँ.... जो हर उन चीज़ों से भरा होता है जिनसे मैं भागना चाहता हूँ...। सन-यग-ही भी चली गई पर क्या वह मेरे चले जाने को अपने साथ लेकर नहीं गई है जिससे कि असल में वह भागना चाहती थी। मेरे टूट चुके जिस संबंध की वजह से मैं यहां भाग आया.... मैं अपने साथ उसे भी ले आया था। हर चुप्पी में वह ख़िसकर कर मेरे करीब आकर बैठ जाता... और फिर मुझे उस पूरे संबंध की सारी गंदगी सहनी पड़ती..। हम क्यों भाग रहे हैं... किससे? कब तक? मेरी इच्छा हुई कि एक टेक्सी करके जाऊं और सन-यग-ही को बस में से उतारकर वापिस ले आऊं..। जैसे कि मैंने अपने जीवन में बहुत सी अहम चीज़े नहीं की हैं ठीक उसे तरह मैंने यह भी नहीं किया। मेरे जाने के वक़्त टेक्सी बाहर खड़ी थी... जंगहे मुझे बाहर तक छोड़ने आई। मैंने जंगहे को गले लगाकर कहा कि ’हे माय ब्यूटिफुल लकी फ्रेंड... हम फिर से जल्द मिलेंगें।’ इस बार उसने हां में सिर हिलाया... ’वुई आर गोइंग टु मीट सून..।’ मैं विदा ले चुका था..। मेरी इच्छा हुई कि मैं एक बार भागकर कवि के कमरे में जाऊं और उन्हें बॉय कह दूं...। इस बार मैंने इसे जाने नहीं दिया.... मैं टेक्सी रुकवा दी... भागर मैं सीढ़ीया चढ़ते हुई कवि के कमरे के सामने खड़ा हो गया... वहां ताला लगा था। मैंने अपना सिर उनके दरवाज़े पर पटक दिया...। वापिस जाकर अपनी टेक्सी में बैठ गया। टेक्सी एयरपोर्ट पर खड़ी हुई। मैंने उसे पैसे दिये... और सामने देखा सन-यग-ही खड़ी हुई है... वह मुझे देखकर मुस्कुरा रही थी। मैं अपनी खुशी को रोक नहीं पाया... मैं भागकर उसके गले लग गया। मेरे मुंह से सब कुछ हिंदी में निकल रहा था.. अंग्रेज़ी के शब्द कहीं गुम गए थे। वह हंसने लगी.. फिर हंसी-हंसी में वह भी कोरियन बोलने लगी..। मैं उससे कह रहा था कि कितनी पागह है वह.. कहां चली गई थी...। वह भी कोरियन में मुझसे कुछ कंप्लेन कर रही थी...। अंत में उसने मेरी छाती पर कुछ चांटे मारे और मेरे गले लग गई। हम दोनों चुप हो गए। टेक्सी वाले ने हार्न बजाया...। मैं भागकर वापिस गया.. अपना सामान लेने। हम दोनॊं एयर पोर्ट के एक रेस्टोरेंट में बैठे थे। उसने कहा कि मैं तुम्हारे साथ आखरी डिनर करना चाहती थी सो चली आई। कितना दुखद था यह वाक़्य... कितना छोटा था यह संबंध.. कितनी सरल थी वह। हमारे पास कहने के लिए कुछ नहीं था। क्या कह सकते थे? हम दोनों कितने अलग थे... एक दूसरे की कहानी तक नहीं पता थीं..। संबंध में सिर्फ भाव थे... हम एक दूसरे को जानते नहीं थे। कुछ देर में उसने मेरा हाथ पकड़ लिया... यह वह पहले कभी भी नहीं कर पाई थी.. ख़ास कर इस अधिकार से तो नहीं। कुछ देर में उसकी बस थी... मैं बाहर आया उसे छोड़ने..। अंत में हमने एक दूसरे को चूमा... बहुत देर तक... बिना किसी की भी परवाह किये...। बस वाला हार्न मारे जा रहा था.. पर हम एक दूसरे को छोड़ नहीं पा रहे थे... वह एक बार बस में चढ़ने लगी पर फिर वापिस आ गई... हम फिर चूमने लगे। अब मैंने उसे महसूस किया... उसे चखा.. उसे जीया.. मुझे लगा अब मैं उसे जानता हूँ... मुझे लगा मैं उसे बहुत पहले से जानता हूँ.. हम दोनों बहुत समय से साथ हैं...। हवाई जहाज़ आपनी उड़ान भर चुका था। कोरिया पीछे छूट रहा था... शहर की रोशनी छोटी होती जा रही थी। मैंने सोचा क्या यह बस यहीं तक था... बस? पता नहीं इस सबका कितना सारा कुछ मेरे ब्लू रेनकोट में भर चुका होगा.. जो पता नहीं कितने सालों तक मेरे साथ रहेगा। फिर मैं बहुत देर तक कवि के बारे में सोचता रहा... कवि से मैं सन-यग-ही पर पहुंच गया... फिर मुझे हंसती हुई जंगहे दिखाई दी...। मुझे लगा कि यह असल में कितनी पूरी कहानी है... ब्लू रेनकोट। फिर एक उपन्यास... अपनी कहानी कह गया..।

Wednesday, September 5, 2012

तीसरा आदमी...

शायद शब्द लिखना आसान हो... मैं लिख देता हूँ..। हिचकिचाहट भरी हुई है... कि उस शब्द के मानी मैं जानता हूँ क्या? ’रचना...’ लो लिख दिया। मैं रच सकता हूँ... अगर एक दृश्य की बात करुं तो..। मैं दृश्य रच सकता हूँ... जैसे प्रेम के दृश्य... मैं इस शब्द के बहुत लंबे संवाद भी लिख सकता हूँ। पर क्या मैंने जिये हैं वह संवाद... जीने में मैं क्या कह रहा होता हूँ? जैसे मेरे बहुत अज़ीज़ दोस्त से संवाद... मैं महसूस कुछ दूसरा कर रहा होता हूँ जबकि मुँह से कुछ दूसरा ही व्यक्ति बोल रहा होता है। मेरे दोस्त कुछ बिदक जाते हैं... फिर मैं उनका मनोरंजन करने के लिए तीसरा व्यक्ति बन जाता हूँ... जो ना पहले को जानता है ना ही दूसरे को... यह तीसरा व्यक्ति है जो परिस्थिति से पैदा होता है..। मैं इस तीसरे व्यक्ति को जानता हूँ...। इस तीसरे व्यक्ति ने मेरी परिस्थिति को भी पहचानकर खुद को मेरे अनुसार ढ़ाल लिया है... यह लिजलिजा सा चापलूस व्यक्ति है.. जैसे चाहो वैसे घूम जाता है। मैं इसे अपने सारे उतार चढ़ाव पर साथ पाता हूँ..। यह आसानी से हस देता है.. दुखी होने पर चुप हो जाता है। बड़े होटलो के कमरों में रहते ही अमीर हो जाता है... अपने घर में दयनीय सा बना रहता है..। यह व्यक्ति साबित करना चाहता है कि जो भी अभी तक रचा था वह दुर्घटना नहीं थी.. वह एक सोची समझी संरचना थी। पर वह साबित करने में वह अपनी ही रचना को मनोरंजक बनाना चाहता है जो कि कतई मनोरंजक नहीं है। अर्थहीनता में अर्थ खोदता हुआ वह तीसरा व्यक्ति जो पहले दो को बिल्कुल नहीं जानता है। रचना... फिर मैं रचना के बारे में सोचने लगा। मुझे अपने सामने कुछ ख़ाली कुर्सीयाँ दिखती हैं... और दिखती है एक गुफा.. जिसमें एक साधु बैठा है। मैं हर बार साधु को दुनियां की तरफ भागता हुआ देखता हूँ। जैसे हम लोग जो समाज के ख़िलाफ संधर्ष करते हैं और अंत में समाज से ही चाहते हैं कि वह हमारी रचना को कबूल करें.... पूरी ज़िदगी जो लोग सरकार के विरुद्ध लिखते हैं अंत में वही सरकार उन्हें एक सम्मान दे देती है कि ’वाह बहुत अच्छा लिखा...’ तो कौन है जिसके लिए हम ’रचना’ जैसा शब्द इस्तेमाल कर रहे हैं। मैं बहक जाता हूँ...। रचना की बजाए तर्क पर आ जाता हूँ... कौन सही है कौन गलत की छिछली सी एक तस्वीर रचने लगता हूँ। उस तस्वीर में वही बंधे बधाए चहरे हैं... जिनके अगल बगल मैं खुद को सुरक्षित महसूस करता हूँ। झूठ बोलने की इच्छा होती है। बहुत तीव्रता से... इच्छा होती है कि साफ झूठ बोलूं.. कह दूं कि मैं लेखक हूँ.... और फिर हसू देर तक..। किसी किताब को अपने चहरे पर चिपका लूं... हर बार पन्ना पलटते ही मैं भी बदल जाऊं..। चश्में की बजाए किताबें पहना करुं...। रचना...। रचना कहते ही मेरे दिमाग़ में आसमान आता है। मैंने बहुत कोशिश की है नीला आसमान सफेद बादलों वाला पेंट करुं... फिर लगता है कि इस बात को मैं लिख अच्छा लूंगा.. सो लिखने बैठ जाता हूँ। नीला दरवाज़ा और सफेद दीवारें....लिखा जाता है...। यह एक नाटक था जो गुम गया था। मैंने लिखा था... नीला दरवाज़ा और सफेद दीवारें... एक आदमी था जो अपने ढूबते हुए गांव में आखरी बार आता है... आखरी बार अपना घर देखने... और एक लड़की जो अपने गांव के साथ ढ़ूबना चाहती है। मुझे अधिक्तर यह नाटक याद आता है क्योंकि यह गुम गया था... फिर कभी नहीं मिला..। मैं कभी किसी के लिए इसे पढ़ा नहीं... कभी किसी ने इसके बारे में सुना नहीं...। अगर वह खेला जाता तो मृत हो जाता.. अभी वह मृत नहीं है वह गुम गया है.. मैंने उसे कभी शिद्दत से ढ़ूढ़ा नहीं...। रचना... रचना कहते ही मैं सब कुछ करने लगता हूँ सिवाय रचना के... अभी एक किताब भी खोल ली है.. चाय की इच्छा भी ज़ोरों पर है। कहीं चले जाने के बारे में भी मन भटकने लगा है। रचना शब्द लिखते ही... वह तीसरा व्यक्ति टेक-ओवर कर लेता है...। वह मेरे जीने को मनोरंजन में बदल देता है। हेपोनेस की किताबें उसने पढ़ रखी है जैसे... वह मेरे सामने options रख देता है... बहुत सारी चीज़ों के... जिससे मैं अपने जीने को और मनोरंजक बना सकूं..। रचना शब्द कहने ही पहले दो व्यक्ति गंभीर हो जाते हैं..। गंभीरता में वह सुकड़ने लगते हैं.... यह तीसरा व्यक्ति... बाक़ी सारी बची हुई जगह ले लेता है। रचना... बदला है...। मैं यह शब्द बार-बार लिखकर उस तीसरे व्यक्ति से बदला ले रहा हूँ। मैं फिर लिखता हूँ... रच... रचना..।

Tuesday, September 4, 2012

coffee and cigarettes

खाली तीन कुर्सी सामने थी। एक गंदगी सी केफे के टेबल पर थी। वेटर एक शुगर फ्री ले आया था। कहने लगा कि तीन कॉफी पीने पर यह फ्री है आप इसे घर ले जा सकते हैं। मैं क्या-क्या चीज़े घर ले जा सकता हूँ? मैंने उसे मुस्कुरा कर देखा और कहा ’मुझे नहीं चाहिए.. आप इसे ले जाईये।’ वह कुछ देर चुप खड़ा रहा फिर कहने लगा कि मैं आपके टेबल पर रख देता हूँ अगर बाद में आपका मन बदल जाए तो ले जाईयेगा। मुझे लगा वह मेरे मन को मुझसे ज़्यादा जानता है। वह खाली कप उठाकर ले गया। अब मैं उस फ्री शुगर फ्री के साथ अकेला बैठा था। मैं अपने घर में उसके इस्तमाल की कल्पना करने लगा। कुछ ही देर में मुझे उसकी ज़रुरत अपने घर में महसूस होने लगी। सुबह की चाय में.. शाम के ख़ालीपन की कॉफी में... यूं ही स्वास्थ के लिए..। अगर मेरे सामने वह कोई पत्थर भी रख देता तो मैं उसकी जगह अपने घर में बना लेता। क्या मैं इस बारिश को अपने घर ले जा सकता हूँ। मेरे सामने बैठे उस ख़ाली बैचेन चहरे को.. जो मेरी ही तरह बहुत देर से अकेले कॉफी पीये जा रहा है... हर आने वाले की आँखों में जानने वाले की झलक ढ़ूंढ़ रहा है। उसने मुझे सबसे पहले अनदेखा कर दिया... मेरी बीच में इच्छा हुई कि उसे अपनी टेबल पर आमंत्रित कर लूं। पर हम अधिक्तर ऎसा नहीं करते... यह अचानक हुई घटना होती है वो बिदक सकता था। मैंने सोचा अगर वह पहल करेगा तो... पहल मतलब एक मुस्कुराहट मात्र.. तो मैं कुछ कदम आगे बढ़ाने की कोशिश करुंगा...। पर उसके लिए मैं था ही नहीं। कुछ देर में मैंने भी अपने दरवाज़े उसके लिए बंद कर लिए थे। सामने खड़ी बस में भी कैफे जैसा ही हाल था... वह सब एक साथ... पर अपनी दुनियाओं में अलग बैठे थे.. कोई किसी से मतलब नहीं रखता था...। एक दूसरे की बजाए लोग खिड़की से बाहर देखना उचित समझते हैं। हम एक दूसरे से इतने दूर क्यों हैं। हम नहीं... मैं... मैं सब लोगों से इतना दूर क्यों हूँ। इस बारिश में जाने कितने लोग हैं जो अकेले धूम रहे हैं... अकेलेपन में मैं उनके लिए और वह मेरे लिए वर्जित हैं... क्यों? एक पहचान के महिला आई..कुछ देर हम दोनों अंग्रेज़ी में बात करते रहे... हम दोनों बहुत अच्छी अंग्रेज़ी नहीं जानते हैं.. पर दोनों किसी ज़िद्दी बच्चे की तरह अंग्रेज़ी पर टिके रहे...। अंग्रीज़ी बोलने की असहजता.. हमारी असहजता बन गई .. और हम दोनों ने अचकचा सा बॉय एक दूसरे को किया और वह चल दी...। मैं बहुत देर तक सोचता रहा कि मैंने काहे इतनी ज़्यादा अंग्रेज़ी बोलने की कोशिश की... जबकि मैं हिंदी में बोलता तो शायद कुछ देर में वह भी हिंदी की तरफ सरक आती। बहुत कॉफी पीने से अजीब सी हरारत भीतर महसूस होने लगी थी.... मैं अब असहज हो रहा था। यही दृश्य जिसे पहली कॉफी पर देखकर मुँह से आह निकली थी.. वही तीसरी कॉफी के बाद बोझिल हो रहा था। कुछ लिखने की कोशिश की पर सब बचकाना... सब कुछ.. छिछला.. ओछा.. लगने लगा। जो जी रहा हूँ उसके बाहर लिखना खोज रहा हूँ... स्वस्थ हूँ.. अस्वस्थ ढूंढ़ रहा हूँ। मैंने फ्री शुगर फ्री नहीं उठाई... मेरे घर में अब उसके लिए जगह थी.. पर उसकी जगह ख़ाली ही रहनी चाहिए... उसकी जगह मैं बारिश को ले जाऊंगा... ऎसा कुछ सोचकर मैंने अपने भीतर पल रहे लेखक को रोटी खिलाई.. और कॉफी हाऊस से उठ खड़ा हुआ।
खाली तीन कुर्सी सामने थी। एक गंदगी सी केफे के टेबल पर थी। वेटर एक शुगर फ्री ले आया था। कहने लगा कि तीन कॉफी पीने पर यह फ्री है आप इसे घर ले जा सकते हैं। मैं क्या-क्या चीज़े घर ले जा सकता हूँ? मैंने उसे मुस्कुरा कर देखा और कहा ’मुझे नहीं चाहिए.. आप इसे ले जाईये।’ वह कुछ देर चुप खड़ा रहा फिर कहने लगा कि मैं आपके टेबल पर रख देता हूँ अगर बाद में आपका मन बदल जाए तो ले जाईयेगा। मुझे लगा वह मेरे मन को मुझसे ज़्यादा जानता है। वह खाली कप उठाकर ले गया। अब मैं उस फ्री शुगर फ्री के साथ अकेला बैठा था। मैं अपने घर में उसके इस्तमाल की कल्पना करने लगा। कुछ ही देर में मुझे उसकी ज़रुरत अपने घर में महसूस होने लगी। सुबह की चाय में.. शाम के ख़ालीपन की कॉफी में... यूं ही स्वास्थ के लिए..। अगर मेरे सामने वह कोई पत्थर भी रख देता तो मैं उसकी जगह अपने घर में बना लेता। क्या मैं इस बारिश को अपने घर ले जा सकता हूँ। मेरे सामने बैठे उस ख़ाली बैचेन चहरे को.. जो मेरी ही तरह बहुत देर से अकेले कॉफी पीये जा रहा है... हर आने वाले की आँखों में जानने वाले की झलक ढ़ूंढ़ रहा है। उसने मुझे सबसे पहले अनदेखा कर दिया... मेरी बीच में इच्छा हुई कि उसे अपनी टेबल पर आमंत्रित कर लूं। पर हम अधिक्तर ऎसा नहीं करते... यह अचानक हुई घटना होती है वो बिदक सकता था। मैंने सोचा अगर वह पहल करेगा तो... पहल मतलब एक मुस्कुराहट मात्र.. तो मैं कुछ कदम आगे बढ़ाने की कोशिश करुंगा...। पर उसके लिए मैं था ही नहीं। कुछ देर में मैंने भी अपने दरवाज़े उसके लिए बंद कर लिए थे। सामने खड़ी बस में भी कैफे जैसा ही हाल था... वह सब एक साथ... पर अपनी दुनियाओं में अलग बैठे थे.. कोई किसी से मतलब नहीं रखता था...। एक दूसरे की बजाए लोग खिड़की से बाहर देखना उचित समझते हैं। हम एक दूसरे से इतने दूर क्यों हैं। हम नहीं... मैं... मैं सब लोगों से इतना दूर क्यों हूँ। इस बारिश में जाने कितने लोग हैं जो अकेले धूम रहे हैं... अकेलेपन में मैं उनके लिए और वह मेरे लिए वर्जित हैं... क्यों? एक पहचान के महिला आई..कुछ देर हम दोनों अंग्रेज़ी में बात करते रहे... हम दोनों बहुत अच्छी अंग्रेज़ी नहीं जानते हैं.. पर दोनों किसी ज़िद्दी बच्चे की तरह अंग्रेज़ी पर टिके रहे...। अंग्रीज़ी बोलने की असहजता.. हमारी असहजता बन गई .. और हम दोनों ने अचकचा सा बॉय एक दूसरे को किया और वह चल दी...। मैं बहुत देर तक सोचता रहा कि मैंने काहे इतनी ज़्यादा अंग्रेज़ी बोलने की कोशिश की... जबकि मैं हिंदी में बोलता तो शायद कुछ देर में वह भी हिंदी की तरफ सरक आती। बहुत कॉफी पीने से अजीब सी हरारत भीतर महसूस होने लगी थी.... मैं अब असहज हो रहा था। यही दृश्य जिसे पहली कॉफी पर देखकर मुँह से आह निकली थी.. वही तीसरी कॉफी के बाद बोझिल हो रहा था। कुछ लिखने की कोशिश की पर सब बचकाना... सब कुछ.. छिछला.. ओछा.. लगने लगा। जो जी रहा हूँ उसके बाहर लिखना खोज रहा हूँ... स्वस्थ हूँ.. अस्वस्थ ढूंढ़ रहा हूँ। मैंने फ्री शुगर फ्री नहीं उठाई... मेरे घर में अब उसके लिए जगह थी.. पर उसकी जगह ख़ाली ही रहनी चाहिए... उसकी जगह मैं बारिश को ले जाऊंगा... ऎसा कुछ सोचकर मैंने अपने भीतर पल रहे लेखक को रोटी खिलाई.. और कॉफी हाऊस से उठ खड़ा हुआ।

Saturday, July 28, 2012

त्रासदी... कहानी का भाग तीन.. "रोशनी..."

रोशनी... उसने आँखें खोली तो देखा उसके बगल में रोशनी बैठी हुई है। कमरा नम्बर एक सौ तीन की लड़की। उसे कुछ देर विश्वास नहीं हुआ... उसने अपने बिखरे हुए बालों में हाथ फेरा... तकिये को सीधा करके वह बैठ गया। ’मैं अपने फेलो पेशेंट को देखने आई हूँ...।’ ’सॉरी मैं सो रहा था.. आप क्या बहुत देर से इंतज़ार कर रही हैं?’ ’मुझे अच्छा लग रहा था.... आपने क्या सपना देखा?’ ’मैंने.. पता नहीं...।’ ’बिना सोचे बताईये... मैं आपका चहर देख रही थी... हर कुछ देर में आपके माथे पर बल पड रहीं थीं। जल्दी बताईये...।’ ’मैं... पता नहीं कुछ बचपन के पागलपन.. मौसा जी.... घर .. और पता नहीं क्या क्या...। वैसे मुझे सपने नहीं आते... पर शायद यह इतनी दवाईयों का असर है...।’ ’बस....? सपना ठीक-ठीक किसके बारे में था... क्या देखा...?’ ’मैंने देखा कि मैं मौसा जी के साथ नदी किनारे बैठा हूँ... हम पेड़े खा रहे हैं... और वह मुझसे अपने खतों के बारे में पूछ रहे हैं... उनके खत.. बस और मुझे याद नहीं...।’ कितनी आसानी से सब गड़मड़ हो जाता है..। उसका देखा हुआ.. उसका जिया हुआ... सब... वह पूरा सच कहने का हुनर भूल चुका था। हर बात को एक प्रेज़ेनटेबल फारमेट में कहना... इसकी इतनी आदत उसे पड़ गई थी कि वह कभी भी सीधा बासी सच कह ही नहीं सकता था। ’आपको मैं अपने सपनों के बारे में बताऊं?’ रोशनी को अचानक अपने बहुत से सपने याद हो आए...। ’तुम क्या एक बार में बहुत सारे सपने देख लेती हो?’ ’नहीं... मैं यहां बहुत दिनों से हूँ... और मुझे अपने सारे सपने याद रहते हैं... सारे के सारे।’ ’अच्छा तो रुको मैं दो मिनिट बाथरुम से आता हूँ।’ नर्स को बुलाया गया.. सिरिंज निकाली गई... वह बाथरुम गया इस बीच रोशनी शांत बैठी रही। वह अपने दाए पैर से स्टूल की टांग बजा रही थी.. कोई धीमे संगीत की थाप जैसा कुछ। कुछ देर में वह भीतर से निकला... चहरा धुला हुआ.. बाल कायदे से जमे हुए। फिर नर्स को बुलाया गया सिरिंज वापिस लगाई गई... पर वह बैठा रहा... नर्स के जाते ही दोनों एक दूसरे की तरफ मुख़ातिफ हुए... मानों नर्स के रहते हुए वह एक दूसरे को नहीं जानते थे, और नर्स के जाते ही दोनों की आँखों मे छोटी सी पहचान के तारे चमने लगे। ’सुनाओ..!’ नरेन ने कहा.. ’पहले कल रात मुझे जो सपना आया था वह सुनाती हूँ... सपने में मुझे कोई उड़ा रहा है... जबकि मैं चल रही थी... किसी एक गहरी रात में, पर मेरा चलना उड़ना था... पर मैं खुद नहीं उड़ रही थी कोई मुझे उड़ा रहा था। उस गहरी रात की गली थी.. मोड़ आते ही समुद्र आ गया... वहां सुबह थी... दूर पानी में कोई खड़ा था.. मैंने पीछे पलटकर देखा तो... वहां अभी भी रात थी.... मैं उस आदमी की तरफ बढ़ने लगी... समुद्र की लहरे उसके पैरों को छू रही थीं.. और वह धागा ख़ीच रहा था... उसके पैरों के पास धागा का ढ़ेर बन गया था... मुझे लगा उसने कोई मछली पकड़ी है... वह उस धागे को तेज़ी से खींचने लगा... मैं उसकी तरफ तेज़ी से भागने लगी... जब मैं उसके बगल में पहुंची तो उस आदमी क धागा टूट गया। उसने मेरी तरफ पलटकर देखा... वह आप थे..।’ ’मैं?’ ’हाँ...।’ ’अजीब है... मैं तुम्हारे सपने में था!’ ’आप एक बार फिर आए थे सपने में... मैंने देखा था कि आप किसी पुराने घर में जा रहे थे...। वह घर आपको अपनी तरफ ख़ीच रहा था। घर के बाहर किसी दूसरे व्यक्ति का नाम लिखा था..। आपको लग रहा था कि बहुत से लोग आपको उस घर में जाने से मना कर रहे हैं पर अगल-बगल कोई भी नहीं था। आप उस घर का दरवाज़ा खोलते ही भटक जाते हैं। वापिस पलटने पर वह दरवाज़ा गायब हो जाता है जहां से आप अंदर आए थे। फिर बस मैंने आपको भटकते हुए ही देखा।’ ’और..?’ ’आपके यह ही दो सपने थे.. सोचा आपको सुना दूं।’ ’उस दिन दवाईयों का शायद ज़्यादा असर था.. मैं बहक गया था, तुमने सोचा होगा अजीब आदमी है। शायद उसी दिन की वजह से तुम्हें इस तरह के सपने आए हैं।’ ’मैं सपनों को निजी जीवन से अलग रखती हूँ...। उन्हें निजी जीवन से इटरप्रेट नहीं करती।’ ’जब मैं उस घर में भटक रहा था तो तुम उस वक्त कहां थीं...’ ’मैं सो रही थी।’ इस बात पर वह ज़ोर से हंसने लगी...। नरेन को भी हंसी आ गई। ’मुझे नहीं पता.. मैं वह सपना देख रही थी... मैं उसमें नहीं थी।’ ’तुम कब से यहां हो?’ ’कहा था ना काफी समय से... ठीक-ठीक याद नहीं।’ ’क्या करती हो तुम?’ ’मैं यहां होस्टल में रहती हूँ। घर वालों को नहीं पता है कि मैं अस्पताल में हूँ... वरना वह बवाल मचा देंगें। मुझे पीलिया हो गया था.. झाड़ फूक से ठीक हो गया था... पर फिर पलटकर आया तो एडमिट होना पड़ा। अब मैं बहुत ठीक हूँ... बस कुछ दिन और...।’ ’कुछ दिन बाद गोलगप्पे..।’ ’पता नहीं...।’ ’पता नहीं...??? मतलब तुमने तो कहा था कि उठते ही सबसे पहले गोलगप्पे खाओगी...।’ ’उस वक़्त मैं करना चाह रही थी..अभी नहीं.. अभी तो मैं सीधे अपने होस्टल के कमरे में जाऊंगी... मुझे अपना होस्टल का कमरा बहुत याद आता है। मेरे पास एक बिल्ली है जिसका नाम सर्दी है.. पता नहीं वह कैसी होगी? बिल्लीयां मुझे अच्छी लगती हैं। वह जल्दी से किसी को अपनाती नहीं है... और अगर अपना भी लें तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। वह अपने मालिक होने का हक़ किसी को नहीं देतीं।’ ’मुझे कोई भी जानवर पसंद नहीं..।’ ’और इंसान...?’ ’यह क्या सवाल है?’ ’सीधा सवाल है...।’ ’पता नहीं.. मतलब मुझे पसंद है और नहीं भी... नहीं ज़्यादा... बहुत देर तक मैं किसी को भी बर्दाश्त नहीं कर सकता।’ ’और खुद को...?’ ’तुम यह सवाल मुझसे क्यों पूछ रही हो...? तुम जानती कितना हो मेरे बारे में? और क्या हक़ है तुम्हें... कि..’ नरेन चुप हो गया। उसने अपने तकिये को पलटा और लेट गया। रोशनी असहज हो गई थी। वह खड़ी हो गई। ’मुझे चलना चाहिए...।’ ’रुको... सॉरी.. बैठो कुछ देर..। मौसी आती होंगी.. उनसे भी मिल लेना..। उनको लगता है कि मैं यहां फस गया हूँ। वह बेकार ही बहुत ज़्यादा चिंता करती हैं।’ ’फसे हुए तो आप लगते ही हैं। तभी मैं भी यहां आई हूँ।’ ’दया दिखाने...।’ ’दया दिखाना मुझे नहीं आता।’ ’ठीक है.. बैठ तो सकती हो तुम..।’ रोशनी मुस्कुरा देती है.. नरेन भी उठकर वापिस बैठ जाता है। ’आपको एक बात कहूं... जो असल में मैं कहने आई थी।’ ’कहो...।’ ’मैं कुछ बारह दिन पहले तक बहुत खराब हालत में थी। लगने लगा था कि शरीर धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है। तभी कुछ हुआ था... मैंने यह किसी को नहीं बताया..। मुझे लगने लगा कि बस यहां से मैं ठीक होने लगूंगी... और ठीक उस वक़्त से मैं ठीक होने लगी...। इसी बीच मुझॆ लगने लगा कि मैं बड़ी हो गई हूँ... मैं उस दूसरी रोशनी को जानती हूँ जो इस अस्पताल में आई थी... मुझॆ लगने लगा कि वह दूसरी रोशनी मेरी कोई दोस्त थी... जिसे मैं अच्छे से जानती हूँ अब... पर वह मैं नहीं हूँ... मैं बड़ी हो गई हूँ। मुझे यह भी नहीं पता कि मैं यह आपको क्यों बता रही हूँ...। जब आप मेरे कमरे से अचानक चले गए तो मैं आपके बारे में सोचती रही.. आपकी एक कहानी भी मैंने बना ली थी।’ ’क्या कहानी है मेरी?’ ’वह छोड़िये... बचकानी है।’ ’फिर भी... मैं सुनु तो...।’ ’वह सिर्फ मेरे लिए थी.. मैं उसे कुछ भूल भी गई हूँ। चलिए अब मुझे चलना चाहिए.. गगन आता होगा।’ ’यह गगन कौन है?’ ’दोस्त है... बहुत ख़्याल रखता है...।’ ’और कौन-कौन आता है तुम्हें देखने..?’ ’मेरे बहुत से दोस्त हैं... पहले बहुत आते थे.. उन्हें लगता था कि कुछ भी हो सकता है.. फिर जब से मैं ठीक होने लगी तो सिर्फ गगन रह गया। इसके अलावा मेरे मामा आते हैं.. जो मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। पर उन्होंने वादा किया है कि वह मेरे घर पर कुछ नहीं बताएगें। अगर आप भी बंबई में एडमिट होते तो बहुत से लोग आपको देखने आते..?’ ’आशा तो मैं भी ऎसी ही करता हूँ... पर यक़ीन से नहीं कह सकता..।’ ’क्यों आपकी... मेरा मतलब है..।’ ’मैं सिंगल हूँ... डिवोर्सी... रिशतेदारो में मौसी बची हैं..। और कुछ दोस्त हैं जिनके साथ मिलकर मैं व्यस्त रहता हूँ।’ टूटे फूटे शब्दों में नरेन ने सब सच कहा...। वह पारुल के बारे में भी बताना चाहता था... सब कुछ.. पर वह चुप हो गया। रोशनी कुछ देर की चुप्पी में अपने कमरे की तरफ बढ़ गई। रोशनी ने अपने कमरे में आते दरवाज़ा बंद कर दिया। जब वह बारह साल की थी उसके पिताजी की मृत्यु हो गई थी। वह, उसकी छोटी बहन और उसकी माँ रह गए थे। नींद में अपने पिताजी का मुस्कुराता हुआ चहरा उसने आखरी बार देखा था उसके बाद वह कभी घर नहीं आए। वह चहरा आज भी रोशनी आपने साथ लेकर चलती है। मृत्यु के कुछ समय बाद से ही उसे घर में एक खाली जगह दिखने लगी..। पिताजी के जाने के बाद की छूटी हुई जगह। रोशनी को जितना दुख पिताजी की मृत्यु का था उससे कहीं ज़्यादा उसे यह ख़ाली जगह परेशान करने लगी थी। उसकी माँ की आँखें उसे कुछ खोजती हुई दिखति लगातार। उसने तय किया कि वह यह जगह भरेगी... किसी को तो वह जगह भरनी ही पड़ेगी सो वह ठीक अपने पिता की तरह व्यवहार करने लगी। उसने पेंट शर्ट पहनना शुरु कर दिया। वह अपनी छोटी बहन को स्कूल के लिए तैयार करती.. उसका लंच बनाती.. स्कूल के टांगे में उसे बिठाने के ठीक पहले उसके गालों को चूम लेती। अपनी माँ के साथ बाज़ार जाती.. पैसों का पूरा हिसाब रखती। एक दिन उसने अपनी माँ को डॉट दिया ठीक वैसे ही जैसे कभी कभी उसके पिताजी खराब खाना बनने पर डॉटा करते थे। उसकी माँ उसे आश्चर्य से देखने लगी... उसे लगा कि वह पकड़ा गई है.. उसका नाटक, जो अब उसके लिए नाटक नहीं था वह उसे जीने लगी थी... खत्म होने को है। इस घटना के बाद से रोशनी अपने बाप की भूमिका में कुछ नरम पड़ गई। पर जहां उसे जगह दिखती वह अपने पिता की तरह हो जाती। अपने पिताजी की बची हुई सिग्रेट वह अपने स्कूल बेग में रखती... अकेले कमरे में वह एक सिग्रेट निकालती और अपनी उंलियों में नचाने लगती। उसने महसूस किया था कि उसकी आवाज़ थोड़ी भारी होती जा रही है। वह भारी आवाज़ में अपने पिता की तस्वीर से बातें करती.. उन्हें सारे के सारे राज़ बताती.. घर को अच्छे से संभालने की कसम खाती...। वह अपने पिता की तस्वीर को अपने तकिये के नीचे छुपाकर रखती। घर में उसके भीतर हो रहे परिवर्तनों को महसूस करने की जगह किसी के पास नहीं थी। बहन बहुत छोटी थी, माँ बहुत चुप रहती थी। तभी घर में सिन्हा अंकल का आना जाना बढ़ने लगा। पहले रोशनी को यह बहुत अच्छा लगता था। सिन्हा अंकल उसके पापा के अज़ीज़ दोस्तों में से एक थे.. पर माँ के प्रति उनके व्यवहार में अजीब सा बनावटीपन आने लगा था। माँ उनके आने से खुश हो जाती थी सो वह अपनी बढ़ती हुई नापंसदगी कभी किसी को बता नहीं पाई। सिन्हा अंकल हर बार उसकी छोटी बहन के लिए चाकलेट लाते.. उसके गालों पर ज़बर्दस्ति चूटी काटते.. माँ उनके साथ कभी-कभी घूमने चली जाती और देर रात वापिस आती। उसने एक रात अपनी माँ से इस बारे में बात की...उसके भीतर बहुत कड़वाहट थी जिसे वह रोक नहीं पाई.... माँ ने कहा कि ’अच्छे से बात करो उनके बारे में.. वह तुम्हारे पिता जैसे हैं।’ इसके बाद से उसे खुद का अभिनय झूठ लगने लगा..। वह अपने पिता होने का झूठा अभिनय कर रही थी। देर रात वह तकिये के नीचे से अपने पिता की तस्वीर निकालती पर कुछ कह नहीं पाती.. उसे रोना आ जाता। वह इतनी बड़ी हो चुकी थी कि सिन्हा और उसकी माँ के बीच के संबंध को सूंघ सके। एक पुरुष घर में दाखिल हो रहा था जो कतई उसके पिता जैसा नहीं था.. वह बहुत फूहड़ तरीके से हंसता था.. उसके हाथ बहुत रुखे थे... शरीर का पसीना बहुत दूर तक बसाता था... खाना मुँह खोलकर खाता था.. पेट शरीर का बड़ा हिस्सा था.. बार-बार उसे गोदी में बिठा लेता.. उसकी दाड़ी उसे बहुत चुभती थी... और वह सिग्रेट भी नहीं पीता था। वह एक सुबह अपनी जीप में आया और पूरे घर को दो दिन के लिए एक हिल स्टेशन पर ले गया। बहुत बनावटीपन से उसने सारा इंतज़ाम किया हुआ था..। दिन भर की यात्रा के बाद जब वह होटेल पहुंचे तो एक कमरे में वह और उसकी बहन रुके और दूसरे कमरे में उसकी माँ और वह...। उस रात रोशनी में अपने पिताजी की तस्वीर फड़ दी थी। सिन्हा अंकल और उसकी माँ ने शादी कर ली। रोशनी को माँ ने कहा कि वह सिन्हा अंकल को अब से पापा कहकर बुलाया करे। वह कहना चाहती थी कि इस घर में वह पापा थी... उसने पापा के जाने के बाद पापा होना तय किया था... और वह कोशिश कर रही है पापा होने की...। घर रोशनी के लिए अब घर नहीं रहा था। सिन्हा अंकल पापा होते ही बदल गए थे। वह एक ऎसा खूंखार आदमी हो गया था जिसके अगल-बगल किसी का भी जीना मुश्किल था। रोशनी ने अपनी माँ को समझाया पर माँ अपने नए पति को पति मान चुकी थी... वह सुधर जाएगें जैसे वाक्य उनके मुँह से भजन की तरह निकलने लगे। रोशनी वह घर छोड़ना चाहती थी। तभी उसे गगन दिखा... जो उसके ने पिता के दोस्त का बेटा था। घर आने जाने में उसे रोशनी से लगाव हो गया। उसे पढ़ने का बहुत शोक था... रोशनी उसकी दी हुई किताबें पढ़ा करती थी। एक दिन वह ज्ञानरंजन का कहानी संग्रह ’यात्रा’ पढ़ रही थी... उस किताब के बयालीस्वें पन्ने पर बहुत छोटे-छोटे अक्षरों में गगन ने कुछ लिख रखा था...। किताब वापिस देते वक़्त रोशनी ने कुछ शब्द उसमें जोड़ दिये...। इस तरह बयालीसवें पन्ने का सिलसिला शुरु हुआ। यह सिलसिला गगन को रोशनी के बहुत पास ले आया। रोशनी ने एक दिन बयालीसवे पन्ने पर अपना घर छोड़ने की इच्छा ज़ाहिर की...। संबंध पन्नों पर ही था पर लिखित था... गगन पढ़ता बहुत था इसलिए लिखे हुए से उसका संबंध गहरा बनता था। गगन ने शहर में एक नौकरी जुगाड़ ली। कुछ ही महिनों में पढ़ाई का बहाना करके रोशनी गगन के पीछे शहर रवाना हो गई। जब वह अपना घर छोड़ रही थी तो उसे लगा कि वह पूरे घर से पल्ला झाड़कर जा रही है। अपनी माँ को गले लगाते वक़्त उसने बहुत धीरे से कहा था.. मुझे माफ कर देना..। माँ ने मानों यह सुना ही नहीं... छोटी बहन खुश थी.. उसे पता था कि वह रोशनी उसे जल्द ही शहर बुला लेगी... जो रोशनी ने नहीं किया। वह अपने पिताजी की दूसरी तस्वीर ले आई थी जिसमें वह चारों थे.. और खुश थे। गगन अभी भी दोस्त ही था। अभी भी उसना बयालीस्वे पन्ने का संबंध कायम था। अब रोशनी होस्टल में रहने लगी थी। गगन आदतन नौकरी करते-करते सच में नौकरी करने लगा था। वह अपने हस्पताल के कमरे में लेटी हुई थी, उसके हाथ हवा में कुछ तलाश रहे थे। वह एक उंगली से हवा में कुछ चित्र बना रही थी। एक खट के साथ उसके कमरे का दरवाज़ा खुला... गगन सामने खड़ा था। वह नीली शर्ट में बहुत सुंदर दिखता था। आज उसने शेव भी किया था। रोशनी ने उसे अपने पास आने को कहा... गगन उसके पलंग पर बैठ गया। रोशनी ने उसे पास खींचा और उसे चूम लिया। वह हमेशा अपनी आँखें बंद कर लेता था। रोशनी को चूमते हुए उसे देखना बहुत पसंद था। वह अपनी आँखे कुछ इस तरह मीचता था मानों कहीं बहुत हल्का दर्द हो रहा हो.. और वह बहुत तनम्यता से उस जगह को खोज रहा हो। ’तुम फिर मुस्कुरा रही हो?’ गगन धीरे से अलग हो गया। रोशनी को हंसी आ गई। ’सॉरी.. सॉरी...’ ’मैंने कहा था ना...!!!’ ’सॉरी कहा ना... तुम्हें पता है मुझे तुम्हारी ऑखों को देखकर हंसी आ जाती है। इट्स वैरी क्यूट।’ ’मैं क्यूट नहीं हूँ।’ ’आज तुम कितने सुंदर लग रहे हो।’ ’थेंक्स... तुम्हें मैं अपनी गिफ्ट की हुई चीज़ों में हमेशा सुंदर ही लगता हूँ।’ ’अरे.. क्या हो गया? बहुत चिड़े पड़े हो!!’ गगन चुप हो गया। रोशनी जानती थी गगन को कभी-कभी इस किस्म का दौरा पड़ता है। वह दोस्त हैं.. कभी-कभी लाईन क्रास कर लेते हैं.. पर चूकि वह लाईन हमेशा रोशनी ही तय करती है इस बात पर गगन हमेशा नाराज़ रहता है। इस बहस में रोशनी हमेशा कहती है कि मैं इस सबमें अपनी दोस्ती बचाना चाहती हूँ सो हमेशा एक हद में प्रेम रखती हूँ। गगन ने रोशनी को पढ़ा था सो वह असहाय रुप से जो वह कहती थी मान लेता था। ’समने के कमरे में एक आदमी आया है... इंदर उसका नाम है। वह अचानक ही मेरे कमरे में चला आया। बीमार था.. लड़खड़ा रहा था...। बड़ी अजीब सी बातें की उसने... फिर मैं उसके कमरे में गई..। मैंने उसे अपने सपने सुनाए जिन्हें मैं देखना चाहती थी।’ रोशनी ने गगन की चुप्पी में बात बदल दी। गगन खाने की कुछ चीज़े लाया था जिसे झोले से निकालने में व्यस्त हो गया था। वह नहीं सुन रहा है ऎसे अभिनय में वह रोशनी की बात सुन रहा था.. रोशनी चुप नहीं हुई। ’पता नहीं क्यों मैं इस उम्र के लोगों से बहुत आकर्षित होती हूँ जबकि मेरे भीतर इनसे बदला लेने की चाह होती है... पर जब मैं उनके निकट पहुंचती हूँ तो लगता है कि वह मुझे मारे.. मुझे डॉटे.. मुझे बेइज़्ज़त करे.. मेरे साथ...।’ गगन अपना काम रोक कर अब सुनने लगा था। ’कौन है वह?’ ’मिड लाईफ क्राईसिस से गुज़रता हुआ... नहीं मिड लाईफ नहीं... वह अकेला है.. भटका हुआ.. नहीं पता नहीं।’ ’क्या कहा उसने?’ ’सच कहना चाह राहा था पर डरी हुई कहानी उसके मुँह से निकल रही थी।’ गगन और नहीं जानना चाह रहा था। ’कल छुट्टी है।’ ’क्या???’ ’हाँ... मैं रिपोर्ट्स देखकर आ रहा हूँ रिसेप्शन पर..। बस कमज़ोरी बची है.. और खाने पीने का ध्यान रखने को कहा है..।’ ’यह तो बहुत सही है। मैं कुछ दिन तुम्हारे साथ रह लूंगी।’ ’नहीं... तुम होस्टल में ही रहना.. मैं आता रहूँगा।’ ’अच्छा!!!... कोई तुम्हारे साथ रहने लगा है?’ ’हाँ... दिप्ति आती है... उसे यूं भी तुमसे बहुत तकलीफ है।’ ’गलत तो नहीं है वह... उसे मुझसे तकलीफ होनी चाहिए।’ ’नहीं... उसे तकलीफ होनी चाहिए उस लड़की से जो बयालीसवे पन्ने पर लिखती है.. तुमसे नहीं..।’ ’अरे मैं ही तो हूँ वह...।’ ’नहीं तुम वह नहीं हो...।’ गगन बुरी तरह चिढ़ चुका था। उसने झोले में कुछ सामन रखा और जाने लगा। ’कल सुबह तुम्हारे मामा आएगें क्या?’ ’नहीं.. वह बाहर गए हुए हैं।’ ’ठीक है तो मैं आ जाऊंगा तुम्हें लेने.. नौ बजे तैयार रहना।’ ’कहां जा रहे हो?’ ’दिप्ति नीचे इंतज़ार कर रही है।’ रोशनी, गगन को बहुत पसंद करती थी। सांवला सा मृदुभाषी.... उसे उसके होंठ बहुत पसंद थे। जब भी उसके जीवन में दूसरा कोई प्रवेश करता वह उसकी तरफ बुरी तरह आकर्षण महसूस करती। यहां तक कि वह इंतज़ार करती कि उसके जीवन में कोई दूसरी लड़की आए। दिप्ति को लेकर वह कुछ ज़्यादा ही संजीदा हो गया है.. पर रोशनी खुद को रोक नहीं पाती है। आज उसे गगन को चूमना नहीं था.. पर उसने दिप्ति को सूंघ लिया था। दूसरी लड़की की खुशबू गगन के शरीर में थी जो बहुत ही उत्तेजक थी। उसे लगा था कि रात तक गगन उसके पास ज़रुर आएगा.. पर गगन नहीं आया। वह देर तक अपने ’पिता होने’ के नाटक के बारे में सोचती रही। उसे लगने लगा कि किसी भी संबंध में उसे किसी के जैसा होना बहुत सामान्य लगता है। वह अपने घर में पिता की खाली जगह भरना चाहती थी.. पिता होकर..। वह नहीं हो पाई... और इस बात की ग्लानी उसे अभी भी है... शायद उसी के पिता ना होने के कारण वह दूसरा व्यक्ति घर में प्रवेश कर सका.. उसे लगा था कि उसने पिता की खाली जगह अपने नाटक से भर दी है.. पर वह गलत थी। रात में उसने खुद को इंदर के कमरे में पाया। बदला लेने की भावना उसके भीतर थी... पर वह हारना भी चाहती थी। उसने इंदर के पैरों को छुआ... हल्के से... इंदर ने आँखे खोली और वह झटके से उठकर बैठ गया। ’अरे क्या हुआ? सब ठीक है।’ उसने इसका कोई जवाब नहीं दिया..। वह उसके बगल में बैठ गई। उसने उसके हाथों से उसकी सिरिंज निकाल दी.. उसने उसकी छाती पर धीरे से अपना हाथ रखा। इंदर उसकी आँखों में कुछ तलाश रहा था जो वहा नहीं था। उसने अपने हाथों से धीरे से इंदर को धक्का दिया। इंदर लेट गया था। रोशनी ने अपनी चप्पल उतारी... इंदर के दाहिने हाथ को फैलाय और उसपर अपना सिर टिकाकर लेट गई। ’तुम्हें पता है तुम क्या कर रही हो?’ इंदर ने बहुत हिचकिचाते हुए कहा। रोशनी ने अपना हाथ उसके होठों पर रख दिया। इंदर की तरफ करवट कर के वह उससे चिपक गई। ’क्या तुम मेरे सपने में आई हो?’ कुछ देर की शांति के बाद इंदर ने कहा। ’तुम्हें दवाईयों के कारण बहुत सपने आते हैं अजकल।’ ’यह सपना कौन देख रहा है।’ ’यह सपना नहीं है।’ ’क्या मैं तुम्हें छू सकता हूँ... क्या तुम हो यहां?’ रोशनी चुप थी। ’मैं कुछ नहीं कर सकता... ।’ ’मैं जानती हूँ..।’ ’क्या सुबह होने पर यह याद रहेगा।’ ’तुम सुबह के बारे में क्यों सोच रहे हो?’ ’मैं इसे जीना चाहता हूँ।’ ’तुम जी रहे हो।’ ’मैं नहीं जी रहा हूँ। मैं इसे होता हुआ नहीं देख पा रहा हूँ। क्या मैं लाईट ऑन कर सकता हूँ?’ ’ना.... मुझे नींद आ रही है।’ ’मैं सोना नहीं चाहता हूँ।’ ’मैं यहां सोने आई हूँ।’ ’क्या तुम सुबह चली जाओगी।’ ’पता नहीं।’ ’क्या यह सब कुछ रुक नहीं सकता? यहीं.. बस ऎसा का ऎसा...।’ ’अगर तुम इसे रोकना चाहते हो तो मुझे जाना पड़ेगा।’ ’यह खत्म हो जाएगा।’ ’यह खत्म हो रहा है।’ ’मुझे खांसी आ रही है.. पर मैं ख़ांसना नहीं चाहता.. मुझे डर लग रहा है कि मेरे ख़ासने से कहीं मैं जाग ना जाऊं।’ ’तुम ख़ांसके देख सकते हो।’ ’नहीं मैं यह रिस्क नहीं ले सकता।’ इंदर रोशनी की तरफ करवट बदलता है। रोशनी का सिर इंदर की छाती से चिपक जाता है। इंदर की छाती गर्म है। कुछ देर में दोनों हल्के होने होने लगते हैं.. रोशनी का सिर लटक जाता है। इंदर सबकुछ देख रहा है... सूंध रहा है.. महसूस कर रहा है... बहुत देर तक उसको लगता है कि उसकी आँखें खुली हुई हैं।

Thursday, July 26, 2012

धुंध..

Sona pani.. फिर पहाड़ों पर... बहुत थका हुआ काठगोदाम से एक गाड़ी लेकर पहाड़ों पर निकल गया। ड्रायवर शांत था... मैं अपने सपनों से बाहर निकलकर हर कुछ देर में उससे एक सवाल पूछ लेता... वह छोटी सी आवाज़ में मेरे सवालों को खत्म कर देता..। मेरे सवाल इस डर से निकलते थे कि कहीं वह सो ना जाए..। भीम ताल से कुछ पहले ही धुंध भरी पेंटिग में हमारी गाड़ी प्रवेश कर गई। यह दुनिया जो अब तक सच में मेरे सामने थी गायब हो गई। मैं जिन भी सपनों में तिर रहा था सब खो गए। मैं उस चित्र में प्रवेश कर चुका था जो दिख नहीं रहा था। कार की गति बहुत धीमी हो गई... मैं कार की खिड़की से अपना सिर बाहर को निकाल लिया..। नमी... मेरी त्वचा बहुत दिनों बात नमी महसूस कर रही थी। भवाली में हम कुछ देर रुके... मैं हमेशा भवाली में रुक जाता हूँ.. ’कव्वे और काला पानी..’ कहानी को खोजने के लिए..। बहुत बार मैं महसूस करता हूँ कि उस कहानी का नायक (निर्मल वर्मा) खुद यहीं से गुज़रे होंगें। चाय पीते हुए अचानक बारिश होने लगी... मैं उस कहानी के बहुत करीब था। तभी फिर धुंध की परतों में सब कुछ खो गया। मैं बस अपने चाय के गिलास के साथ था... ड्रायवर चाय नहीं पीता था.. उसने पान की मांग की..। ’उड गया अचानक लो भूधर...’ पंत जी की कविता जो बचपन में पढ़ी थी, we live as if its real… Cohen की यह लाईन भी याद हो आई.. और फिर पहाड़ में बिताए दिनों की झड़ी लग गई। कुछ देर में सब कुछ धुंधलाने लगा.. मैं धुंध में दृश्य खोज रहा था। मैं टुकड़ों-टुकड़ों में यहां आता हूँ... पर जब यहां रहता हूँ तो लगता है कि मैं टुकड़ों-टुकड़ों में शहर जाता हूँ...। पहाड़ आपसे इतना दूर रहते हैं कि अपनापन देते हैं। ज़मीन मेरे रेंगते हुए जब सवालों से मैं भर जाता हूँ तो पहाड़ आ जाता हूँ.. पहाड़ में प्रवेश करते ही सब कुछ छिछला लगने लगता है..। भवाली से तल्ला, मल्ला होते हुए.. सोना-पानी के करीब पहुंच गए। कार को अलविदा कह दिय..। लंबी यात्रा का सामान कुछ ज़्यादा था... खुद को कोसते हुए.. मैं उसे सिर पे लादे चल दिया। बादल, धुंध.. पहाड़.. बिजली.. चहचहाहट..। कभी-कभी लगता है कि हज़ारों सालों से ज़िदा हूँ... बिना रुके जिये चला जा रहा हूँ। दृश्य बदल रहे हैं... लोगों के साथ संवाद बदल जाते है पर मैं वही हूँ.. सालों से एक सा...। अपनी बातें वैसी की वैसी दौहराता हुआ। मैं किससे क्या कह दूंगा..? और क्यों? मैं हर बिखराव को अपनी बातों से एक तारतम्य को देना चाहता हूँ.. मैं जो मुक्त (झूठ).. बिखराव पसंद करता हूँ (यह भी झूठ ही है)... वह हर चीज़ को सांचे में क्यों ढ़ालना चाहता है..? झूठ.. मैं चुप हूँ..। सुबह-सुबह भीतर जंगल में जाकर बैठ गया। सामने अलमौड़ा कभी दिखता कभी लगता कि वहां कुछ कभी था ही नहीं। अतीत मधुमक्खीयों के झुंड की तरह लगता है... जब तक चलते रहो तो वह पीछे रहता है. जैसे ही कहीं बैठ जाओ तो वह आपको धर दबोचता है..। मुझे बारिश में पहाड़ इसलिए बहुत खूबसूरत लगते है क्योंकि यहां अतीत की मधुमक्खीयां आपको परेशान नहीं करती। अतीत धुंध में भटक जाता है.. मैं आगे कहीं निकल जाता हूँ...। सामने बादल का एक टुकड़ा अलमौड़ा पर कुछ इस तरह टंगा है जैसे लगता है कि किसी ने रस्सी से इस बादल को सुखाने के लिए डाला हो..। मैं पर्यटक नहीं हूँ.. पर मैं दृश्य भी नहीं हूँ। मैं बीच में कहीं डोल रहा हूँ। मैं शांति के लिए लड़ाई नहीं करना चाहता सो हिंसा में गोबर लीप रहा हूँ। क्या मैं यहां हूँ? मैं कब दृश्य हूँ? और कब उसे महज़ दूर से देखता हूँ? तभी एक वह पीली चिडिया दिखी.. और मैं रुक गया।

Friday, July 13, 2012

चाय या कॉफी...

हर लड़ाई के पहले बहुत देर तक सोचता हूँ कि स्टेक पर क्या है? यहां बहुत देर- क्षणिक है। सुबह-सुबह चाय पियूं या कॉफी... जूता पहनू या चप्पल... तेज़ चलू कि धीरे.... उठ जाऊं या बिस्तरे पर ही लोट-पोट होता रहूं? यह छोटे-छोटे चुनाव ही लड़ाई है। यह छोटे चुनाव और जीवन के बड़े-बड़े निर्णय बिल्कुल एक ही तरह के क्षणिक बिंदु पर टिके रहते हैं। दोनों पर एक ही बात लागू होती है.. स्टेक पर क्या है? बार बार यह सवाल गूंजता है। समस्या इस सवाल की नहीं है.... कुछ ही क्षण में हम अपने जवाब के बादल को लिए बारिश कर रहे होते हैं... समस्या इसके बाद शुरु होती है... चुनाव खत्म होते ही रंग बदल जाते हैं.... जो नहीं चुना वह दिमाग़ में रह जाता है और जो चुन लिया वह मेरे थके हुए जीवन का हिस्सा बन जाता है। ठीक इस वक़्त मैं चाय पी रहा हूँ... जबकि कॉफी दिमाग़ में है...। बाल्कनी में तकिये लगाकर बैठ गया कि पढ़ूंगा... The naïve and the sentimental novelist… नाम की किताब बाल्कनी में ले आया जबकि kafka on the shore बिस्तर पर पड़ी है, कल रात वह पढ़ते-पढ़्ते मैं सो गया था। हाथ में Orhan Pamuk है और दिमाग़ में Murakami….. दुविधा। मैंने चाय पीना बंद किया... लिखना बंद किया.. सीधे कॉफी बनाई और उसे बाल्कनी में लेकर आ गया...। साथ में Murakami को भी ले आया...। आप जीवन के बड़े-बड़े निर्णयों के साथा ऎसा नहीं कर सकते हैं...। अब Pamuk और Murakami … चाय और कॉफी... दोनों मेरे साथ हैं.. सामने हैं। जब मैंने अपने सारे options को अपने सामने पाया.. तो चीज़े कुछ ज़्यादा कांप्लेक्स हो गई। अब ना तो मैं कॉफी पी रहा हूँ ना चाय... दोनों किताबों के कवर पर आँखें जमाता हूँ... पर उठाता किसी को भी नहीं। नाटकीयता किस बात की है..? नाटकीयता तलाशने की है... अपने आपको चाय की जगह बिठाने की है... मानों मैं Murakami हूँ जो बाल्कनी में बैठे हुए खुद को देख रहा हूँ। हर चीज़ का अर्थ उसके होने में है.. भीड़ में रहकर अकेलेपन की कल्पना हमेशा सुख देती है.. पर अकेले में अकेलेपन का स्वप्न क्या है... यह दोगलापन है..। यात्राओं की कल्पना में जब भी अपने घर के दरवाज़े पर ताला लगाता हूँ तो दरवाज़ा वापिस खोलने का स्वप्न भीतर घर कर जाता है.... यह दूसरा बिंदु है..। दूसरे बिंदु का स्वन ही टाईम और स्पेस को पैदा करता है...। मेरी यात्रा का समय वह स्वप्न निर्धारित करना चाहता है....। मैं लगभग उसे फुस्लाते हुए कह देता हूँ कि करीब शाम तक.. या एक महिने बाद वापिस अपने घर का दरवाज़ा खोलूंगा...। इस दूसरे बिंदु के आते ही सब कुछ फिक्शन हो जाता है... यह सब एक कहानी में तबदील हो जाता है...। जिसकी शुरुआत मेरा घर में ताला लगाना है और अंत अपने घर का ताला खोलना है। अब यात्रा पर कौन निकला? मैं नहीं... ठीक अभी मैंने कॉफी और चाय दोनों को सिंक में उड़ेल दिया...। Murakami और Pamuk दोनों को वापिस बाक़ी किताबों के बीच फसा दिया...। एक नई शुरुआत... ’नई शुरुआत..’ इस शब्द के अपने स्वप्न है.. जिससे फिर टाईम और स्पेस पैदा होगा और फिर सब कुछ फिक्शन हो जाएगा... फिर मैं सिर्फ एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुंचता हुआ एक आदमी होंऊगा... और वह कोई दूसरा होगा जो कहानी का नायक है..। मैं नायक नहीं हूँ... मैं अपने शरीर का एक अंग हूँ... जिसका मैं नाम नहीं रखना चाहता..।

Saturday, June 9, 2012

बोर्ड के इस तरफ....

अज्ञये ने कहीं लिखा है कि ’कितना अच्छा हुआ कि हमने चौराहे पार कर लिये... अब चुनने के लिए हमारे पास कोई रास्ता नहीं है (ऎसा ही कुछ)’ मैं उस रास्ता चुन लेने के बाद की जद्दोजहद को लेकर कुछ दिनों से विचार-शून्य हूँ। विचार-शून्य इसलिए कि रास्ता चुन लेने के बाद मैं पिछले कुछ दिनों से कुछ अलग रास्तों की तरफ मुड़ लिया हूँ...। अब अपने रास्ते (लेखन) से प्रेम इतना प्रगाढ़ है कि जब भी दूसरे रास्तों पर होता हूँ, मेरे दिमाग़ में लगातार उसी रास्ते के ख़्वाब भरे रहते हैं … सिर्फ ख़्वाब, कोई विचार नहीं। बीच में कुछ समय निकालकर जब भी मैं वापिस उस रास्ते पर चलने की कोशिश करता हूँ तो एक साईन बोर्ड लगा दिखता है कि ’यह रास्ता आपके लिए बंद हैं’... मैं जानता हूँ कि यह रास्ता नाराज़ है मुझसे... गुस्साया हुआ है... मैं इसी का हूँ.. इसी के लिए बना हूँ...। खुद के चुने हुए रास्ते का यह ही संकट है कि जब हम खुद से ही बेईमानी कर रहे होते हैं तो संवाद-शून्य होते हैं...। मेरे पास अभी कोई भी ऎसे संवाद नहीं है कि मैं उस रास्ते को मना सकूं... मैं बस इंतज़ार ही कर सकता हूँ। मैं अभी इंतज़ार ही कर रहा हूँ... लगा था कुछ दिन लगेंगे... फिर दिन हफ़्तों महीनों में बदल गए… अब झूठ क्या कहूं इस बीच मैं दूसरे रास्तों पर भटक-भटक कर वापिस आता रहा हूँ। ’यह रास्ता आपके लिए बंद है’ का बोर्ड हटता ही नहीं है…। मैं ज़बर्दस्ति नहीं कर सकता… मैं बस सिर झुकाय उस बोर्ड के दूसरी तरफ के अधूरेपन को देख सकता हूँ…. वहां.. मेरी कहानीयां अधूरे बिंदुओं मोडों पर बिखरी पड़ी हैं.. नाटक अपनी नाटकीयता के साथ आधे-अधूरे से पेड़ों से लटके पड़े हैं। बस यह रास्ते के उस तरफ का अधूरापन ही उस रास्ते का मुझसे सवाल है जिसके जवाब मेरे पास नहीं है… मैं दे भी नहीं सकता। मेरा सिर झुकाना किसी ग्लानी के कारण नहीं है…. मेरा सिर उस पवित्रता के सामने झुक जाता है जो बोर्ड के दूसरी तरफ है… मैं अपवित्र हूँ.. मैं रोगी हूँ..। संवाद अगर मैं कर सकूं तो यह ही करुंगा कि आर्थिक दबाव था… क्या करुं.. दूसरे रास्तों पर भटकना पड़ा…। पर अर्थ की बात ही उस पवित्रता के सामने छिछली लगती है। मैं बस उससे इतना ही कह सकता हूँ कि मैं कमज़ोर था..। वह रास्ता एक तरीके का जीवन मांगता है... उस रास्ते पर गहरे जाने की लिए अपने जीवन को बहुत समेटना पड़ेगा... ख़ाली जगह के विस्तार को फिर से ख़ीचकर बढ़ाना पड़ेगा... और पता नहीं क्या क्या... पर चौराहो को पार कर लेने पर ही बात ख़त्म नहीं होती... बात चौराहों को पार करने के बाद शुरु होती है... ऎसी बातें जहां से भटक जाने पर संवाद असंभव है..। अब ’यह रास्ता अपके लिए बंद है’ के इस तरफ खड़े रहकर मैं बस इतना ही कुछ कह सकता हूँ.... इसके बाद शब्द फिर भारी होने लगे हैं... तारतम्य फिर टूट रहा है... मैं फिर भटकने लगा हूँ...।

Friday, May 4, 2012

त्रासदी... (भाग-दो)

’कंपते थे दोनों पांव बंधु...’ (कहानी त्रासदी का भाग-दूसरा यह रहा....) उसने सौलवें में कदम ही रखा था। देर रात चलने वाली कृष्ण लीला उसने कबीट का फल खाकर देखी... घर में आते ही एक थाली उठाकर उसे अपनी उंगली पर घुमाने की प्रक्टिस करने लगा। कृष्ण उसे भा गए थे... अपने दोस्तों में कृष्ण और गोपियों की लीला के किससे वासना में ढूबे हुए होने लगे... फिर किस्सों में कृष्ण हट गए और झूठे सेक्स के अनुभव सारे दोस्त एक दूसरे को सुनाने लगे...। वह अपनी जांघों के बीच हलचल महसूस करने लगा। इन सब बातों का अंत यूं हुआ कि उसने तय किया कि वह बासुरी बजाना सीखेगा। अशुतोष भाई के यहा वह गणित की ट्युशन पर जाता था... उसे याद था कि उनके कमरे में उसने हार्मोनियम रखा हुआ देखा था। आशुतोष भाई स्वभाव से ही गुस्से वाले आदमी थे....। एक दिन जब उसने आशुतोष भाई का मूढ़ थोड़ा ठीक देखा तो उसने उनसे कहा कि ’मैं संगीत सीखना चाहता हूँ... आप मार्गदर्शन करेंगें?’ आशुतोष भाई ने तुरंत अपना हार्मोनियम उठाया और कुछ बिना शब्द के आलाप जैसे चिल्लाने लगे... गणित की ट्युशन धरी की धरी रह गई और उसके कान सुन्न हो गए सो अलग। एक रविवार की दोपहर अचानक आशुतोष भाई घर आए.आपनी साईकल पर... उन्होंने उसे आवाज़ लगाई... बंटी..(उसके घर का नाम बंटी था।) वह भागा हुआ बाहर पहूंचा तो उन्होंने कहा कि चल तुझे अपने गुरु से मिलवाता हूँ...। उसने चप्पल पहनी और अपनी एटलस गोल्डलाईन सुपर लेकर आशुतोष भाई के पीछे हो लिया। वह शहर के पीछे की तरफ एक मुस्लिम बस्ती में पहुंचे.. वहां एक गली में आशुतोष भाई आकर रुके.. उन्होंने अपनी साईकल को स्टेंड पर लगाया.. उसमे ताला लगाया...। बंटी ने भी उनके ठीक पीछे अपनी साईकल लगाई.. उसमें ताला लगाया...। आशुतोष भाई ने इशारे से बंटी को घर दिखाया... बाहर बोर्ड लगा हुआ था... “संगीत...” और एक वीणा बनी हुई थी... वह बोर्ड लगता था कि किसी आदिम खुदाई में निकला है... हर तरफ से उसका रंग झड़ चुका था... वह बोर्ड खुद बड़ी सहजता से दीवार का हिस्सा लगने लगा था। भीतर छोटे से कमरे में अशुतोष भाई ने एक बहुत बूढ़े आदमी के पैर पड़े... उसने भी उस बूढ़े के पैर पड़े.... ’ददा.. यह बंटी है... तबला सीखना चाहता है।“ धोखा... कृष्ण.. गोपियां... अचानक बंटी के पैर ढ़ीले पड़ गए। उससे रहा नहीं गया और उसने कहा कि... ’नहीं... ददा मैं बासूरी सीखना चाहता हूँ।’ आशुतोष भाई ने धूरकर बंटी की तरफ देखा.. बंटी ने अपना सिर नीचे कर लिया...। वह बंटी के पास आए और उसके कान में उन्होंने कहा... ’तू ददा का मज़ाक उड़ा रह है...।’ बंटी ने तुरंत ना में सिर हिलाया... ’ददा के मुंह में दांत नहीं हैं.. शरीर में हवा खतम है... कैसे सिखाएगें तेरेको वह बासुरी...?’ अंत में बंटी के हाथ तबला लगा। ’धा.. धिन.. धिन.. धा...’ से संगीत शुरु हुआ। ददा थोड़ा बताकर सो जाते.. वह तबला पीटता रहता। तभी टी वी पर उसने उस्ताद ज़ाकिर हुसैन का ’वाह! ताज...’ वाला एडवरटाईज़मेंट देखा... उसके कृष्ण का बुखार काफूर हो गया और वह ’धा.. धिन.. धिन.. धा..’ की बजाए सीधा ’तिरकिट धा.. तिरकिट धा..’ बजाने लगा। ददा तिरकिट् पर नाराज़ हो जाते... ’यह क्या कुटुर-कुटुर करता है.. पहले सीधा तो बजा..’ इस बात पर पारुल को बड़ी हंसी आ जाती..। उसकी हंसी में संगीत होता... वह उसे सुनता और तुरंत तिरकिट धा.. तिरकित धा.. कर देता। पारुल गाति थी... वह उसकी संगत में तबला बजाता था। पारुल सुंदर सलवार-कमीज़ पहती थी...। एक दिन बंटी संगत करने उसके सामने बैठा था... तभी ददा को ख़ासी आ गई। आई (ददा की पत्नी) बाहर सब्ज़ी लेने गई हुई थी...। पारुल भीतर जाकर पानी ले आई.. वह भी खड़ा हो गया.. और ददा की पीठ पर हाथ फैरने लगा...। परुल ददा को झुककर पानी पिला रही थी.. तभी परुल की कमीज़ से उसने उसके वक्ष की एक झलक देखी..। कहीं से अचानक बंटी को मंद-मंद राग भोपाली सुनाई देने लगा... तभी उसे उस्ताद ज़ाकिर हुसैन दिखे... वह कृष्ण बनकर बासुरी पर राग भोपाली बजा रहे थे। सब कुछ थम गया... उसकी पलके भारी होने लगी... वह पूरा ज़ोर लगाकर उन्हें खुला रखना चाहता था.... पर वह बंद होना चाहती थीं....। वह इस दृश्य को भीतर गहरे में कहीं सजो लेना चाहती थी.. पर मन इस दृश्य को चखना चाहता था... खाना चाहता था... चबाना चाहता था। तभी अचानक पारुल ने अपना हाथ छाती पर रखकर अपने वक्ष को ढ़ांक लिया। बांसुरी बेसुरी हो गई... ज़ाकिर हुसैन गायब हो गए... वह जहां था वहीं बैठ गया। उस घटना के बाद कुछ भी सामान्य नहीं रहा.. उसकी निगाह पूरे वक़्त पारुल के वक्ष ही टटोलती रह्ती... वह उस दृश्य के पर पहुचने की कल्पना करने लगा। जब-जब उसकी निगाह पारुल से मिलती एक टीस उठती... असहनीय टीस.. मानों किसी ने हृदय पर एक धूंसा जड़ दिया हो...। दिन साईकिल के पहिये हो गए थे... जो बिना किसी हलचल के चलते रहते... दिन की साईकल अचानक संगीत क्लास में आकर रुक जाती.... और उसे लगता कि बस यही एक घंटे के लिए पूरा दिन होता है..सुबह होती है, शाम होती है, रात होती है.... इस एक घंटे दिन की साईकल रुक जाती है.... इसके खत्म होते ही... दिन की साईकल एक गोल चक्कर लगाती है.. जैसे पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है.... और वपिस यहीं इसी गली में रुक जाती है। कृष्ण लीला अब उसे बहोत पसंद नहीं आती.. कृष्ण आस-पास बहुत सी गोपियां होती.. ना.. यह ठीक नहीं है वह अपने दोस्तों से कहता... राधा और कृष्ण वाली बात उसे अच्छी लगती। जब भी वह पारुल के बारे में सोचता उसके जांधों के बीच वह हलचल महसूस करने लगता। एक दिन दिन संगीत क्लास के बाद उसने अपनी एटलस गोल्डलाईन सुपर... साईकल उठाई और घर की तरफ जाने लगा... पीछे से पारुल की आवाज़ आई... ’सुनो... रुको... साथ चलते है... तुम रोज़ भाग क्यों जाते हो..?’ वह रुक गया..। उसे पता था कि वह सिर्फ गली के अंत तक ही साथ चल सकते हैं.. उसके बाद वह दूसरी तरफ निकल जाएगी। ’कहाँ रहते हो तुम...?’ उसने चलते हुए पूछा... ’कसेरा बाज़ार में....’ ’कसेरे में कहां...?’ ’बाज़ार में...।’ उसने सहजता से जवाब दिया...। ’मैं भी आज उसी तरफ जा रही हूँ... मुझे महिला वस्तु भंडार जाना है...।’ तब पहली बार उसके पैर कपे थे...। उन दोनों के बीच में साईकल थी। वह कैसे पारुल को मना करे...। उसका घर बीच बाज़ार में है... लड़की के साथ चलते हुए सब लोग उसे देखेंगे...। वह महिला वस्तु भंडार के बगल में रहता है...। बंटी, छोटी, रग्धू, ठोंठा... बिक्की... सारे दोस्तों के चहरे उसके सामने धूमने लगे। उसके पैरों की कपकपी बढ़ गई। ’मेरा घर महिला वस्तु भंडार के पास ही है... मतलब बगल में है।’ ’अरे वाह! तो चलो तुम्हारा घर भी देख लेंगें...।’ और उसे अचानक अपना घर पहली बार गरीब लगने लगा। उसे अपने घर की दरारें याद हो आई...। ’तुम बहुत अच्छा तबला बजाते हो।’ ’अच्छा...।’ वह संवाद को कम से कम रखना चाहता था। उन दोनों ने अभी अभी बाज़ार में प्रवेश किया था। वह जितना हो सकता था उतना पारुल से दूर चल रहा था... उसने साईकल को भी बहुत अजीब ढ़ंग से पकड़ा हुआ था। कंधे कड़क थे... चहरे पर हवाईयां उड़ी हुई थी। लगभग हर आदमी उसे पहचान रहा था... धूर रहा था। उसने अपना सिर नीचे कर लिया...। बस वह महिला वस्तु भंडार के पास पहुंच ही गए थे कि तभी.... बंटी, छोटी, रग्धू, ठोंठा, बिक्की नहीं... उनसे भी खतरनाक चोटी... सामने से आता हुआ दिखा..। उसे मोहल्ले में ’चोटी पेपर’ कहते थे.. वह पूरे गांव की खबर रखता था.. और सारी खबरे... मसाला मारकर सबमें बांटता था...। ’ठीक है तो फिर कल मिलते हैं.. मेरा घर आ गया...।’ बंटी ने अचानक रुक कर कहा.. पारुल कुछ आगे निकल गई थी। चोटी.. उन्हें देखते ही सामने पान की दुकान पर रुक गया। ’अरे!! कौन सा घर है...?’ वह अपने घर के सामने खड़ा था पर उसने इशारा मुल्ला जी के घर की तरफ किया... जो उसके घर के ठीक सामने बना था। तीन मंज़िला.. मुल्ला जी ने यह घर अभी अभी बनवाया था। वह महिला वस्तु भंडार की तरफ बढ़ गई.. पर भीतर नहीं घुसी... वह पलटकर बंटी को देखने लगी। बंटी की एक निग़ाह चोटी पर भी थी जो पान की टपरी से हर एक हरकत नोट कर रहा था...। बंटी धीरे-धीरे मुल्ला जी के घर की तरफ बढ़ने लगा... उसने मुल्लाजी की घर के सामने अपनी साईकल खड़ी की... कुछ देर रुका.. देखा पारुल अभी भी महिला वस्तु भंडार के बाहर ही खड़ी है। चोटी समझ गया.. वह पान की टपरी से निकलकर थोड़ा बाहर की तरफ खड़ा हो गया.... वह एक नज़र पारुल पर डालता और एक बंटी पर...। बंटी, मुल्लाजी के घर की सीढ़ी चढ़ने लगा.. तभी उसके घर से उसकी मौसी बाहर निकल आई और उन्होंने चिल्लाया... ’बंटी बेटा कहां जा रहा है...?’ ’मौसे... वह...’ घबराहट में उसके मुंह से मौसी निकला...। सब खेल बिगड़ गया.. वह अपनी शर्मिंदगी छुपा नहीं पाया... और भागता हुआ अपने घर की तरफ बढ़ गया। मौसी की कुछ समझ में नहीं आया.... ’अरे साईकल वहां क्यों खड़ी कर दी...’ मौसी ने कहा पर तब तक बंटी दौड़ लगाता हुआ सीधा घर में घुस गया। चोटी हंसने लगा... पारुल महिला वस्तु भंडार नहीं गई.. वह वापिस अपने घर की तरफ चल दी...। चोटी उसे गली के अंत तक घूरता रहा। अकेले रहने की चाह पहली बार बंटी के भीतर उगी थी। वह कई दिनों तक संगीत क्लास नहीं गया, दोस्तों से नहीं मिला। वह पारुल के बारे में सोचता रहता... उसके वक्ष की तस्वीर उसके दिमाग़ में छप गई थी.. जब-जब पारुल के वक्ष दिखते उसके पैर कांपने लगते। एक दौपहर उसके कमरे का दरवाज़ा उसकी मौसी ने खटखटाया... आवाज़ आई कि कोई लड़की तुमसे मिलने आई है...। बंटी धबरहट के मारे सीधा बाथरुम में धुस गया... उसने जल्दी-जल्दी अपने बालों में पानी मारा, कंगी से बाल चिपाए और बाहर आ गया..। पारुल बाहर के कमरे में सोफे पर बैठी थी... बगल में मौसा जी एटलस लिए बैठे थे। मौसा जी को बड़ी आदत थी कि यह बताने की कि वह दुनिया के किस-किस देश में रहे हैं... वह भी उनके बगल में आकर बैठ गया..। पारुल ने उसकी तरफ यूं देखा मानों वह असल में मौसा जी से ही मिलने आई हो...। मौसा जी ने अपनी विदेश यात्राऒं में बंटी को भी शामिल कर लिया... बंटी यह बातें बचपन से सुनता आ रहा है सो वह कुछ खीजने लगा... पर चुप था..। उसके चहरे पर उस दिन के झूठ की शर्मिंदगी अभी भी थी। तभी भीतर से मौसी आईं और उन्होंने मौसाजी को किसी काम से बज़ार भेज दिया...। कुछ देर में मौसी भी चिल्लाती हुई चली गई कि मैं वर्षा की माँ से मिलकर आती हूँ। अचानक वह दोनों अकेले हो गए.. तब लगा कि असल में उनके पास कहने के लिए कुछ भी नहीं है.. बंटी पारुल को देखकर एक दो बार मुस्कुराया..पर पारुल गंभीर बनी रही... फिर अंत में पारुल ने कहा... ’तुम इतने दिनों से संगीत की क्लास में क्यों नहीं आए..?’ ’मैं कल से आऊंगा..’ फिर चुप्पी... ’अच्छा घर है तुम्हारा...।’ और वह चुप हो गया..। बंटी को रोना आने लगा.. अपनी गलती पर... वह उठा और अपने कमरे में चला गया। पारुल कुछ देर बाहर बैठी रही.. उसने बंटी को आवाज़ भी दी.... तीसरी आवाज़ पर बंटी का, रुंधे हुए स्वर में जवाब आया... ’आ रहा हूँ...।’ पारुल उठकर उसके कमरे में गई.... वह बाथरुम में था...। ’बंटी क्या हुआ...।’ ’मुझे माफ कर दो उस दिन मैंने झूठ कहा था घर के बारे में...’ ’अरे जाने दो... तुम बाहर तो आओ..’ ’मुझे माफ कर दो.. बस..’ ’अरे कर दिया माफ.. मुझे तो लगा शायद तुम्हारी तबीयत खराब है.. इसलिए पूछने आई.. ददा भी परेशान थे कि तुम अचानक नहीं आ रहे हो?’ उसने बाथरुम का दरवाज़ा खोल दिया..। बाहर आया तो वह पसीने-पसीने था। पारुल ने अपनी चुनरी से उसका चहरा पौंछा...। ’बच्चे हो तुम बिलकुल...’ अचानक बंटी ने उसके वक्ष को अपने बहुत करीब पाया..। उसके पैर बुरी तरह कांपने लगे..। पैर उसके शरीर का बोझ उठाने में असमर्थ थे... वह लड़खड़ाने लगा...। पारुल ने उसे पकड़ लिया..। जैसे-कैसे पारुल उसे पंलग तक ले गई। बैठते ही उसने अपने दोनों हाथ अपने घुटनों पर रख दिये.. पर घुटनों का कंपन बंद होने का नाम नहीं ले रहा था। पारुल को यह बहुत अजीब लगा.. उसने उसके घुटनों को छुआ.. छुते ही उसे गुदगुदी महसूस हुई वह हंसने लगी। उसने अपने दोनों हाथों से उसके घुटनों को रोकने की कोशिश की पर वह कंपे जा रहे थे...। उसकी हंसी में बंटी भी थोड़ा सहज हुआ... वह भी अपने घुटनों के इस तरह कांपने पर हंसने लगा। पारुल अचानक नीचे बैठ गई और उसने अपने दोनों हाथों से कस कर घुटने को जकड़ लिया... कंपना अब रह रह कर हो रहा था.. मानों उसका दिल उतरकर घुटने में आ गया हो... उसके घुटने धड़कने लगे थे। पारुल की हंसी अचानक रुक गई...। वह धीरे से उसके बगल में बैठ गई...। बंटी ने कांपते हाथों से उसकी कलाई को पकड़ा.. वह चुप रही.. उसने कलाई से अपने हाथ को धीरे धीरे खिसका कर उसके चहरे की तरफ ले गया...। ’यह क्या कर रहे हो बंटी..?’ यह क्या कर रहे हो बंटी सुनते ही उसके घुटनो का कंपन्न बंद हो गया और उसने अपनी जांघों के बीच हलचल महसूस की...। पारुल के दोनों हाथ मृत पड़े थे... ’बंटी यह ठीक नहीं है...’ यह सुनते ही अजीब सा ज्वर बंटी ने महसूस किया...। उसने पारुल को अपने बिस्तर पर लिटा दिया... और उसके ऊपर चढ़ गया। पारुल ने अपनी आँखे बंद कर ली... बंटी उसे बुरी तरह चूमने लगा...। कुछ देर बाद उसे पारुल के वक्ष याद आए... उसने चुनरी को खींचकर अलग कर दिया। चुनरी हटते ही वह क्या करे उसकी समझ में नहीं आया...। तभी पारुल की सांसे रुकने लगी... वह असहज हो गई.. वह अपने हाथों के ज़ोर से बंटी को अलग कर देना चाहती थी... पर बंटी पर पागलपन सवार था..। तभी उसे ध्यान आया कि घर के सारे दरवाज़े खुले हुए हैं...। वह दरवाज़ा बंद करने के लिए उठा तभी उसे मौसा जी भीतर आते हुए दिखाई दिये और सब खत्म हो गया। वह भागता हुआ, डर के मारे कमरे से बाहर निकल आया... उसने पारुल को वहीं... वैसा का वैसा छोड़ दिया। मौसा जी उसे सामने दिखे... उसे समझ में नहीं आया कि वह क्या कर तो वह सीधा किचिन में चला गया। मौसा जी वहीं खड़े रहे... पारुल उसके कमरे से निकली और सीधे घर के बाहर निकल गई। मौसा जी सन्न खड़े रहे... उनकी कुछ समझ में नहीं आया कि क्या हुआ? बहुत दिनों के बाद एक शाम मौसा जी ने बंटी से माफी मांगी थी। बंटी को पहली बार महसूस हुआ कि खुद के भीतर एक भरा पूरा संसार है। उसका संसार नदी की तरह है। जब गोता लगाओ तो पता लगता है.. बहुत गहरे सब कुछ हरा है.. और उस हरेपन के भी परे सब अंधेरा है...। वह भीतर जाता जा रहा था... भीतर अंधेरे के करीब उसे अपनी ही दो आँखे दिखती थी.. खुद उसको देखती हुई...। वह डर जाता... पर उसे रहस्य में सुख दिखने लगा था...। उसे दो आँखों के अगल-बगल पारुल के वक्ष भी दिखाई देते हैं.. पर उनके दिखने से उसके पैर नहीं कांपते..। पारुल का सामना करना खुद अंधेरे में अपनी आँखों का सामना करन जैसा था... वह डरता था.. सो बहुत दिनों तक वह संगीत क्लास नहीं गया। एक दौपहर वह संगीत क्लास के सामने खड़ा था। भीतर से पारुल के गाने की आवाज़ आ रही थी। तीन-ताल... वह इस उसकी इस राग पर तीन ताल बजाता था... तीन ताल बज रहा था। उसे आश्चर्य हुआ कि उसकी जगह किसने ले ली... वह भीतर पहुंचा तो आशुतोष भाई तीन ताल बजा रहे थे। वह एक कोने में जाकर बैठ गया। पारुल ने गाते हुए उसको कुछ युं देखा जैसे जानती ही ना हो... आशुतोष भाई ने उसकी उपस्थिति भी दर्ज नहीं की। बंटी को लगा कि उसका आना किसी को ठीक नहीं लगा... राग खत्म होने पर आशुतोष भाई ने पारुल की तारीफ की... ददा ने उसक हाल पूछा... पारुल चुप रही...। कुछ देर में पारुल उठी, उसने ददा के पैर छुए.. और बाहर निकल गई... वह भी उठा.. उसने ददा के पैर छुए और जाने को हुआ... ’सुनों बंटी तुम रुको.. तुमसे बात करनी है...।’ पारुल बाहर उसके चलने का इंतज़ार कर रही थी..। वह दहलीज़ पर खड़ा रहा.. उसने पारुल को देखा... पारुल समझ गई..। वह मुस्कुराई और अकेली जाने लगी। बंटी की इच्छा हुई कि वह तबला उठाकर आशुतोष भाई के सिर पर मार दे और पारुल के साथ चला जाए.... पर नहीं.. अच्छे लड़के ऎसा नहीं करते.. वह डरते हैं.. वह डरपोक होते हैं.. वह भी अच्छे लड़के होने की लाईन में था... पूरा बचपन इसी संघर्ष में बीता था... और उसे पता था कि वह ऎसा ही बीतेगा। वह एक अच्छे लड़के की तरह दहलीज़ के इस तरफ ही रहा.... उसने दहलीज़ पार नहीं की...। आशुतोष भाई ने ददा के पैर छुए और बंटी को अपने साथ चलने का इशारा किया। बंटी आदेशानुसार उनके पीछे हो लिया.... गली में उनकी बात चीत... ’तो कैसा चल रहा है संगीत?’ आशुतोष भाई बोले... ’सही... ठीक.. अच्छा।’ हकलाते हुए उसने कहा... ’पारुल अच्छी लड़की है।’ ’हें!!!’ ’क्यों तुम्हें अच्छी नहीं लगती?’ ’हाँ.. मेरा मतलब है कि.. अच्छा गाती है।’ ’अच्छा तुम्हें उसका गाना अच्छा लगता है?’ ’ठीक गाती है आशुतोष भाई...।’ ’क्यों तुम अच्छा बजा लेते हो?’ ’हें!!!’ ’उसे संगत देते हो ना!! ददा बोल रहे थे खुद को ज़ाकिर हुसैन समझते हो तुम।’ ’मैं??? नहीं भईया।’ ’पारुल के बाप के बारे में जानते हो?... डॉक्टर है वह.... अंग्रेज़ी कुत्ते हैं उनके घर में... पारुल अपने कुत्तों से भी अंग्रेज़ी में बात करती है..। तुम्हें माय नेम इज बंटी के अलावा कुछ और कहना आता है?’ बंटी समझ गया था कि यह बात कहां जा रही है... वह अपनी शर्ट के तीसरे बटन को देखने लगा... और मौन हो गया...। वह अब पश्चाताप कर रहा था... काश वह पहले ही तबला उठाकर आशुतोष भाई के सिर पे दे मारता तो अभी इन सारे सवालों का उसे सामना नहीं करना पड़ता। ’हें....!!! क्या हुआ!! जवाब दो!! कितनी अंग्रेज़ी आती है तुम्हें...। कहीं पारुल के कुत्तों को घुमाना पड़ा तो माय नेम इज बंटी से काम नहीं चलेगा... क्या? पारुल के कुत्ते घुमाना चाहते हो?’ ’मैं क्यों घुमाऊंगा उसके कुत्तों को... भाईया?’ ’अच्छा तो उसे घुमाना चाहते हो?..... हें??? क्या कह रहा हूँ.. सुन रहे हो?’ आशुतोष भाई की आवाज़ में गुस्सा भर गया था। बंटी की ठुड्डी कांपने लगी थी... आँखें पाने फेंकने लगी थी। ’उस बेचारे बूढ़े आदमी के सामने.. जिसे दिखता भी कम है.. तुम यह सब घटिया काम कर रहे हो? हें? क्या उम्र है तुम्हारी...? तबला सीखने निकले थे जनाब पर सीख कुछ ओर ही गए... क्या करें?’ बस इस बात पर बंटी आपने आंसूओ को रोक नहीं पाया... वह ज़ार-ज़ार रोने लगा। आशुतोष भाई अब चुप हो गए थे... उन्होंने बंटी को उसके घर तक छोड़ा... घर के सामने रुककर उन्होंने बंटी के सिर पर हांथ फैरा और कहा... ’वह सामने मुल्ला जी का घर है... तुम्हारा घर यह है.. पता है ना तुम्हें?... कल से सुबह का समय करा लो... और तबला बजाने पे ध्यान दो...।’ बंटी अच्छे लड़के की तरह चुपचाप आशुतोष भाई की बातें सुनता रहा...। कुछ देर में सिर नीचा करके वह घर में घुस गया। उसे लगा कि इस पूरे गांव में वह सबसे पापी लड़का है..। वह इस बात का पश्चाताप करना चाहता था। उसने मौसा जी से पाप के प्राश्चित के संबंध में बातें की... मौसा जी ने के कहा कि काले महादेव पर जाओ और सच्चे मन से यदी माफी मांगोगे तो वह माफ कर देंगें...। मौसा जी के कहने पर वह हर दौपहर काले महादेव पर जाकर बैठ जाता.... घंटों माफी मांगता.. पर पारुल के वक्ष हर कुछ देर में उसे अपनी आँखों से सामने दिखने लगते... वह खुद का सिर पीटता... फिर काले महादेव से माफी मांगता कि देखो आपके पास भी मैं वही सब सोच रहा हूँ.. कितना बड़ा पापी हूँ मैं....। उसे लगा कि इस पाप से शायद छुटकारा नहीं है... उसे कुछ ओर करना पड़ेगा..। उसका खाना पीना सब गड़मड़ हो गया था... आँखों के नीचे गहरे काले गढ़ढ़े उभर आए थे.... पर वह रोज़ सुबह संगीत क्लास में जाता था... ददा जो कहें वह उसे आँखें नीची करके स्वीकार कर लेता था। उसे ज़ाकिर हुसैन या कृष्ण.... कुछ भी नहीं बनना था... वह गायब हो जाना चाहता था.. अदृश्य... बहुत अधिक गुस्से में वह कल्पना करता कि वह अशुतोष भाई के सिर पर तबले फोड़ रहा है... पर यह भी उसे बहुत गहरे पाप से भर देता... वह फिर इस पाप का प्राश्चित करने काले महादेव पर जाकर बैठ जाता। एक सुबह वह बेमन तबला पीट रहा था कि उसे दरवाज़े पर पारुल खड़ी दिखी..। एक टीस उठी.. मानों किसी ने एक कील उसके हृदय में गाढ़ दी हो...। बंटी का चहरा बिगड़ गया.... पारुल उसके सामने नहीं बल्कि बगल में आकर बैठ गई...। ददा उसे देखकर खुश हो गए...। वह काले महादेव को भूल गया.. अपने सारे दिनों के प्राश्चित भूल गया...। उस दिन जो बंटी के कमरे में घटा था वह अब बंटी और पारुल का राज़ बन गया था... पर वह राज़ भी रहस्य था दोनों के लिए.. उस रहस्य एक तार की तरह दोनों को एक दूसरे की तरफ खींच रहा था। बंटी के पास पारुल को सीधे देखने का साहस नहीं था... पर वह वापिस सांस ले सकता था... उसे भूख लगने लगी थी... उसे लगा कि पता नहीं कितने दिनों से उसने खाना नहीं खाया है...। पारुल ने गाना शुरु किया और वह तबले पर ज़ाकिर हुसैन बन चुका था...। संगीत क्लास के बाद दोनों गली के छोर तक चुप-चाप पहुंच गए। बंटी दांए मुड़ गया और पारुल बांए...। दांए मुड़ते ही बंटी ने एक गहरी सांस बाहर छोड़ी... जैसे वह अभी तक सांस रोके चल रहा था... तभी पारुल ने आवाज़ लगाई...। ’बंटी... मुझे महिला वस्तु भंडार पर कुछ काम है.. मैं तुम्हारे साथ चलूं?’ बंटी ना कहना चाहता था पर उसका सिर हा.. में हिल गया...। पारुल उसके साथ हो ली...। इस बार बंटी को डर नहीं था.. उसके दिमाग़ में उसका एक भी दोस्त नहीं आया... वह मुस्कुरा रहा था...। इसी बीच पारुल ने अपने संगीत के रजिस्टर से निकालकर उसे एक मोर का पंख दिया... ’यह मैं अगले दिन तुम्हारे लिए लाई थी.. पर तुमने तो आना ही बंद कर दिया था.. तो...’ ’बहुत सुंदर है यह...।’ बंटी ने बात काट दी.. और मोर के पंख को निहारता रहा। ’एक चीज़ और है...!!!’ उसने अपने बेग़ से एक छोटी सी डायरी दी...। यह भी तुम्हारे लिये है...। बंटी ने देखा उस डायरी के पहले पन्ने पर कुछ लिखा है जिसे पढ़ने की उसकी हिम्मत नहीं हुई..। उसने सीधा उस डायरी को जेब में रख लिया। ’एक चीज़ और है...!!!’ उसने बेग़ से एक पेन निकाला। ’बस मैं इतनी सारी चीज़े नहीं ले सकता।’ ’रख लो तुम्हारे ही लिये हैं...।’ बंटी ने पेन भी रख लिया। उस पेन पर किसी दवाई की कंपनी का नाम लिखा था.. फिर उसे याद आया कि उसके पिताजी डॉक्टर हैं... और उसे अचानक आशुतोष भाई की बातें याद हो आईं। ’तुम्हें पता है ना कि मुझे अंग्रेज़ी नहीं आती है?’ ’क्या...?’ ’और मुझे कुत्ते भी बहुत पसंद नहीं हैं।’ पारुल की कुछ समझ में नहीं आया। बंटी घोषणा कर चुका था... सो हल्का होकर मुस्कुरा रहा था.. पारुल हंसने लगी.. वह भी उसके साथ हंसने लगा। महिला वस्तु भंडार पर पारुल कुछ देर चूड़ियों के दाम पूछती रही.. फिर बिंदी का एक पत्ता लेकर वह वापिस हो ली। बंटी नए कपड़े बदलकर अपने घर के दरवाज़े पर खड़ा था। पारुल बंटी को देखकर हंस दी...। बंटी ने भीतर जाते ही पाकेट डायरी खोली.. खोलते ही उसे डर लगा सो उसने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर दिया। पहला पन्ना पलटाया... उसपर लिखा था.. ’तबलची बंटी के लिए...’ और नीचे एक हंसता हुआ चहरा था। उसी पन्ने के आखिरी कोने पर उसने अपना नाम लिखा था.. पारुल...। बंटी रात भर मोर के पंख को अपने सिरहाने रखकर निहारता रहा। उसके दिनों में जैसे किसी ने शक्कर घोल दी हो... हर चीज़ मीठी थी... हर उपस्थिति पूर्ण थी। अगली सुबह वह पारुल के सामने बैठा था..। पारुल ने देखा कि उसका दिया हुआ पेन बंटी ने अपनी शर्ट की जेब में खोसा हुआ है। ददा उसे नई ताल सिखा रहे थे.. पर उसका ध्यान पारुल पर था। तभी आशुतोष भाई दरवाज़े पर प्रगट हुए। कभी-कभी सपने बड़ी बेरहमी से टूटते हैं... उनके टूटने की आवाज़ सालों तक कान में गूंजती रहती है। इसके बाद सब कुछ शांति से निपट गया। आशुतोष भाई ने फिर बंटी के साथ चलते-चलते प्रश्नों की झड़ी लगा दी... बंटी फिर रोया.. फिर पचताया.. इस बार वह आशुतोष भाई के सिर पर तबले के साथ-साथे हारमोनियम भी फोड़ देना चाहता था। अंत में आशुतोष भाई अड़ गए कि वह तुम्हारी गुरु बहन है... अपनी बहन के साथ तुम.... इसके बाद बंटी को कुछ सुनाई नहीं दिया... बंटी ने अंत में कहा कि... ’पारुल बहन है मेरी.. आशुतोष भाई... माफी...’ तब जाकर आशुतोष भाई शांत हुए..। बात काले महादेव के हाथों से छूट चुकी थी... बंटी को लगा कि वह माफी मांगने लायक नहीं है...। इन सब बातों का सिला यह हुआ कि उसने पहली फुर्सत में संगीत को जीवन से अलविदा कहा... और उस वक़्त के फैशन के हिसाब से वह बाज़ार से सलफाज़ की गोलियां खरीदकर ले आया....। कई रात वह उन गोलियों को अपने तकिये के नीचे रखकर सोया... गहन उदासी के लम्हों में वह उन्हें निकालकर देखता... और वापिस रख देता। एक शाम मौसा जी उसके कमरे में आए... बंटी अपने पलंग पर चित्त पड़ा था। मौसा जी ने उसके कंधे पर हाथ रखा वह हड़बड़ाकर उठा... ’मैं घाट धूमने जा रहा हूँ... तबियत कुछ नासाज़ लग रही है.. तुम चलोगे...?’ बंटी बिना कुछ कहे उनके साथ चल दिया। वह दोनों नदी किनारे बैठे थे.. आरती का समय हो गया था... पीछे मंदिर में आरती और घंटो की आवाज़ सुनाई दे रही थी। बंटी बहुत शांत था... मौसा जी को रज्जू की दुकान के पेड़े बहुत पसंद थे.. आते वक़्त वह पाव भर खरीद लाए थे...। अपने हिस्से के पेड़े वह खा चुके थे.. बंटी के हिस्से के पेड़े अभी भी वैसे ही पड़े थे। बंटी उन्हें चखकर भूल गया था। ’अरे बंटी... पारुल मिली थी बाज़ार में.. मुझे लगा उसने मुझे पहचाना नहीं... या शायद भूल गई हो...।’ मौसा जी ने ज्यों ही पारुल का नाम लिया बंटी भभक कर रोने लगा। बंटी शर्म के मारे नदी पर चला गया और अपना मुँह धोने लगा। मौसा जी अपने जगह पर ही बैठे रहे। बंटी के हिस्से के पेड़े उन्होंने उठाकर अपने पास रख लिये..। कुछ देर में बंटी वापिस आया... मौसा जी चुप रहे... बहुत देर तक कोई कुछ नहीं बोला...। असहजता मौसा जी से बर्दाश्त नहीं हुई सो वह पेड़े खाने लगे..। ’मैं बहुत परेशान हूँ मौसा जी..।’ अंत में बंटी बोला... ’क्या बात है...?’ ’जाने दो...’ ’बड़ी ज़ालिम उम्र में हो.. इस वक़्त बहुत कुछ कर गुज़रने का मन करता है.. प्रेम से लेकर रेवेल्यूशन तक सब कुछ...सब कुच लगता है कि मुठ्ठी में है.. तुम मुठ्ठी खोलोगे और वह सब वहां पड़ा मिलेगा जो भी तुमने सोचा था... और मज़े की बात है कि मिलता भी है... पर हर चीज़ जो मिलती है उसकी एक क़ीमत होती है.. वह क़ीमत चुकानी पड़ती है.... उसका कोई पार नहीं है...। सच कहता हूँ यह ज़िंदग़ी बहुत लंबी है... हद से ज़्यादा लंबी... बहुत टाईम है तुम्हारे पास... इतनी जल्दी मुठ्ठी मत खोलो...।’ इन शब्दों ने बंटी पर बहुत असर छोड़ा...। बंटी खुद को मौसा जी के बहुत करीब महसूस करने लगा। संगीत... कृष्ण... उस्ताद ज़ाकिर हुसैन... वह सब भूल चुका था... पर पारुल उसे याद थी...। उसका दिया हुआ पेन, मोर का पंख और डायरी... सब वह अपने पास रखता था.. संभालके। एक दिन पारुल, महिला वस्तु भड़ार के बहाने बंटी के घर आई...। मौसा जी ने उसे अंदर बुलाया.. चाय पिलाई.. जब उसने बंटी के बारे में पूछा तो.. मौसा जी ने उसे बताया कि वह तो शहर जा चुका है.. उसका एडमिशन बोर्डिंग स्कूल में हमने करा दिया..। पारुल ने चाय वहीं छोड़ दी और वह उठकर चली गई। मौसा जी और बंटी ख़तों से एक दूसरे के संपर्क में रहते थे.. पर मौसा जी ने कभी बंटी को पारुल के आने की बात नहीं बताई..।

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल