Sunday, December 16, 2012

किंगफिशर....

क्या मैं बता सकता हूँ कि आज किंगफिशर आया था। खोज रहा था कुछ... बीच झाड़ी में पहली बार उसकी अस्थिरता देखी..। वह फिर चला जाता और बहुद देर बाद किसी अलग टहनी पर कुछ खोजता हुआ दिखता। क्या मैं खुद को देख रहा हूँ... क्या वह मैं हूँ और बार बार भीतर कमरे में बहुत देर घूमकर वापिस बाहर कुछ खोजने लगता हूँ... जबकि वह स्थिर वहीं एक जगह बैठा है। क्या मैं बता सकता हूँ कि चाय का स्वाद बदल गया है... मैं कई बार अपनी जीभ जला चुका हूँ...। हर बार शाम के वक़्त कॉफी निकालता हूँ और बनाना भूल जाता हूँ। एक टहनी से दूसरी टहनी पर दृश्य नहीं बदलता है.. सारा का सारा वैसा का वैसा ही दिखता है...। मैं कहता हूँ कि बदल गया हूँ पर हर बार वही... वैसा का वैसा टहलता हुआ दिखता हूँ। क्या मैं कह सकता हूँ कि मैंने सपने में अपनी बाल्कनी में झूला देखा था। उसमें एक सुंदर चर-मर की आवाज़ हो रही थी... मर ज़्यादा सुनाई दे रही थी...। क्या मैं कह सकता हूँ कि कुछ रातें डरावने सपने लिए आई थीं.... मैं देर तक आँखे टपकाए खोजता रहा उसे जिसे मैं देखना नहीं चाहता था..। क्या मैं कह सकता हूँ कि दिनभर एक गाना निरंतर चलता रहता है... उस सीमा तक कि वह चुप्पी में शामिल हो जाए। मैं घर में रहता हूँ बाहर दिखाई दिये जाने का खतरा है... मैं दिख जाऊंगा.. मैं देख लूंगा...। क्या मैं कह सकता हूँ मैं खुद को बचाए रखने की कला की वजह से डरपोक हो गया हूँ... मैं घबरा जाता हूँ बहुत जल्दी..। सबके सामने कैसे पेश आना है के हुनर मैंने कभी सीखे नहीं... मेरे हुनर गरीब हैं। क्या मैं कह सकता हूँ कि मैं थक गया हूँ... अपने लेटे रहने से.. अपने चल देने से... अपने होने से... और बहुत देर तक नहीं होने से...। क्या मैं कह सकता हूँ।

6 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

मन में अब भी लगता है कि कुछ नहीं बदला है।

Pratibha Katiyar said...

थक गया हूँ अपने होने से....

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मानव

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परिचय

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल