Friday, August 30, 2013

नाम “गुड्डू” निकला... (पिछली पोस्ट से जुड़ा हुआ....)

आह!!! उस चाय वाले का
मेरे पूरे शरीर ने उसका नाम सुनते ही ‘नहीं ई ई...’ चीख़ा। इसलिए शायद लेखक जिसके बारे में भी लिखना चाहते हैं... उसका नाम वह खुद ही रखते थे। किसी के होने से ही उसकी कहानी घट रही होती है...। सुबह की लंबी walk समुद्र पर रुकी....। सुबह छ: बजे समुद्र उफान पर था.... पानी की आवाज़ भीतर घट रहे संसार को संगीत दे रही थीं... मैं शांत बैठा रहा। दूर एक अकेली लड़ी बैठी हुई थी..... सिर पर चुनरी ओढ़े.... अपनी गुलाबी चप्पलों को बगल में रखे हुए वह अपना सिर घुटनों में दबाए हुई थी। बीच-बीच में वह समुद्र की तरफ देख लेती.. मैं उसकी चुनरी में से उसका चहरा देखने की कोशिश कर रहा था... चहरे के बिना कैसे कहानी जानी जा सकती है....। सुबह छ: बजे मेरे अलावा वह ही थी उस Beach पर.... सो मेरी जिज्ञासा, हर उसके सिर उठाने पर उसके सामने कूद जाना चाहती थी। मैंने सोचा मैं अपनी उपस्थिति दर्ज कराता हूँ.... कुछ गाकर... ख़ांसकर... अचानक हंसकर... या इन पत्थरों पर गिरने का अभिनय करके...। मैंने कुछ नहीं किया...। असल में इस सुबह में बहुत शांति है... सिर्फ पानी की आवाज़ है.. मैं उस पवित्रता में और कुछ भी नहीं हिंसक नहीं देख सकता था। मैंने उस लड़की की तरह पीठ मोड़ ली..... हम दोनों अपने अपने-अपने एकांत के साथ पूरे संसार के सामने बैठे थे...। एक बारको मुझे लगा कि मैं असल में पृथ्वी के ऊपर बैठा हूँ..... और पूरे ब्रंम्हांड को अपने सामने देख रहा हूँ... और दूसरे तरफ वह गुलाबी चप्पल वाली लड़की है जो मेरी ही तरफ पृथ्वी के ऊपर बैठी है पर वह ब्र्ह्मांड नहीं वह धरती के गर्भ में कहीं झांकने की कोशिश कर रही थी...। अचानक मुझे उसका धरती का मूल टटोलना मेरे ब्रह्मांड बांचने से ज़्यादा सुखद लगने लगा...। मैंने उसकी तरफ पलटा... और चौंक पड़ा वह मुझे देख रही थी.... और सब बिख़र गया... वह भी “गुड्डू...” निकली...। उसके हाथ में मोबाईल था वह गाने और मेसेज़ कर रही थी..... उसके देखने में एक दूसरी कहानी थी... जो इस सुबह की मेरी कहानी में दर्ज नहीं हो पा रही थी। मैं उठा और वहां से तुरंत चल दिया...। हमेशा दिमाग़ में इस तरह एक अजान लड़की को देखकर लगता है कि आज मैं पहली बार जीवन में किसी ऎसी लड़की से मिलूंगा जिसका मैं बरसों से इतंज़ार कर रहा था....। जो घटक की फिल्म से सीधा निकलकर आई हो... जो इतने सालों टेगोर की कहानी कविता में भटकर रही थी ... आज सुबह छ: बजे मैंने Beach पर उसे देख लिया है....। बस ठीक उसे वक़त मुझे वहां से निकल जाना चाहिए था... और अपनी डॆस्क पर बैठकर एक कहानी लिख देनी थी.... ’सुबह के घटने में उसका होना....’। पर मैंने ऎसा नहीं किया.... मुझे उत्सुक्ता थी...कुछ दूसरा देखने की.... कहीं कुछ छिपा बैठा है उसे ढूंढ़ निकालने की... कुछ नया आश्चर्य वगैहरा-वगैहरा। “जो मुझसे नहीं हुआ... वह मेरा संसार नहीं....” (कहीं पढ़ा था... याद आ गया।) वापसी में लगभग अलग-अलग टपरियों पर चाप पी.... गुरुद्वारे भी मथ्था टेक लिया वहां भी चाय मिल गई। वापिस आकर पहली बार मैंने ’सुबह’ Coetzee का लेटर पढ़ा..... मातृभाषा पर... उसमें Derrida की किताब का ज़िक्र है... Monolingualisam of the Other – 1996… यह किताब बहुत इंट्रस्टिंग लग रही है..। एक बार किसी ने शमशेर से मातृभाषा के ऊपर कुछ पूछा था... तो उनका जवाब था कि इस दुनियां में बोली जाने वाली सारी भाषांए हमारी मातृभाषा हैं। मुझे यह जवाब बहुत सुंदर लगा था... और कुछ इसी तरीक़े की पर पेचीदगी के साथ Derrida की किताब होगी जिसे पढ़ने में मज़ा आएगा.. क्यों कि वह बहुत सारी भाषा के जानकार थे। इसके बाद अचानक मेरी निग़ाह एक पुरानी ख़रीदी हुई किताब पर पड़ी जिसे जल्द पढूंगा की अलमीरा में रखा हुआ था... THE MASATER OF GO-YASUNARI KAWABATA… अभी इसे शुरु किया है...। “IT IS EASY TO ENTER THEE WORLD OF THE BUDDHA, IT IS HARD TO ENTEER THEE WORLD OF THE DEVIL.”

सुबह...

पिछले कुछ दिनों से PAUL AUSTER AND J.M. COETZEE बीच में हुए पत्राचार पढ़ रहा हूँ। साथ में कुछ दूसरी किताबों में दूधनाथ सिंह की ’लौट आ ओ धार..’ पता नहीं कहां से फिर छोले में साथ हो ली है। मुझे यह नाम बहुत पसंद है... HERE AND NOW… दो बड़े लेखक... खेल, लेखन, अर्थशास्त्र, दोस्ती... बूढ़ा होना... हर विषय पर कितनी सरलता से लिख रहे हैं। मैं इस किताब को रोज़ लगभग ऎसे पढ़ता हूँ कि एक ख़त मुझे भी आया है आज...। सुबह मैं PAUL का जवाब/ ख़त... पढ़ता हूँ और शाम का इंतज़ार करते हुए अपनी बाल्कनी में शाम की चाय के साथ Coetzee को। मैंने शाम Coetzee को क्यों पढ़ता हूँ मुझे नहीं पता...। मैंने कभी Paul के ख़त शाम को नहीं पढ़े...। कैसे लेखक संगीत की तरह हैं... जिस संगीत को सुनकर हम सुबह उठना पसंद करते हैं... उस संगीत को हम अपनी शाम के होने में शामिल नहीं करना चाहते....। बहरहाल...मैं इन दोनों के बीच डॉकिया जैसा कुछ हो गया हूँ..... नहीं डॉकिया नहीं... लेटर बाक्स...। ठीक इस वक़्त रात के तीन बज रहे हैं...। बाहर अभी ज़ोरों की बारिश शुरु हुई... मैं ’लेटर बाक्स’ शब्द लिखकर मुस्कुराया.... इस शब्द पर भी और बारिश के बुलावे पर भी...तुरंत बाल्कनी में भागा...। फिर याद आया कि चाय का कप तो टेबल पर ही छूट गया है। वापिस आया और चाय का कप लेकर बाल्कनी में बैठ गया। बहुत हल्की बारिश की फुहारें चहरे पर पड़ रही थी.... पूरी कालोनी में सन्नाटा था...। मैं बची-कुची आवाज़ों पर ध्यान देने लगा..। आंवले का पेड़ अपनी पत्तीयां छोड़ रहा है.... बाल्कनी के नीचे मानों पीला कालीन बिछ गया है। मैं वापिस भीतर आया मानों मुझे कुछ याद आया हो और मैंने वान गॉग के कुछ पत्र पढ़ ढ़ाले... “मुझ पर भरोसा रखना....”। हर बार एक अजीब आदत सी पड़ी है कि खुद को समेट लो...। झाड़ू लगाकर सारे बिखरे हुए को एक तरफ कर दो...। दो बजकर पैंतिस मिनट पर नींद खुली थी... मैं फिर सो जाता तो समेट लेता खुद को.... मैं उठ बैठा... लिखना, चाय, बारिश और चुप्पी....। अभी कुछ देर में मैं नीचे जाऊंगा... सुबह होने को देखने... कालोनी के गेट पर एक चाय वाला है जो सुबह.... पांच बजे दुकान खोल देता है। पीले बल्ब की रोशनी में जब वह मुझे सुबह-सुबह आता हुआ देखता है तो मुस्कुरा देता है...। शुरु कुछ दिनों में मुझे लगता था कि वह मेरे ऊपर हंस रहा है.... (इस शहर में आप अपने अकेलेपन पर झेंपना शुरु कर देते हो....) पर मैं ग़लत था... वह स्वभाव का अति उत्साही व्यक्ति है। सुबह मुझे जैसे आदमी को देखकर वह प्रसन्न हो जाता है। बारिश अभी रुक चुकी है...। “जो नहीं है... जैसे कि ’सुरुचि’ उसका ग़म क्या... वह नहीं है..” शमशेर का लिखा पढ़ा। कुछ देर तक उनकी बाक़ी लिखी चीज़े भी गूंजती रहेगीं। मैंने फिर खुद को समेटा... बाहर बाल्कनी में पहुंचा तो कुछ घरों से ख़ांसने बुहारने की आवाज़े आने लगी थी...। यह शहर ज़िदा हो रहा है.... हम सब यक़ीन से सोए थे कि सुबह उठ बैठेगें.... और सुबह हो रही थी। मैं आज उस चाय वाले का नाम पूछूंगा.... बस... नाम...।

Sunday, August 18, 2013

A very easy Death.....

A very easy Death…. Simone de Beauvoir …. “WHETHER YOU THINK OF IT AS HEAVENLY OR EARTHLY, IF YOU LOVE LIFE IMMORTALITY IS NO CONSOLATION FOR DEATH.” मृत्यु... कितना गहरा असर है इस किताब का...। बचपन की बहुत छोटी-छोटी चीज़ों का असर हम अपने पूरे जीवन देख सकते हैं...। माँ ऎसा शब्द है जो घर की तरह काम करता है....। दो बहने... Poupette और Simone …. और उनके उनकी माँ से संबंध... Complex, sometimes shocking …। हस्पताल में हर एक दिन का धीरे-धीरे गुज़रना...। माँ के चहरे के बदलते रंगों में, उनके सपनों में, उनके दिखने और नहीं दिखने में दिन का सरकना। मृत्यु को अपनी माँ के अगल बगल देखना और कुछ ना कर पाना... माँ की पीड़ा जिसमें उन्हें मृत्यु जल्दी आ जाए बिना तड़पे... यह प्रार्थना करना और फिर उस प्रार्थना की गलानी। एक बूढ़ी माँ का मरना बहुत स्वाभाविक है... पर सिमोन ने जिस तरह बहुत स्वाभाविक ढ़ंग से उनके अंतिम दिनों का ब्यौरा लिखा है... हम पर उनकी मृत्यु असर करने लगती है... और फिर वह बीच में उनकी बहन और उनके माँ से संबंध के बारे में लिखती है तो हमें पता चलता है कि वह माँ जो बिस्तर पर लेटी हुई है उनका कितना गहरा प्रभाव है दोनों बहनों पर.... कुछ ही देर में आप सिमोन की आँखों से सोमवार.. मंगलवार... का गुज़रना जीने लगते हैं। “When someone you love dies you pay for the sin of outliving her with a thousand piercing regrets.” आख़री पन्नों में…. जब मृत्यु के बाद माँ चीज़ों में बट जाती है...। सिमोन की बहन उनका रिबिन रखना चाहती थी... पर उससे क्या होगा? जब उन्हें शमशान ले जाया जा रहा था तो सिमोन की बहन ने कहा.... “THE ONLY COMFORT I HAVE IS THAT IT WILL HAPPEN TO ME TOO… OTHERWISE IT WOULD BE TOO UNFAIR.” हम किस तरह किसी के चले जाने की खाली जगह को भर सकते हैं? हमें हर बार लगता है कि वह गुण हमें आता है... पर हम हर बार हारे हुए उन ख़ाली जगहों में अपनी ही आवाज़ को गूंजता हुआ सुनते हैं। किसी अपने के चले जाने को पूरी ज़िदग़ी ढ़ोते रहते हैं.... फिर-फिर बार-बार वह अलग-अलग अर्थों में अलग-अलग कमरों में हमसे टकराता है पर हम उसे कभी देख नहीं पाते। जब मेरी नानी की मृत्यु हो रही थी तब मैं उनके बगल में बैठा था... ठंड थी... हम सब उनके शरीर से प्राण निकल जाने का इंतज़ार कर रहे थे... वह उल्टी सांसे लेने लगी थी। तब मैंने उनकी देह को बहुत करीब से देखा था... सूख़ी सी देह... मुझे बहुत आश्चर्य हुआ था कि इसी शरीर ने मेरी माँ को जन्म दिया है....। तभी मुझे उनकी तनी हुई नसें दिखी थी... पता नहीं कितने सालों का संघर्ष... उन नसों में सूखकर जम गया था। मैं आज तक उस रात को नहीं भूला हूँ...। जब सिमोन अपने माँ के खुले हुए मुँह की बात कर रही थीं तब मैं अपनी नानी के चहरे को देख सकता था साफ...। इस किताब ने भीतर पल रहे पता नहीं कितने छोटे-छोटे हिस्सों को ज़िदा कर दिया है। हम सबने अपने माँ बाप की मृत्यु की कल्पना की है... पर हम कभी भी उसके लिए खुद को तैयार नहीं कर सकते...। सिमोंन जितनी बार हस्पताल का कमरा नम्बर 114 लिखती हैं किताब में... मैं उस कमरे के बाहर उनका खड़ा रहना देख सकता हूँ... धीरे-धीरे उनका रेंगते हुए उस दरवाज़े का खोलना.. धीरे-धीरे मृत्यु के करीब आने को लिखना। मैं जब दुबे जी (पं. सत्यदेव दुबे) को देखने हस्पताल गया था... वह कोमा में थे... उनकी मृत्यु के कुछ दिन पहले की बात है.... मैंने उनके पास खड़े रहकर पता नहीं क्यों उनके माथे पर हाथ रख दिया था... (जब वह ज़िंदा थे मेरी कभी हिम्मत नहीं थी कि उनका माथ छू दूं...)। शायद मुझे लगा था कि वह कोमा में कुछ बुरा सपना देख रहे हैं... उनकी देह बार-बार कांप जाती थी। उनके माथे पर हाथ रखते ही पता नहीं क्या हुआ मैं ज़ार-ज़ार रोने लगा... मैं खुद को संभाल नहीं पाया.... पता नहीं... आज यह किताब पढ़ते वक़्त मुझे बार-बार मेरा दुबे जी का माथा छूना याद आ रहा था... पता नहीं...मैं अपने रोने को लेकर इतना झेंप क्यों रहा था...... “THERE IS NO SUCH THING AS A NATURAL DEATH: NOTHING THAT HAPPENS TO A MAN IS EVER NATURAL, SINCE HIS PRESENCE CALLS THE WORLD INTO QUESTION. ALL MEN MUST DIE: BUT FOR EVERY MAN HIS DEATH IS AN ACCIDENT AND, EVEN IF HE KNOWS IT AND CONSENTS TO IT, AN UNJUSTIFIABLE VIOLATION.”- Simone ….

Friday, August 16, 2013

Colour Blind...5

कितना महत्वपूर्ण होता है जीवन का दिख जाना। ज़िंदा होते हुए शब्द... जो बहुत समय तक कागज़ पर मृत अक्षरों की तरह पड़े हुए थे...। नाटक को सांस लेते हुए देखना....। इन्हीं बहुत छोटी पहली सांसों के लिए नाटक करते रहने का सुख है...। कोई जब मुझसे यह छिछला सवाल पूछता है कि नाटक और फिल्मों में क्या अंतर है...? तो शायद उसका जवाब भी मुझे अब मिला है.... इस नाटक के जन्म में....। किसी चीज़ का जन्म होते हुए देखना... आपके खुद के मृत अतीत पर मरहम का काम करता है। और यह मज़ा सिर्फ नाटक में ही मिलता है क्योंकि नाटक का जन्म एक दिन नहीं होता... वह लगातार.. हर दिन.. हर तालीम (मराठी में रिहर्सल को तालीम कहते हैं.. जो मुझे बहुत पसंद है) में होता है। मैं अपना पूरा दिन बिना किसी काम के पड़े-पड़े बिता देता हूँ इस इंतज़ार में कि शाम होगी और आज की तालीम में मैं फिर कुछ पैदा होते देखूंगा। एक मूर्तिकार जब गीली मिट्टी से खेलता है.... और धीरे-धीरे पानी की मदद से वह उस मिट्टी को एक दिशा में धुमाना शुरु करता है तो अचानक एक संरचना दिखने लगती है। मेरे नाटक बनाने में थोड़ा अंतर है... मैं गीली मिट्टी के सामने घंटो बैठा रहता हूँ....। बहुत लंबे संयम के बाद मिट्टी अपने छोटे-छोटे हिस्सों में बात करने लगती है...। उस क्षण को मैं कभी पकड़ नहीं पाया जब मेरे हाथ खुद ब खुद उठकर खेलने लगते हैं। तब एक लुका-छिपी का खेल शुरु होता है.... इस खेल में मिट्टी अपनी संरचना पर खुद आती हैं.... चूकि मैं मूर्तिकार हूँ.... इसलिए मेरे हाथ उस मिट्टी की मदद करते हैं...। मैं उसे नहीं वह मुझे बनाती है...। मैं पूरी तरह खाली होकर मिट्टी के पास जाता हूँ... रोज़। बिना सोचे-जाने... इसमें हम दोनों एक दूसरे को तुरंत अपना लेते हैं... मैं अपने बंधे-बंधाए सिद्धांत उसपर थोपता नहीं हूँ.. और वह भी अपने संवाद में सूखती नहीं है। मिट्टी अपनाने में अपना समय लेती है... पर जब अपनेपन के खेल शुरु होते हैं तो मुझे मेरा बचपन का सा सुख दिखने लगता है। अभी नाटक किसी बचपन के खेल में मुक्त है। अभी वह पीपल और इमली के पेड़ के नीचे बैठकर सांस ले रहा है।

Monday, August 12, 2013

Colour Blind...4

एक पर्दा दिखता है। मेरे और टेगोर के बीच..। मैं कभी भी उन्हें पूरी तरह देख नहीं पाता हूँ। तभी एक व्यक्ति पर्दा हटाकर सामने आता है...। ना यह टेगोर नहीं है... इसने तो जींस और टी-शर्ट पहनी हुई है.. तभी वह कहता है कि वह टेगोर होने का अभिनय कर सकता है...। मैं अभिनय शब्द नहीं सुनता हूँ और उसके भीतर टेगोर का होना टटोलने लगता हूँ। मैं उसे गाने के लिए कहता हूँ... वह कविता कहता है... मैं उसे बैठने के लिए कहता हूँ... वह नाचने लगता है... उसकी चुप्पी में मुझॆ शब्द दिखते हैं... और उसके बोलते ही सब कुछ फिर से धुंधला हो जाता है। सच में किस तरह से दिख सकता है वह जिसे मैं टेगोर समझे बैठा हूँ। फिर प्रश्न यह भी है कि क्या मैं सच में महज़ टेगोर देखना चाहता हूँ...? या मैं टेगोर के बहाने खुद का उलझा हुआ कुछ सुलझा रहा हूँ। मैं हमेशा अपने सबसे उलझे हुए समय में.... अपने किसी नाटक की आड़ में छुप गया होता हूँ...। नाटक की उलझनों के सामने जीवन की पीड़ा बहुत टुच्ची दिखती है। हर बार रिहर्सल के बाद जब मैं... एक चाय और सिगरेट... के साथ होता हूँ... एक आश्चर्य मानों... बगल जैसी किसी जगह आकर बैठ जाता है। मैं अपनी सांस रोक लेता हूँ... यह तितली का आपके कंधे पर बैठने जैसा अनुभव है... मैं देर तक महसूस करता हूँ उसका बैठना पर उसे देख नहीं सकता हूँ। मेरे हिलते ही वह नदारद होगी। फिर अचानक लगता है कि मैं टेगोर भी नहीं देख सकता... मुझे नहीं पता कि मैं टेगोर देख पा रहा हूँ कि नहीं...। अपने आश्चर्यों और टेगोर के बीच अचानक मुझे एक तितली सांस लेती हूँ महसूस होती है। मैं बस इन तितली के रंगों के बीच color blind सा कुछ तलाश रहा हूँ। मुझे जो देखता है... और जो मेरे देखते ही नदारद हो जाएगा के बीच.... यह नाटक पल रहा है....। मेरे आश्चर्यों में आज मुझे बचपन में देखा टमाटर का छोटा सा पेड़ याद आया (कश्मीर में...)। मुझे हमेशा लगता था कि टमाटर बज़ार में मिलते हैं.. कोई इन्हें बनाता है शायद... पर उसे उगते हुए एक पेड़ पर देखना... यह मेरे लिए अदभुत था... मैं हंसता हूँ.... चाय के कुछ घूंट खीचकर ... सिगरेट बुझाता हूँ....। ठीक अभी कुछ सुलझा सा लगने लगा है.... यह सोचकर ... खुद से वर्जीनिया वुल्फ की लाईन कहता हूँ.... let’s take a walk….. |

Saturday, August 10, 2013

चिड़िया के नहीं दिखने में उसके दिख जाने की प्रसन्नता छुपी है...

बाहर आजकल एक छोटी चिड़िया देर तक आंवले के पेड़ पर सुबह खेलती दिखती है। बाहर देखने का पेड़ बदल चुका है। यहां इस नए घर के आस-पास बहुत पेड़ हैं.... बहुत पेड़ों ने आसमान घेर रखा है..... इसलिए आजकल चील कम दिख़ती है... बाहर जाता हूँ और कभी चील जाए तो पुराने घरों की याद आने लगती है... उन यादों का सिलसिला फिर टूटे नहीं टूटता। सो मैं आसमान में चीलों को अब नहीं खोजता हूँ। जैसे कुछ देर के अभिनय के बाद सच में हंसी आने लगती है, ऎसे ही कुछ देर के अभिनय के बाद सच में प्रसन्नता आंवले के पेड़ पर खेलती दिखती है। एक जोड़ा गिलहरियों का सारे पेड़ों पर दौड़ लगाता है...। छोटी लाल चींटियां.... मालगाड़ी की तरह घर के एक कोन से दूसरे कोने में खों जाती हैं। मैं अपनी अधूरी लिखी कहानियों के बारे में सोचने लगता हूँ.... जिन्हें फिर-फिर खोलने पर भी मैं उनके आगे एक शब्द भी नहीं जोड़ पाता...। शायद कुछ कहानियां कभी पूरी नहीं होंगी... हम हमेशा उन क्षणॊं को कोसते रहेगें जिन क्षणॊं में हमने आख़री वाक़्य उन कहानियों में लिखे थे.... और अपनी डेस्क पर से उठ गए थे। काश हम उन्हें पूरा कर लेते... उस वक़्त...। नई कहानियां अधूरी कहानियों के बोझ तले शुरु नहीं होती... वह कुछ वाक्यों के बाद ही दम तोड़ देती हैं। शायद वह नई कहानियां... अधूरी कहानियों की पीड़ा सूंघ लेती हैं... और छूट जाती है। इसलिए शायद मैंने नई कहानियों को लिखने की जद्दोजहद त्याग दी है... अब मैं उस छोटी चिड़िया का इंतज़ार करता हूँ जो हर सुबह आंवले के पेड़ पर खेलने आती है। जितनी जल्दी दिखती है उतनी ही जल्दी ओझल हो जाती है.... वह फिर आएगी के इंतज़ार में गिलहरी सामने से भाग लेती है... चींटियां अपना पथ बदल लेती हैं... और जब मैं उस छोटी सी चिड़िया को खोजना छोड़ देता हूँ वह अचानक दिख जाती है... यही अचानक खुशी का आना है...। प्रसन्नता फिर आंवले पर बैठी दिखती है। कितनी छोटी है और कितना कुछ दे जाती है। मैं ठीक उसे देखते हुए सब भूल जाता हूँ... भूल जाता हूँ कि इस पेड़ के घने छप्पर के पीछे जो आसमान है... वहां चील अभी भी उड़ रही होगी... उस चील की अधूरी कहानी अभी भी मेरे कमरे की डेस्क पर मेरा इंतज़ार कर रही होगी। मैं सब भूलकर हाथ बढ़ाता हूँ और एक आंवला पेड़ से तोड़ लेता हूँ। मेरी ड़ेस्क पर बैठे हुए मैं उस छोटी सी चिड़िया की कलरव सुन सकता हूँ। आखिर में बाहर क्या है.... बाहर वह है जो मेरी खिड़की से मूझे दिखता है... पर जब सच में बाहर कदम रखता हूँ तो उसका कोई अंत नज़र नहीं आता। तभी ख़्याल आता है कि चिड़िया के नहीं दिखने में उसके दिख जाने की प्रसन्नता छुपी है...। अधूरी कहानियों की आड़ में कहीं एक नई कहानी जन्म लेती है... वह अचानक मुझे एक दिन दिख जाएगी जब मैं उसे खोजना बंद कर दूंगा।

Friday, August 2, 2013

Colour Blind...3

टेगोर... क्या है इस नाम में...? मैं क्यों आकर्षित हो रहा हूँ उस बच्चे से... उसकी चुप्पी से... उसके अकेले खेलते रहने से.... टेगोर। एक विशाल से मैदान में एक बच्चा पालकी में बैठे हुए अपना छोटा संसार जीने लगता है। चॉक से बने गोले के बीच... पानी में सिर घुसा देने की सज़ा पाता है। किसी दूसरे की बनाई हुई फिल्म की तरह अपने ही बाप का जीवन देखता है। इस संसार में मुझे कोई कमी नहीं लगती है... इस संसार की सुंदरता टेगोर को भी उसके बड़े होने के बाद समझ में आई..। उसके बचपन के अकेलेपन में बहुत सारे खेल शुमार थे। बड़े होने में एक प्रतिक्षा थी... किसीकी... कोई था जो आ नहीं रहा था... कोई था जो चला गया था..। या वह असल में रतन थे.. (पोस्टमास्टर कहानी की लड़की) जो पीछे छूट गए थे। जो पूरा जीवन पोस्ट ऑफिस के चक्कर काटते रहे। किस जगह मैं टेगोर को पकड़ सकता हूँ? कैसे उनके लिखे में उनकी मन:स्थिति तक पहुंचा जा सकता है। उनका प्रेम बिना पीड़ा के नहीं दिखता... पीड़ा ढ़ूंढ़ने जाओ तो प्रेम पा लिया ऎसा लगता है। बचपन में ’मैं भी हूँ...’ की लड़ाई शुरु हुई... अपने होने को सिद्ध करने में जब अपने घर का दरवाज़ा खोला तो पूरा बंगाल था... जब बंगाल का दरवाज़ा खोला तो पूरा देश था... फिर विदेश... लड़ते-लड़ते अचानक पूरे ब्रह्मांड में उन्होंने खुद को सबसे छोटा पाया...। फिर सब धुल गया.... देश.. विदेश... सब कुछ... फिर वापिस वह अपनी पुरानी प्रतिक्षा पर लोट आए... किसी की... किसी एक की... वह वापिस पोस्ट-ऑफिस के चक्कर काटने लगे... कोई एक मिले जो बस सब सुन ले। फिर एक तरह से बहुत स्वार्थी भी दिखे... जिसने अपने लिखे को दूसरे के जिए में बटोरा... कभी भी किसी भी कहानी को उसके नेचुरल अंत तक नहीं पहुंचने दिया...। पर नेचुरल शब्द टेगोर पर जाता भी नहीं है जितना उन्होंने अपने जीवन में काम किया वह नेचुरल नहीं है। मैं कई बार उनसे संवाद करना चाहता हूँ जिसमें एक प्रश्न बार-बार दिमाग़ में आता है कि इतना सारा क्यों लिख रहे थे वह? मैं इस बात के मूल में पहुंचना चाहता हूँ इस नाटक के द्वारा... कि काम का इतना सारा बोझ.. जिसके अंत में वह टैगोन नहीं होना चाहते थे। सामान्य उनके जीवन में कुछ भी नहीं था...। आज सुबह उठा तो लगा टैगोर ने मेरी तरफ मुड़कर देखा... मेरी बहुत से सवालों का वह जवाब देने ही वाले थे कि सपना टूट गया। एलार्म चीख़ रहा था... मैं भागकर अलार्म बंद करके फिर लेट गया ज़ोर से आँख बंद की और टैगोर की आख़री झलक याद करने लगा...। व्यर्थ था सब कुछ..। करवटें... करवटें और फिर कुछ करवटें... मैंने बिस्तर त्याग दिया। बहुत देर तक किचिन में खड़ा रहा... चाय का पानी चढ़ा दिया था पर गैस चालू नहीं की... मैं खड़ा रहा... सपने का सिर पैर मेरी समझ से परे था। मेरी टैगोर से मुलाक़ात (सपने में...) उनके Switzerland प्रवास के दौरान हुई... जब वह तीन महीने के लिए Switzerland / Italy में विक्टोरिया का इंतज़ार कर रहे थे और वह नहीं आई। हमारी बातचीत में मैं कहे जा रहा था और वह चुप थे... बीच-बीच में एक गहरी सांस की आवाज़ आती और सब चुप... मेरे सारे सवाल व्यर्थ थे मानों वह सुन ही नहीं रहे हों... फिर पता चला कि मैं असल में एक स्क्रीन के सामने खड़ा हूँ जिसपर उनके इंतज़ार का लाईव टेलिकास्ट चल रहा है। जबकि मैं भी Switzerland में ही था... मैं उसी विला में था जिसमें वह थे पर मैं उन्हें स्क्रीप पर देख रहा था। सपना बिना किसी संवाद के खत्म हो चुका था। कुछ देर बाद मैंने गैस चालू की... चाय बनने की प्रक्रिया शुरु हो गई थी पर मैं वहां नहीं था। मुझे बैचेनी महसूस हो रही थी.. टैगोर की छवी मेरे दिमाग़ में बहुत सुंदर सी थी... फिर अचानक यह इंतज़ार वाली बात ने पता नहीं उस छवी के साथ क्या छेड़-छाड़ की कि लगा मैं इस बारे में उनसे बात करना चाहता हूँ.... पर कर नहीं पा रहा हूँ क्योंकि मैं उन्हें स्क्रीन पर देख रहा हूँ... सामने नहीं। मैं समझता हूँ उनकी मन: स्थिति को.... इस घटना के बाद वह ओर भी करीब थे... एक सीधे साधे इंसानी रुप में... जिसे ज़रुरत थी उस वक़्त किसी की..। मुझे लगा मैं उन्हें पकड़ सकता हूँ उनकी कहानीयों में... उनकी कविताओं में... पर वह हर बार छूट जाते थे... अब अचानक लगा कि वह मेरे सामने हैं... हम आँखो में आँखे डालकर एक दूसरे को देख ही रहे थे कि सपना टूट गया। बहुत कमज़ोर क्षणों में हम अचानक अपनी सारी कमान छोड़ देते हैं... फिर ऎसा करना है और ऎसा नहीं कर सकते के बीच की सारी की सारी उठापटक अपना मानी ख़ो देती है। ठीक ऎसे वक़्त शायद हम खुद को पहली बार देख लेते हैं... बिना आईने.. बिना कपड़ों के...। जैसे का तैसा सा सब कुछ सामने पड़ा होता है और हमें यक़ीन नहीं होता कि यह क्या हो रहा है...? असहायता.... यह शब्द मुझे टेगोर से जोड़ती हैं...। मैं इस नाटक में कुछ इस शब्द की कविता खोज रहा हूँ।

Saturday, July 27, 2013

Colour Blind...2

कल पहला दिन था जब शुरु के सीन के साथ फ्लौर पर खेलेना शुरु किया था...। बार-बार लगता है कि हम किसी के बारे में बात कर रहे हैं जो वहां मौजूद है और कुछ कह नहीं रहा। पिछले कुछ महीनों से इतनी टेगोर पर बात हो चुकी है कि लगता है कि पहाड़ के किसी एक बड़े से घर में वह अकेले रहते हैं.. और मैं अपनी नोटबुक लेकर उनसे लगातार मिलने जाता हूँ। वह अपने जीवन के अंशों के बारे में कुछ इस तरह बात करते हैं जैसे वह अपनी कविताओं की व्याख्या कर रहे हो। मैं कुछ चीज़े नोट करता हूँ और कुछ जाने देता हूँ। जो जाने देता हूँ वह मेरे साथ रिहर्सल स्पेस में चला आता है और जो भी कुछ मैं नोट करता हूँ वह बेमानी लगता है। मुझे अधिक्तर अपनी नानी याद आती हैं... मैं जब भी उनके कमरे में उनसे मिलने जाया करता था तो महसूस होता था कि वह मुझसे कुछ कहना चाहती हैं.. हम बात करते और वह बीच बात में मेरा हाथ कसकर पकड़ लेती... मैं चुप हो जाता... वह मौन में मुझे ताकती रहती... और कुछ घटता। मैं अभी तक उस घटे हुए को पकड़ नहीं पाया हूँ... ठीक ऎसा ही मुझे महसूस होता है टेगोर के साथ... बीच बात में कोई जैसे मुझे चुप कर देता है... कुछ घटता है... और मैं चूक जाता हूँ। क्या घटता है मौन में...? क्यों चूक जाता हूँ? क्या मैं इस चूक को नाटक में शामिल कर सकता हूँ? बने बनाए तरीके से एक कहानी दिखने लगती है... जो सीधी है...। उसपर विश्वास भी किया जा सकता है...। पर मेरा ध्यान बार बार मेरी नानी के बूढ़े हाथों पर जाता है... मैं नहीं रोक पाता खुद को...। एक त्रुटी है... इन सब बातों के बीच... जिसे मैं किन्हीं अच्छे क्षणों में देख भी लेता हूँ... पर पकड़ नहीं पाता हूँ। मैं इस त्रुटी का निर्देशन करना चाहता हूँ.... मैं अपनी नानी के हाथ को ... बीच में आए मौन को... टेगोर और हमारे बीच घट रहे ’कुछ..’ को मंचित होते देखना चाहता हूँ। एक सवाल भी उठता है बार-बार कि इन सबमें टेगोर कहां है? टेगोर जिसे सब जानते हैं..। क्या मैं कभी भी सबकी कल्पना के टेगोर को मंच पर दिखा सकता हूँ? क्या मैं कभी भी टेगोर को दिखा सकता हूँ? थोड़ा सा भी? शायद नहीं। मैंने टेगोर को बीच बातचीत में कहीं देखा है... उनके बहुत सारे लिखे के बीच कहीं एक झलक उनकी देखी है... कहीं महसूस किया है कि ठीक किसी वक़्त मैं बिल्कुल ऎसा ही सोच रहा था...। सो अंत में उस एक झलक को अगर मैं मंच पर ठीक से देख सकूं तो कह सकता हूँ कि कहीं एक बात में इंमानदारी है...। खुद को अलग कर पाना असंभव है इस प्रक्रिया में....। मेरा खाना.. पीना.. उठना.. बैठना... बैठे रहना... पीड़ा ... घाव.. असंतुलन.. मौन.. सब कुछ इस नाटक में शामिल होते मैं देख सकता हूँ। उत्साह और डर के बीच का कोई आदमी है इस वक़्त मेरे साथ.. जिसके साथ मैं चाय पी रहा हूँ। फिर चाय... मृत्यु!!! “कोपलें फिर फूट आई है शाख़ों पर... उससे कहना...” कल यह वाक़्य पढ़ा और इसी में गुम हूँ।

Colour Blind....1

हमें कोई पेंटिग क्यों पसंद आती है? मैंने कहीं यह पढ़ा था.. कि जब हम अपने जीवन के अंश उन रंगों में कहीं देख लेते है तो वह रंगो का समूह हमसे बात करता दिखता है... हम कहते हैं यह पेंटिग मुझे बहुत पसंद है। टेगोर अब मुझे रंगो में दिखते हैं... एक विशाल केनवास पर सघन रंगों के बड़े-छोटे स्ट्रोस..। थोड़ा दूर हटके उस पेंटिग को देखों तो जगहें नज़र आने लगती हैं... कुछ लोगों के चहरे दिखने लगते हैं। मैं जगह को पकड़ता हूँ... उसमें कुछ चहरों को मिलाकर पेंटिंग के करीब पहुंचता हूँ... तो वहा सिर्फ एक कत्थई रंग का ब्रश स्ट्रोक नज़र आता है... जैसे किसी कोरे कागज़ पर महज़ ’क...’ लिखा हो...। मैं इन सारी गड़मड़ आकृतियों से बात करने लगता हूँ... रंगों के गहरे स्ट्रोक्स को जब छूने जाता हूँ तो वह अभी भी गीले लगते हैं। कुछ रंग कम हैं... यह समझ में आता है... पर कमी और भी कहीं है...। असल में कमी ठीक शब्द नहीं है... ख़ाली है कुछ ऎसा लगता है। मानों एक कुर्सी पूरी ज़िदग़ी खाली रखी है कि वहां कोई आकर बैठेगा। यह ख़्याल आते ही मुझे यह पेंटिंग अपनी लगने लगती है। अभी-अभी टेगोर नाटक का अपना हिस्सा ख़त्म करके चाय पी रहा हूँ। इस तरह से लेखन मैंने पहले कभी नहीं किया... एक व्यक्ति का लिखा हुआ और उसके जीवन के अंशो को दिमाग़ में रखकर संवाद लिखते जाना। मुझे कहीं बीच में लगा कि मैं बहुत असंभव से बिख़राव को एक धागे में पिरोने की कोशिश कर रहा हूँ....। यह एक तरह की लघु कथा है... जिसमें हर जगह टेगोर है और असल में कहीं भी नहीं है...। लिखना खत्म करते ही लगा कि जैसे घर में से कुछ सामान निकल गया है...। कमरा ख़ाली लगने लगा। मैं गाना गुनगुना रहा था मुझे लगा कि वह गूंज रहा है... दीवारों से टकराकर सारा संगीत वापिस मेरे पास चला आ रहा है... कितना ख़राब गाता हूँ मैं.... मैं चुप हो गया। यह चुप्पी भी कितनी हल्की है... मैं चल रहा हूँ तो लग रहा है कि कपड़े नहीं पहने हैं...। एक सहारा चाय है जो बहुत अच्छी बनी है... अदरक़ गले को सहला रही है।

Saturday, May 25, 2013

वक़्त बजता है...

दिन बीतते हैं.. समय, दिन बीतने की गति में कभी कभी बहुत धीमा सुनाई पड़ता है। फिर एक वक़्त आता है जो कभी कटता नहीं है... समय कान में बजता है। अगले ही पल लगता है कि कुछ दिन यूं ही सोते हुए बीत गए हैं.. आज की तारीख़ देखने पर अचरज होता है, हिसाब लगाने बैठो तो पुराने दिन धुंध में ढूबे हुए लगते हैं.. कुछ पकड़ में आता है कुछ छूटा रहता है हमेशा के लिए..। क्या सच में कुछ छूट जाता है हमेशा के लिए.? क्या इस जनम में उससे फिर वास्ता नहीं पड़ेगा? इन सबके बीच में हृदय अपनी एक धड़कन खो देता है.... चलते-चलते हाथ माथा सहलाने लगता है... अगर रुके हो तो चल देने का मन करता है... चल रहे हो तो वहीं बैठ जाने की इच्छा सताती है... गहरी सांसा लेने से आँखों के किनारे पानी नज़र आता है... ऎसा तब होता है जब कभी तुम्हारा नाम कहीं दबे हुए के बीच में से छूट जाता है... मेरी कविता...। अपनी कहानीयों और नाटकों के बीच कहीं मैंने तुम्हें भीतर दबा रखा है... छुपाया नहीं है। आहट है.. दरवाज़े पर अचानक खट होती है.. मुझे मेरे पुराने दरवाज़े याद हो आते हैं... वह तुम्हारा खूबसूरत चहरा हर आहट पर...। मैं तुम्हें अब नहीं लिख सकता... तुम्हारे साथ खरीदे मेरे जूते अब मुझे काटते हैं.. उनमें रहकर बहुत दूर चला नहीं जाता..। यह जूते तब भी काटते थे मुझे... पर लगता था वह जूता ही क्या जो हर चाल में अपनी उपस्थिति दर्ज ना कराए...। अब अनुपस्थित है मेरा पुराना घर.. इस नए घर में...। हम किस तरह जीना सीख़ रहे होते हैं??? किसी की कमी की टीस जब भी होती है हम उसे अपनी जीने की आदत में शुमार कर लेना चाहते हैं...। इस वक़्त भी लिखते हुआ तीव्र इच्छा हो रही है कि अभी पीछॆ पड़े हुए कोरे पन्नों को उठाऊं और एक कविता लिख डालूं... मैं उसे महसूस कर सकता... सूंघ सकता हूँ... मुझे पता है दरवाज़े के दूसरी तरफ कोई है... बिना आहट के वह सिरझुकाए वह मेरे कोरे पन्ने की तरफ बढ़ने का इंतज़ार कर रही है....। कविता से बिछड़ने के आखरी दिन मुझे याद हैं..। वह लंबी शामें.. गहरी रातें... नीरस दौपहरें.... मैंने उन कोरे पन्नों के सामने बिताई हैं...। कितनी क्रूरता थी... जब अचानक उसने आना बंद कर दिया था...। दूसरे जब कविता सुनाते थे तो मुझॆ लगता था कि यह मेरी ही कविता है जो उसके साथ रहने लगी है। मैं अपने पुराने लिखे में उसके होने को सहता था। अब फिर से उस कोरे पन्ने के पास जाने की इच्छा मैं दबा देना चाहता हूँ। कुचलना चाहता हूँ उसे क्योंकि मुझे पता है कि वह फिर चली जाएगी... और शायद इस बार मैं उसका जाना बर्दाश्त नहीं कर सकता...। मैं अपनी कहानियों में.... अपने नाटकों में उसे पा लेता हूँ... हम कुछ देर बैठकर बातें करते हैं... साथ चाय पीते हैं... और मैं उसे कुछ देर में चले जाने के लिए कहता हूँ..। वह बुरा नहीं मानती है और मुझे बहुत दुख नहीं होता है...। वह जानती है कि पीछॆ पड़े हुए कोरे पन्नों में अभी भी उसकी जगह है... पर वह अपनी जगह खोजती नहीं है... मैं उन कोरे पन्नों का ख़ालीपन उस सामने आने नहीं देता। कोई सीढ़ीयां चढ रहा है...। हल्के कदमों की आहट सुनाई दे रही है... वह दरवाज़े के बाहर खड़ी है... मैं उसकी सांसे महसूस कर सकता हूँ...। मैं जानता हूँ वह दरवाज़ा नहीं खटखटाएगी... पर वह है वहीं...। मेरी भी चाय पीने की इच्छा है... मैं भी दो बातें सुनना चाहता हूँ...। मैं दरवाज़ा खोलने जाता हूँ......।

Sunday, March 3, 2013

ख़त...

जैसे ठंड के दिनों में सुबह टांगे पर बैठकर स्कूल जाना... परिक्षा के दिनों में खेलने के आधे घंटे का सुख चुरा लेना... अपने घर के अंधेरे कोने में तकिये लगाकर अपना एक अलग घर बनाना... ज़रुरी काम के बहाने से बार-बार टाल पर मिट्टी खाने जाना... लंबी दौपहरों में देर तक म्मताज़ भाई की पतंग की दुकान पर बैठे रहना... कबीट ख़ाते हुए ताड़का वद्ध देखना... नदी में लंबे गोते लगाकर दस पैसे ढूंढ लेना.. एक कचौड़ी और थोड़ी सी जलेबी के लिए कई दिन इंतज़ार करना... पड़े हुए पैसे मिल जाने के ख़्वाब देखना... और फिर देर तक कल्पना में जीना कि कैसे खर्च करुंगा उन्हें... मज़ार पर जाकर अपने भगवान की बुराई करना... बहुत चालाक हो जाने की इच्छा रखना... बारिश में भीगना... बेंजो सीख़ना पर दिल में तबला बजाने की इच्छा रखना... बाहर जाना और वापिस घर कभी ना आने की ज़िद्द पालना... घर में पड़े रहना और पड़े-पड़े बाहर होने का डर पाल लेना.... लंबे समय तक धूप में चलना... पीपल, ईमली को छोड़ना और बरगद की छाया तलाशना... माँ के होने में माँ को खोजना... घर से निकलना और बार-बार घर वापिस आना...। इन सबमें कहीं कविता है... पर कविता यह नहीं है। एक वाक़्य से दूसरे वाक्य पर कूदते हुए बीच के बिंदुओं में कहीं कविता ताकती है। मैं महसूस करता हूँ... मिलने और नहीं मिलने के बीच का अंश... किसी गलती को करने की इच्छा और उस गलती को ना करने के बीच कहीं है कविता। बचपन के छूटने और बड़े होने के बीच... हम सभी को पता है। कुछ बदलने की प्रक्रिया में है सब कुछ... फिर भी दूर लगता है..। क्योंकि यह सब है सबमें... सबके पास... पर कविता किसके लिए है? यह प्रश्न बहुत बड़ा है...। हमेशा वह किसी के लिए होती है... निजी से निजी चीज़ भी किसी के लिए होती है। शायद कई दिनों बाद खुदी के पढ़ने के लिए भी हो सकती है... पर हमारे अवचेतन को हमेशा पता होता है कि किस लिए है। यह जीवन असल में एक ख़त है... किसी के लिए... पूरा जी लेने के बाद हम चाहते हैं कि बुढ़ापे में एक दिन हम बरामदे में बैठे हुए चाय पी रहे होंगे... हल्की मुलायम धूप होगी और उस दिन, कांपते हाथों से मैं अपना जीवन.... जो कि एक लिफाफे या डायरी में होगा... खोलूंगा और उसे वह ख़त पढकर सुनाऊंगा... उस पढ़्ने की फिर एक कहानी होगी...। जिसे जंगल में चलते हुए कह दूंगा... कहानी कहते हुए मैं उसके सारे झूठ जी लूंगा...।

Sunday, February 24, 2013

प्यादा...

दीवार पर हम चिपक जाते हैं...। किसी तरह से बस दृश्य से गायब हो जाए... दूर चांद पर दीवार दिखती है.. उस दीवार पर मौसम नहीं बदलते हैं। नीचे मौसम के शिक़ार हम हैं... इन दिनों भीग रहे हैं देर तक अकेले...। फिर वह सपने सा धुंधला दृश्य दिखता है जिसमें पहली बार सभी मैदान में खड़े दिखते हैं... मैं इनमें से कुछ लोगों को पसंद करता हूँ और कुछ को नापसंद.. पर सभी एक दूसरे में इतने घुले-मिले हैं कि किसी को भी अलग से देखना असंभव है। मैं छांटना चाहता हूँ... क्या हम हमेशा इसी प्रयास में नहीं लगे रहते हैं? छांट दे... अलग कर दे अच्छे बुरे को.. प्रिय को अप्रिय से.. कहानी को नाटक से... कविता को शायरी से... पर सब एक दूसरे में फसे हुए हैं..। फिर मैं पहले दिन के बारे में सोचने लगता हूँ... पहले दिन जब यह सब शुरु हुआ था। वह एक तरीक़े का शतरंज का खेल जैसा था... मैं दूर था... सभी लोग अपने-अपने काले-सफेद खानों में चुप शांत खड़े थे...। मेरा किसी से भी कोई सीधा संबंध नहीं था... तब शायद हमने पहली ग़लती की थी... मस्ति के लिए... हमने एक छोटे प्यादे को आगे सरका दिया था...। हमें नहीं पता था कि उसका नतीजा यह होगा कि हम किसी एक तरफ हो जाएंगे... अब जीवन में या तो सफेद कदम रखना है या काले... हम यह रंग नहीं लांग सकते अब..। और बहुत समय बाद पता चलता है कि असल में हमने बहुत पहले एक खेल शुरु कर दिया था... हमें लगता है कि हमने चुना था.. पर असल में हम चुन लिये गए थे..। शतरंज के बगल में पड़े हुए कुछ प्यादे.. घोड़े नज़र आते हैं.... हम इस खेल के राजा हैं जिसके हाथ में कुछ नहीं हैं। इस खेल में हम सालों बने रहते हैं... क्यों कि हर चाल में हम सालों गवां देते है... जैसा कि रोज़ उठने पर हम टटोलते हैं कि इस जीवन ने हमारे सामने क्या चाल चली है... जीवन भी धीमा और तेज़ चलता है... कई बार रुक जाता है... बहुत लंबे समय तक..। अंत तो आता ही है... आभी नहीं तो सालों बाद.... हम इस बीच छोटे-बड़े कांप्रोमाईज़ करते चलते हैं... यह सारे कांप्रोमाईज़ समय मांगने जैसा है... हम मांगना चाहते है कि बस हमें बने रहने दो...। हम चिल्लाना चाहते हैं कि हम सफेद नहीं हैं... काले भी नहीं है... हम बस परिस्थिति में फसें हैं.. और अपनी चाल को जितना हो सके टाल रहे हैं...। हमें टालना आ जाता है। बीच में दूसरों को मारने में हमें खुशी मिलती है.... पर वह क्षणिक है... समय बीत रहा होता है... जैसे हम इस खेल में फसें हैं... बाक़ी भी यही है.. हम दिखाते नहीं है... क्योंकि हमें लगता है कि हम एक दिन जीत जांएगें.... असल में हम जीतते कभी भी नहीं है हम अपनी अंतिम हार टाल रहे होते हैं...।

Friday, February 15, 2013

धूप....

(अपनी लिखी जा रही कहानी का एक अंश...) धूप थी बहुत तेज़... आँखें बार-बार बंद हो जाती थीं। वह बादलों जैसे कभी आती तो हम अपने छोटे-छोटे बर्तन इक्कठे करने में लग जाते..। माना कि एक किचिन होगा हमारे भविष्य में... में हम उन छोटे बर्तनों से नाश्ता बनाने लगते... बचपन की जैसी बातों के बीच देर तक चहकते-रहते... ऎसे में पसीने की खुश्बू होती थी... कहीं से हवा चलती ....हवा वो कहती, जो हम इन सारी बातों के बीच नहीं कह पा रहे हो...। शब्द देर तक टटोलने पर अपना मतलब खो देते... मैं उसे बादल कहना चाहता था... पर बादल ज़बान तक आते-आते गीला हो जाता... लगता... यह नहीं है जो वह है... वह ठंडक भी है... वह हवा है.. मैं अब उसे हवा कहना चाहता.. पर हवा चहरे पर पड़ते ही मैं आँखे बंद कर लेता...। मेरे हाथ बार-बार उसके शरीर पर चिपक जाते... जैसे वह कोई चुंबक हो। वह बात बदलने में बार-बार वही बात कह रही होती... जिसे हम दोनों देर तक सुनना चाहते हो..। वह आम के पेड़ के नीचे जाने से डरती थी कहती थी कि ऊपर से लाल चींटिया बरसती हैं.... मैंने उससे कहता कि मुझे आम पसंद नहीं है... हम दोनों बहुत ख़ास है... आम तो बाक़ी लोग है जिन्हें हम दिखते नहीं है। उसे नहीं दिखने की बहुत उत्सुक्ता रहती थी... हम दोनों बार-बार बाहर जाते कि हम लोगों को ना दिखें.. और हम सच में नहीं दिखते थे..। देर तक बिस्तर पर लेटकर एक दूसरे का हाथ टटोलने की हमें आदत थी... वह मेरी भविष्य की रेखा पर अपनी उंग्लियां फैरती थी... मैं उसकी भाग्य रेखा बहुत पसंद करता था.. मेरी हथेली में भाग्य रेखा नहीं थी... यह बात मैंने कभी उसे नहीं बताई..। हम सारी बेमतलब की बातें एक दूसरे के कान में कहते जबकि सारी महत्वपूर्ण बातें मौन रह जाती। वह अच्छा खाना बनाती थी... उसे घर सुंदर रखना पसंद था... मैं उसे बहुत पसंद करता था.. वह मेरी ज़बान थी जो हमेशा उसे देखकर बाहर रह जाती थी... वह बाहर रह जाती थी... मैं भीतर सपने देखा करता था। एक सपना था कि किसी दिन लंबा चलेंगें और भटक जाएगें... हर वह रास्ता लेंगें जो हमारी वापसी को असंभव बना दे...। जब पानी दिखे तो रुक जाएं... और जब पहाड़ दिखे तो सांस ले लें... मैं तुम्हें इमली के पेड़ की कोपल चख़ाऊ...। किस कदर हम हंसेगें... हम कितना साथ हंसते थे... मैं जब भी पुराने दिनों को याद करता हूँ तो एक मुस्कुराहट याद आती हैं.. आँखों में.. होठो का धीरे से सरकना दिखता है... बालों का चहरे पर गिरना फिर संभलना.. सब धीमी गति से सरकता हुआ समय.. जैसे किसी फिल्म का धीमी गति का कोई सीन चल रहा हो। तुम्हारे साथ मैं धीरे-धीरे सरकता था.. बिना किसी प्रयास के... मानों नदी में बह रहे हो... तुम्हारे साथ मुझे कहीं भी पहुंचना नहीं होता था... और हम कहीं भी नहीं पहुंचे। अब इस तेज़ धूप में मैं ठंड़ी हवा की तरह तुम्हें लिखता हूँ... लिखते ही मुझे कश्मीर याद आता है। वह कोमल धूप जिसमें बैठे-बैठे दिन कट जाता था... हमारे बारामुल्ला के घर का आंगन... मुर्गिया नीचे और चील ऊपर... वह दौपहरें तुम्हें लिखते ही याद आ जाती हैं। और भी कुछ दिखता है... खिड़की... खिड़की से बाहर बर्फ ताकना... बुख़ारी का धुंआ.. कांगड़ी की आंच... पता नहीं क्यों हम साथ कश्मीर नहीं गए..। मैं असल में तुम्हें कश्मीर दिखाना चाहता था... खोजाबाग़... जहां मेरे बचपन के खेल.. गलियों में दबे छिपे पड़े हैं..। चलों एक दिन चलते हैं। दूर... बहुत दूर... बहुत दिनों से हमने मिलकर कोई सपना नहीं देखा... तुम्हें याद है ना सारे पुराने सपने... चलों अभी इसी वक़्त एक सपना बनाते हैं... नया... जिसमें खुश्बू हो... जिसमें तुम हो... जिसमें हम हो और एक कहानी... कहानी में हम भटक जांए.. और उसका कोई अंत ना हो... क्या कहती हो? शुरु करें..।

आकार.....

एक आकार दिखता है। कुछ बातों में... मुलाकातों में... जब भी एक अच्छा मनुष्य होने की बातों पर ज़ोर देता हूँ वह दिखने लगता है... आकार!!! मैं बातों में बहक उस आकार की तरफ ख़िच जाता हूँ... आपनी ईमानदारी में मैं कहता हूँ... वह दिख रहा है मुझे फिर से... लोग पूछते हैं क्या है..? मैं कहता हूँ एक आकार है...। बस... फिर मैं खिसियाते हुए आगे जोड़ देता हूँ कि उस आकार के कई प्रकार हो सकते हैं... मैं जब भी यह कहता हूँ... बचकाना सुनाई देता हूँ। बिना आकार के उस निराकार को किस तरह अपना बना लूं... अपना बनाने का संघर्ष उतना नहीं है जितना उस निराकार को अपनी बातों में सिद्ध करने का... कैसे अपनों को अपने इस आकार के बारे में बताऊं जो बिल्कुल भी किसी आकार में बंधा हुआ नहीं दिखता है। मैं सारे काम त्याग देता हूँ और उसे आकार देने में लग जाता हूँ। एक मूर्तिकार की तरह छेनी और हथौड़े के साथ उसके पास पहुंचता हूँ.... उसे पीटता हूँ, जलाता हूँ, छलनी कर देता हूँ.... वह किसी आकार में आता दिखाई देता है... पर कुछ ही देर में वह आकार बिना किसी अर्थ लिए टूटा-फूटा सामने पड़ा दिखता है। मैं उसे समेटकर एक जगह रख देता हूँ.... मेरी परेशानी मेरे माथे के आस-पास सब भांप लेते हैं... कहते हैं मैं परेशान दिखता हूँ आजकल...!!! कैसे कोई बिना किसी आकार के ज़िदा रह सकता है... मैं स्वीकृति चाहता हूँ... अपनों से.. अपने समय से... अपने आस-पास से...। निराकार पूजना सही है... पर बिना आकार के जिये जाना... असंभव जान पड़ता है। मैं खुद को उस आकार/निराकार के साथ बंद कर लेता हूँ...। जब तक मैं उसे एक आकार नहीं दे दूंगा बाहर नहीं जाऊंगा की कसम खाते ही वह आकार धुंधला पड़ने लगता है.... मैं इस तरह उसपर काम नहीं कर सकता... जब तक निराकार ठोस रुप नहीं लेगा तब तक उसे किसी भी आकार में ढ़ालना असंभव है..। वह अपना ठोस रुप मेरे दुनियां में जाने पर लेता है.... मैं जितना सफल लोगों के बीच उठता बैठता हूँ... या भविष्य से डरे लोगों की संगत रखता हूँ उतना मेरा निराकार पकता जाता है... साफ दिखने लगता है...। मैं सभ्य लोगों के बीच पागल दिखता हूँ.... लोग बार बार मेरे आकार के बारे बात छेड़ देते हैं....। जो निराकार मुझे दिखता है उसका आकार लोग मुझमें देख लेते हैं... मैं पूछता हूँ... कैसा है इसका आकार? लोग कहते हैं इसे आकार नहीं कहते हैं... तो मैं कहता हूँ कि यह निराकार है फिर... इसपर सब हंस देते हैं... निराकार भी एक आकार में बंधा होता है जो तुममे दिखता है वह कुछ नहीं है। एक सभ्य समाज के आकार में मैं अपनी पूरी सामर्थ लगा रहा हूँ कि मैं भी अपने आकार को उसमें फसा सकूं... और छुट्टी पाऊं...। मुझे लोग अपने होने वाले उत्सवों में बुलाएं... अपने बच्चे होने में... अपनी सामाजिक उन्नति की पार्टीयों में... अपनी चीख़ती हुई हंसी में मेरी दबी-छुपी खिसियाहट को शामिल कर लें। फिर एक दिन अचानक चीज़े खुल गई। मैंने एक महफिल में अचानक उसे मुझसे छिटककर दूर जाते हुए देख लिया... इसका मतलब वह मैं ही था जो अभी चीख़ती हुई हंसी में छिटका था... मैं तुरंत उस महफिल से उठ गया... मैं एक दूसरा आदमी भीतर पाले हुए हूँ... एक निराकार जो मुझे दिखता नहीं है वह अलग हो जाता है.. दूर फिका जाता है...। अगर मैं इससे निजाद पा लूं तो सभी के बीच मैं बिना किसी परेशानी के रह सकता हूँ...!!! शायद तभी से इसे मार गिराने के औज़ार ढ़ूढ़ रहा हूँ..। कभी दाढ़ी बनाते हुए खून निकल आता है तो डरता हूँ कि कहीं वह भी तो मुझे मार गिराना नहीं चाहता है!!! हमारे भीतर जो सबसे खतरनाक़ बात है वह है हर एक बात की आदत बना देना..। वह निराकार मेरी आदत के कमरे में घुस गया है... और यह कमरा मेरी पहुंच के बाहर है... आदत भीतर नहीं बाहर होती है... जैसे मैं बाहर होता हूँ जब भी वह आकर भीतर काम करता है..। पर मैं एक दिन बिना उसे पता लगे उसे पकड़ लूंगा.. दबोंच लूंगा... और उसे मारने के पहले.. इतने बीत गए सालों का हिसाब मांगूगा... हर अकेली शाम का.. हर नींद से लंबी रातों का.. इस गरीबी का.. और एक त्रासदी का... सबका हिसाब मांगूगा.. एक दिन..।

Thursday, February 7, 2013

पेटर्नस........

कल रात खत्म हुई थी वर्जीनिया वुल्फ की कुछ पंक्तियों से....। उनके लेखन का शायद यह सबसे असरदार पहलू है कि वह गूंजता है.. बहुत दिनों तक..। आज सुबह से कई बार पेटर्न शब्द ज़बान पर चढ़ा रहा...। शायद लिखने में हम सबसे ज़्यादा यह महसूस करते हैं... किसी भी एक भाव को जब हम सबसे ज़्यादा जी रहे होते हैं.. या जब वह हमें सबसे ज़्यादा परेशान करने लगता है तो हम उसके एक विचित्र से मोहपाश में बंध जाते हैं... उसे हमें लिखकर अपने शरीर से निकाल देना होता है...कैसे भी.... उस वक़्त हमारा जो भी लिखना चल रहा होता है.. हम पाते हैं कि हम अचानक वह लिखने लगे हैं जिस भाव से हम पिछले कुछ समय से परेशान थे... उस भाव के भीतर आते ही एक पेटर्न नज़र आने लगता है... और यह डरा देंने वाला चमत्कार जैसा है...। लगता है कि इसका यहीं इसी जगह होना एक बहुत बड़े पेटर्न का हिस्सा है... फिर लगने लगता है कि असल में सब चीज़ एक साथ जुड़ी हुई है... एक सूत की तरह जिसकी बात वर्जीनिया वुल्फ करती हैं। ठीक वैसे ही जीवन भी है... हम जैसा सोच रहे हैं हम असल में बिल्कुल वैसा ही जी रहे हैं, जैसा हम जीना चाहते थे...। या अगर कोशिश करके हम कुछ अलग भी जीने लगे तब भी हम देखते हैं कि वह अलग जीना भी एक किस्म के पेटर्न में फिट होकर ठीक वहीं, उसी जगह आ गया है जिस जगह पर रहकर हम जीना चाहते थे। फिर एक दूसरी बात जो आज मैं सुबह पढ़ रहा था वह भी बहुत कुछ इसी तरह से अलग किस्म की है...। इसे “लेखक की रोटी” नाम की किताब में मंगलेश डबराल ने लिखा है.... “काश हम कवि पहले चोर या डाकू होते। एक दिन वाल्मीकि की तरह क्रौंच-वध जैसा कोई दृश्य देखते और हमारे मुख से कविता फूटती और हम महाकवि बन जाते.... या हम कोई राजकुमार होते और एक दिन संसार का दुख-दैन्य और जरा-मरण देखकर सब कुछ छोड़कर निकल पड़ते और मनुष्य की मुक्ति का रास्ता खोज लेते। ऎसा कुछ नहीं हो सका... हम सामान्य मानवीय जीवन से ऊपर नहीं उठे...” (मैंने कुछ चुने हुए वाक़्य लिए है) दूसरी बात जो मुझे बहुत ही दिलचस्प जान पड़ती है वह है हमारे सारे के सारे दुख.. तकलीफें... ज़िद... पीड़ाए.. चमत्कार.. खुशी... यह सब कितने सामान्य है...कितने दैनिक है। दैनिक ही सही शब्द है... क्षणिक हो सकता था पर उसके अपने अलग अर्थ निकलते हैं....। जिस तरह बहुत देर तक जब कोई भाव तकलीफ देता है तो हमारे लेखन का हिस्सा हो जाता है.. कुछ इस तरह कि उसे इस पेटर्न में आना ही था... पर हम कितनी तक़लीफों को अपने साथ लेके चलते हैं...?? और कितनी देर तक??? हम तुरंत उसे किसी गुस्से पर खर्च कर देना चाहते हैं...। हमारी दिक़्कत है कि हम विपरीत नहीं तैर रहे हैं.. हम असल में इस जीवन में बहाव के साथ है... (बहाव के बदले बाज़ार भी पढ़ सकते हैं।) हमें सब स्वीकार्य है... हमारी किसी भी तरीक़े की कोई ऎसी लड़ाई नहीं है जिसका असर हमारे पूरे होने पर पड़े.... इसलिए मैंने दैनिक शब्द इस्तेमाल किया...। आजकल मैं बहुत से जवान फिल्म निर्देशकों के संपर्क में आया...। मुझे निजी तौर पर बड़ी तकलीफ होती है यह देखकर कि उनका सारा फिल्म बनाने का उत्साह विदेशी फिल्मों को देखकर आता है.. सबके अपने बंधे बधाए पेटर्न है जिसमें वह खपना चाहते हैं... लगभग उन्हें जो भी करना है वह उनके बातचीत में दिखता है...। मैंने एक दिन किसी एक से यह सवाल किया... “जब तुम्हें पता है कि तुम ऎसी सी फिल्म बनाना चाहते हो तो फिर उसे बना क्यों रहे हो??” “क्या मतलब?” “मेरे हिसाब से यह तो बहुत बोरिंग है... थका देने वाला काम... या अपने ही किसी काम को फिर से करने जैसा काम... तुम बोर नहीं हो जाओगे...?” “अरे तो और कैसे बनाए फिल्म?” असल जवाब मुझे भी नहीं पता हैं...। पर फिल्म बनाने के पीछे जो विचार है... मैं उस बात पर बात करना चाह रहा था... उस विचार में वह तकलीफ नहीं है... उसकी बातों में वह एक बात कहने का ज़िक्र भी नहीं है जिसके लिए वह फिल्म बनाना चाहता है...। सारा उत्साह किस तरह की वह फिल्म दिखेगी इसपर है....। मेरे पास और भी बहुत से सवाल थे.. जिसे शायद मैं खुद ही से पूछ्ना चाह रहा था... पर मैंने जाने दिया... मैं यूं भी उस केटेगिरि में गिना जाने लगा हूँ... जिसमें लोग आपकी पीठ पीछे आपको इंटलेक्चुअल कहकर पुकारते हैं.. यहां इंटलेक्चुअल को पागल भी पढ़ सकते हैं। नाटकों की बात ज़्यादा नहीं करना चाहता क्योंकि मैं उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा हूँ... पर जो दिखता है वह कुछ यूं है..... “नाटक एक अच्छी इंवनिंग प्रदान करे... और करता रहे... जिसमें सभी नाटक करने वाले एक दूसरे से हंस कर मिलें.. और हंसी खुशी की बातें करे..... हमेशा..।“ अब इस सबमें बात जहां से शुरु हुई थी.. वह एक व्यक्ति की...। वह व्यक्ति जो चीज़े बनाता है.... मैं हमेशा उस व्यक्ति को लेकर उत्साहित रहता हूँ... इसलिए शायद यह लिख रहा हूँ। जब भी मैं ऎसे किसी व्यक्ति से मिलता हूँ जो चीज़े बनाता है... मैं कूद-कूदकर उससे बात करना चाहता हूँ... मैं बच्चों जैसा हो जाता हूँ...। इसमें मैं बार-बार इसी बात पर आता हूँ कि क्या चीज़ है जो हमसे इस वक़्त यह काम करा रही है...? मैं फिर उसका पेटर्न पकड़ना चाहता हूँ... मैं वापिस उसी जगह नहीं जाना चाहता जिस जगह पर खड़े रहकर मैंने अपना पिछला काम शुरुकिया था। या हम बस परिस्थियों से बने हुए आदमी है.. (जैसा कि अधिक्तर मुझे मेरे साथ लगता है.. कि मैं परिस्थियों की वजह से ऎसा हूँ.. मेरी जगह कोई भी होता तो वह लगभग ऎसे ही लिखने लगता.. या शायद मुझसे बहतर ही लिखता....) मैं हमेशा से मानता आया हूँ कि हम जो भी चीज़ बनाते हैं.. उसमें हमारे जीवन के सारे पेटर्न नज़र आते हैं..। हमारी likes, dislikes ... हमारा चरित्र.. सब कुछ नज़र आता है..। मुझे शायद खुद को बदलना पड़ेगा... अगर मैं चाहता हूँ कि मेरे लिखने और निर्देशन में बदलाव आए..। पर बदलाव शब्द को मैं कितना जानता हूँ? एक विचित्र बात यहां पर मैं देखता हूँ.... यह जो मैंने लिखा वह सिर्फ वर्जीनिया वुल्फ को रात में पढ़कर सोने का नतीजा था..। कितनी असरदार लेखनी है उनकी.... क्या मैं अपने लेखन में कभी उनकी खुशबू के पास भी पहुंच सकता हूँ? कभी... एक बार...???? बस एक बार!!!..................

Wednesday, February 6, 2013

NOTES FROM A SMALL ROOM.....

बहुत सुबह उठना मुझे हमेशा से पसंद है। मैं अपने कमरे में अंधेरा रखता हूँ और बहुत धीमी गति से रोशनी का कमरे में प्रवेश देखता हूँ.... यह हमेशा मुझे चमत्कार लगता है। शायद बहुत से छोटे कमरों में रहने के कारण मुझॆ हमेशा छोटी चीज़ों में दिलचस्पी रही है। मुझे सूर्य अस्त और सूर्य का उगना कभी बहुत पसंद नहीं आया.... वह मेरे लिये बहुत बड़ी चीज़ है... मुझे इन दोनों का असर बहुत छोटी चीज़ों पर महसूस करना बहुत पसंद है। जैसे बहुत पहले नैनीताल की सुबह देखी थी.... एक झाडू लगाता हुआ आदमी...चाय की दुकान का खुलना... दूर एक भजन की किसी मंदिर में शुरुआत... हरिओम शरण का वह भजन अभी भी याद है... वह बिल्कुल पूना में देखी सुबह जैसी थी पर फिर भी बहुत अलग... अखबार वालों का साईकल पर निकलना... दूधवाला... पहली चिड़िया की अलसाई पहली आवाज़... यह सब किसी नाटक के पैदा होने जैसा लगता है.. और यह सब सिर्फ सुबह के पात्र हैं... हर शहर में.. हर गांव में यह अपने नाटक की शुरुआत बिल्कुल अलग तरीक़े से करते हैं... नाटक एक ही है... पात्र भी लगभग वहीं हैं... पर फिर भी नाटक बिल्कुल अलग..। शुरुआत मुझे हमेशा बहुत पसंद है... किसी नाटक की शुरुआत के वक़्त मैं बहुत उत्साहित रहता हूँ चाहे फिर उसे मैं लिख रहा हूँ या देख रहा हूँ...। फिर मुझे दौपहरे भी बहुत पसंद है... मेरे गांव की दौपहरे मुझे बहुत याद आती है... बाड़े में हमेशा उत्सव का माहौल रहता था.. पर उत्सव मुझे कभी बहुत आकर्षित नहीं करते थे... मुझॆ उन दौपहरों के अंधेरे कोनों में खेले जा रहे खेल बहुत सुंदर लगते थे...। छोटे सीक्रेट... एक गुप्त कोना... एक बिल्ली जिससे देर तक बात करना... एक नदी... पर पूरी नदी नहीं उसका एक छोटा किनारा...। जब लिखना शुरु किया तब भी मुझे वह दौपहर बहुत अच्छी तरह याद है जिसमें मैंने शक्कर के पांच दाने का पहला शब्द लिखा था.. “मैं लड़ रहा हूँ.....”। मेरे लगभग सारे नाटकों की शुरुआत दौपहर के ख़ालीपन में हुई है... और हर नाटक की शुरुआत का वक़्त मुझे बहुत अच्छी तरह याद है। उस वक़्त किस तरीक़े का संगीत बज रहा था वह भी मुझे याद है....। यह अजीब है मुझे सुबह होते देखना पसंद है... और मेरे लगभग सारे कामों की शुरुआत दौपहरों में हुई है। मैं अपने खुद के साथ बहुत व्यस्त रहता हूँ... मैं किसी भी एक बात पर पूरा दिन बिता सकता हूँ.. जैसे कल मुझे मेरी बाल्कने पर चींटियों की रेल दिखी.... अब उसकी शुरुआत और अंत देखने की उम्मीद इतने थी कि मैं अपने उत्साह को रोक नहीं सकता हूँ.... पर तुरंत मेरी दिलचस्पी बदल जाती है जब मैं उन चींटियों के बीच एक ऎसी चींटी को देख लेता हूँ जो पूरी तरह चींटियों के चलने के या काम करने के नीयमों का पालन नहीं कर रही होती है... किसी एक ही चींटी की चाल में मस्ती होती है। हम सब कितना डरते हैं कि कहीं हम चली आ रही लाईन से अलग ना हो जांए... या अलग ना कर दिये जाएं... एक अच्छे आदमी बने रहने के सारे नीयम हम कितनी संजीदग़ी से निभाते हैं... क्या हमारी चाल में मस्ती है..??? फिर शाम आती है...। इन शामों को मैं टहलना बहुत पसंद करता हूँ... शाम को मेरे संबंध हमेशा किसी ना किसी से बन जाते हैं... जैसे मेक्लॉडगंज में एक पेस्ट्री वाला था... कृष्ना.. मेरी शामें वहां उसके साथ बीतती थी... उत्तरांचल के पहाड़ों पर हंसा था... मेरी बिल्डिंग के नीचे एक गोलगप्पे वाल है जो मुझे बेकेट के एबसर्ड नाटकों का पात्र लगता है... मेरे और उसके संवादों में कोई भी तालमेल नहीं होता है... मैं अगर उससे कहूँ कि आज बहुत अकेलापन लग रहा है.. तो वह कहता है कि पानी में मिर्ची थोड़ी तेज़ है आज... मैं कहता हूँ... यह फिल्म देखी तुमने? वह कहता है कि कल बारिश की वजह से आ नहीं पाया.. आप कहीं मुझे ढ़ूंढ़ तो नहीं रहे थे?.... मुझे बहुत अच्छा लगता है उस गोलगप्पे वाले के साथ अपना वक़्त बिताना.... मैंने अपनी बहुत निजी तक़लीफों को उससे बिना हिचके कह दिया है.... और उसके दिये सारे जवाब राम बांड की तरह काम करते हैं। हर गोलगप्पे के बाद मेरे चहरे की मुस्कुराहट बढ़ती जाती है। शाम को हमेशा यूं ही किसी से देर तक बात कर लेने का बहुत सुख होता है.. मुझे लगता है कि एक पूरा दिन बिता लेने के बाद.. ठीक रात में घुसने के पहले लोग उस दिन के बारे में बात करना चाहते हैं...। इसलिए शायद वह शामें ही है जहां मैंने अपने बहुत सुंदर दोस्तों को पाया है....। टहलने के अलावा मुझे अपनी अकेली निजी शामें भी बहुत पसंद हैं.. जिनमें मैंने कुछ भी नहीं किया है.... उनमें ज़्यादा से ज़्यादा मैंने दीवारों में छुपे हुए चहरों को देखा है... उनका ज़िक्र रहने देते हैं। फिर रात होती है...। मैं इस वक़्त धीमी गति का संगीत रखता हूँ... और तब तक बल्ब नहीं जलाता हूँ जब तक कि रोशनी का आख़्ररी कतरे की विदाई ना कर दूं....। अपने कमरे से इस विशाल ब्रह्मांड का निकलना... पूरे दिन का जाना... किसी एक नाटक का अपने अंत पर पहुंचना... इसमें चुप्पी की ज़रुरत होती है... और उस चुप्पी में अगर एकदम सहीं संगीत को मिला दिया जाए तो वह दिल को छू देने वाला अंत हो सकता है...। ऎसे वक़्त मैं चाय नहीं कॉफी बनाता हूँ। मैंने अपनी अधीकतर पढी किताबों को ठीक इन्हीं शामों और रातों के बीच कॉफी पीते हुए खत्म किया है। किसी लंबे चली आ रही कहानी को खत्म करना... इससे सुंदर वक़्त कौन सा हो सकता है...। मेरे चहरे पर हमेशा एक मुस्कुराहट होती है... ऎसे वक़्त मैं अधिक्तर अपनी पढ़ी हुई किताबों को फिर से पढ़ने के लिए उठाता हूँ...। पूरे कमरे में टहलते हुए उस किताब को फिर से पढ़ता हूँ... पढ़ी हुई किताबों को फिर से पढ़ने में असल में पढ़ने का सुख है... वह दूसरी बार में आपकी अपनी हो जाती है... अपके अपने जिये हुए की खुशबू उस किताब के पन्नों से आने लगती है। मैं बहुत देर रात तक नहीं जगता हूँ...। सुबह होती देखने का उत्साह मुझे हमेशा जल्दी सुला देता है। एक ड्रिंक... हाथ में सिग्रेट... उल्टी पड़ी हुई कोई किताब और पीछॆ हल्के सुर में चलता हुआ संगीत... यह दृश्य को देखते हुए मैं कब सो जाता हूँ मुझे पता ही नहीं चलता। सो आज बहुत सुबह उठ गया हूँ....। अभी रोशनी ने कमरे में प्रवेश किया है.... कबूतरों चिड़ियों की आवाज़.... बाहर दो चील भी अपने करतब कर रहीं हैं... सामने के पेड़ पर नौ चिड़िया बैठी हुई हैं..। अब मैं लिखना बंद करता हूँ..... चाय पीने की इच्छा है...। जिस पढ़ी हुई किताब को फिर से पढ़ते हुए आज सुबह की शुरुआत हुई वह यह है.... HAPPINESS IS AS ELUSIVE AS BUTTERFLY, AND YOU MUST NEVER PURSUE IT. IF YOU STAY VERY STILL, IT MIGHT COME AND SETTLE ON YOUR HAND.BUT ONLY BRIEFLY. SAVOUR THOSE PRECIOUS MOMENTS, FOR THEY WILL NOT COME YOUR WAY VERY OFTEN. -RUSKIN BOND… कितनी सुंदर सुबह है यह....।

Tuesday, February 5, 2013

बिना वजह...

काम खत्म होता है... एक सपना जिसे बहुत मन से देखा गया था खत्म होता है... दिन, पूरा जी लेने के बाद अपने अंजाम पर पहुंच जाता है... शाम टहलते-टोहते काली होती जाती है... एक गोलाकार शुरु होता है और अपने ही उद्गम से अंत में चिपक जाता है। हम कहते हैं असल में हर चीज़ गोल है...। खेल है लुका छिपि का.. हम हर सपने में आँखों पर पट्टी बांध लेते हैं... फिर भटकते हैं.. लगता है इस पूरी दुनिया में कोई चीज़ है जो हमसे टकरा जाएगी जब आँखें बंद होंगी... हमें पता नहीं होगा और रात कट जाएगी... और अधिक्तर रात इसी तरह कट जाती हैं...। जब सुबह होती है तो चमत्कार लगता है... लगता है कि पट्टी उतर गई है... क्या पट्टी उतर गई है? क्या हम सुबह देख रहे हैं? शाम होते-होते लगता है कि सब छलावा है... हम बस.. कुछ कदम चलकर वापिस वहीं खड़े हैं। किन्हीं अच्छे क्षणों में हमें हमारे पद्दचिन्ह दिखते हैं.. लगता है कि कितनी लंबी यात्रा की है... पर असल में हमारे पैर एक कदम आगे चलकर चार कदम पीछे आते हैं। यह पीछे की यात्रा टोहना हैं... यह टटोलना है... हम चले कम थे भटके ज़्यादा... हम सुबह उठते हैं तो रात में देखे सपनों को टटोलने में लग जाते हैं...। मैंने एक नाटक देखा था... मैं प्रेम में था... किसी ने सपने में मुझसे कहा था कि यह काग़ज रख लो और इसपर वह लिखो जैसा तुम जीना चाहते हो... तुम बिल्कुल वैसे ही जियोगे... पर तुम्हारे पास सिर्फ यह रात है.... सुबह होते ही कागज़ गायब हो जाएगा..। मैं तुरंत लिखने बैठ गया.. मैं प्रेम में था और मैं प्रेम लिखना चाहता था... मैं पेन ढ़ूंढ़ने लगा... पूरा कमरा छान मारा पेन नहीं मिला... फिर एक कप में पेन पड़ा था मैं उसे लाया पर उसमें सियाही ख़त्म हो चुकी थी.. मैं हड़बड़ाने लगा... मैं अपने घर से निकल गया... कोई दुकान..? किसी इंसान के पास पेन मिल जाए...? कोई नहीं दिखा...। फिर अचानक वह दिखी... मैंने उससे पूछा ’क्या तुम्हारे पास पेन है.. मैं हमारे प्रेम के बारे में लिखना चाहता हूँ...’ उसने अपने पर्स में खोजा उसे लाल रंग का एक पेन दिखा... मैं उससे मांगना चाहता था.. पर वह अचानक भागने लगी... मैं उसके पीछे भागा... चिल्लाता रहा... ’मैं हमारी बात लिखूंगा... हमारा प्रेम... रुको.. सुनों.. रुको....’ वह नहीं रुकी... दूर जाकर वह खड़ी हो गई और उसने पेन तोड़ दिया....। मैं अपने कमरे में वापिस था... पेन ढूंढना मैंने त्याग दिया..तभी मुझे अपनी किताबों में छुपा हुआ पेन दिखा... मैं बहुत देर तक उस कोरे कागज़ के सामने बैठा रहा... पर कुछ लिखने की इच्छा नहीं हुई...। मैंने बिना किसी वजह के चित्र बनाने लगा... जो मेरी समझ से बाहर थे... पर मैं उन चित्रों में बहुत सी संभावनाए देख सकता था... तभी सुबह हो गई... और वह कागज़ गायब हो गया। मैं वापिस उद्गम पर खड़ा था...। मुझे बिना किसी वजह के चित्र याद रह गए... फिर लगा कि यह सही है... बिना किसी वजह के दिन.. साल... सब चीज़ सुलझने लगी...। फिर पद्चिन्ह को देखा... बिना किसी वजह का पहला कदम.. बस बात यहीं खत्म हो जानी चाहिए..। फिर भी जिस सपने ने यह बात बताई वह भी पीछे चलने पर मिला था... आगे चलना हमेशा सहमा सा अर्थ भीतर दबाए रहता है... बिना वजह की सीढ़ीयों पर काई के समान जमा वह सहमा अर्थ... जब उसपर पैर फिसलता है... तब वह जो चोट.. वह तकलीफ़ है पीड़ा है.. वही नाटक है,कहानियां है, कविताएं है.. और असल में कुछ भी नहीं है।

Saturday, January 26, 2013

भवानी भाई, दुबेजी.. और कविताएं.....

भवानी प्रसाद मिश्र पर लिखने बैठा हूँ तो आश्चर्य हो रहा है कि मैं अपने बचपन से इन्हें जानता हूँ। शायद लिखना ना होता तो यह बात मेरे ज़हन में कभी नहीं आती। मुझे मेरे होशंगाबाद के दिन सबसे पहले याद आते हैं.. जब होशंगशाह गौरी के टूटे फूटे किले के पास एक पीपल के पेड़ के नीचे हम स्कूल से भागकर छिपा करते थे। बाद में वह हमारा अड्डा बन गया। एक दिन हमारे हिंदी के टीचन ने हमारे अड्डे पर धावा बोल दिया... बहुत पिटने के बाद उन्होंने कहा कि तुम्हें पता है भवानी प्रसाद मिश्र ने अपनी कविता “सन्नाटा” उसी टूटे फूटे किले के पीपल के पेड़ के नीचे लिखी है। मैं इस बात से चमत्कृत था। मुझे कभी कविताएं समझ में नहीं आई... मुझे लगता था कि हम जो किताबी कवियों को पढ़ते हैं वह असल में मंगल गृह की बातें करते हैं.... मुझे उस वक़्त कविताओं से नफरत थी। तब शायद पहली बार ऎसा हुआ कि मै सन्नाटे को लेकर उस पीपल के पेड़ के नीचे गया... मुझे वह घाट भी दिखा जहां बैठकर पागल गाया करता था... उस रानी की आहट भी मैंने पहली बार सुनी... वह उल्लू, सांप और गिरगट.. सब.. सब कुछ वहीं थे। इसके बाद मैं अपने दोस्तों को उस पीपल के नीच ले जाकर यह कविता सुनाता था... और यह कविता यहीं बैठकर भवानी प्रसाद मिश्र ने लिखी है, यह बात कुछ यूं कहता था कि मानों यह बात भवानी प्रसाद मिश्र ने ही मुझे बताई हो। इसके बाद “सतपुड़ा के जंगल” कविता का जीवन में आना लाज़मी था। पर फिर भी कविताओं ने वह प्रभाव नहीं छोड़ा... बात मेरे बड़े होने के उहापोह में खो गई। इसके बाद थियेटर से रिश्ता जुड़ा। मैं बंबई आकर सत्यदेव दुबे के साथ बतौर अभिनेता काम करने लगा। उनके पहले नाटक में मैंने मुख्य भूमिका निभाई “इंशा अल्ला”... उस नाटक के अंत में मैं एक कविता कहता था जो मुझे बेहद पसंद थी। सच कहो तो पूरे नाटक में मैं उस कविता के कहने का इंतज़ार करता था... “गीत-फ़रोश”। दुबे जी को भी कई बार वह कविता कहते हुए सुना था... मेरे पूछने पर उन्होंने कहा कि यह कविता भवानी भाई की है। पता नहीं उस वक़्त मैं भवानी प्रसाद मिश्र और भवानी भाई दोनों को अलग समझता रहा। यह शायद छोटे शहर की मानसिकता भी थी कि एक आदमी जो मेरे गांव के मेरे अड्डे (यानी टूटे फूटे किले के पीपल के पेड़) पर बैठकर कविता लिखता है.. उसकी कविता बंबई के नाटक में कैसे हो सकती है? फिर एक शांम दुबे जी की महफिल में अमरीश पुरी साहब भी आए हुए थे..। हम सब युवा अभिनेता दुबक कर एक कोने में पुरी साहब और दुबे जी की बातें सुन रहे थे। मुझे बहुत ज़ोर की पेशाब लगी, मैं बाथरुम में चला गया। मैं पिशाब कर रहा था तभी बाहर अचानक चुप्पी छा गई। फिर मुझे पुरी साहब की गूंजती हुई आवाज़ सुनाई दी... “तो पहले अपना नाम बता दूँ तुमको, फिर चुपके-चुपके धाम बता दूँ तुमको; तुम चौंक नहीं पड़ना, यदि धीमे-धीमे मैं अपना कोई काम बता दूँ तुमको।“ मैं अचानक उछल पड़ा..। मेरा गांव, मेरा अड्डा.. पीपल का पेड़, वह टूटा-फूटा किला... सब कुछ मेरा था.. जो बाहर हो रहा था। मैं बाथरुम में ही अपने उत्साह को दबाए बैठा था.. कविता खत्म होते ही सब लोग ज़ोर-ज़ोर से ताली बजाने लगे..। मैं बाहर आया और इच्छा हुई कि सबको कहूं कि यह मेरी कविता है.. भवानी प्रसाद मिश्र ने मेरे अड्डे पर बैठकर लिखी थी यह कविता। मुझे उस वक़्त लगा कि किसी को यह कविता समझ में नहीं आ सकती जब तक उन्हें वह पीपल का पेड़ ना पता हो... वहां से कैसे वह घाट दिखता है...? किला पीछे किस तरह हरकत करता है..?. कैसे कोई कैसे यह कविता समझ सकता है बिना मेरे अड्डे को जाने..??? यह मेरी कविता है.. मैंने इसे वहीं उसी जगह पढ़ते हुए समझी है जिस जगह वह लिखी गई है.. मैं पता नहीं क्या कुछ कहना चाह रहा था... पर मैं बहुत डरपोक था.. मैं चुप ही रहा। बाद में सब भवानी भाई की तारीफ करने लगे.... और मेरी बात समझ में आई कि यह तो भवानी प्रसाद मिश्र ही भवानी भाई हैं। तब से भवानी प्रसाद मिश्र मेरे लिए भी भवानी भाई हो गए। स्कूल की किताब से निकलकर अब उनसे एक आत्मीय संबंध जुड़ गया। मैंने उसी भीड़ के कोने में बैठे अपने दोस्तों को यह बात बतानी चाही कि यह कविता भवानी भाई ने होशंगाबाद में एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर लिखी थी... वह सभी हंस दिये.. बात किसी ने नहीं मानी। कुछ सालों में मैं दुबेजी के करीब आ गया। मेरा छोटे शहर का डर जाता रहा। दुबे जी भी बढ़ती उम्र में बहुत अकेले हो गए थे। वह रात को हालिड़े इन में जाकर बैठ जाते थे। इन्हीं कुछ अकेली रातों में मैंने कभी-कभी दुबेजी का साथ दिया था। हमारे बीच भवानी भाई की बातें निकलती रहती थीं...। दुबेजी भवानी भाई के बहुत करीब थे... उन्होंने बताया कि भवानी भाई की बीवी उनसे बहुत चिढ़ा करती थी.. वह गोरेगांव में रहते थे। भवानी भाई फिल्मों के लिए लिखने लगे थे... तो देश के बाक़ी सारे कवियों ने उन्हें बहुत भला बुरा कहा... इसी बात पर उन्होंने गीत-फ़रोश कविता लिखी थी। यह एक तरीके का जवाब था। मुझे यह बात बहुत अच्छी लगी.. उन दिनों मैं लड़कियों को बहुत गीत-फ़्ररोश सुनाया करता था। अब मेरे पास उस कविता की एक कहानी भी थी। हम कैसे किसी कवि के करीब आते रहते हैं... मैं भवानी भाई के बहुत करीब था... पर जिस कविता ने मुझे उनका क़ायल बनाया वह थी “सुख का दुख” मैंने यह कविता दुबेजी के मुँह से सुनी थी। “ज़िंदग़ी में कोई बड़ा सुख नहीं है... इस बात का मुझे बड़ा दुख नहीं है..”। इसके एक-एक शब्द पानी की तरह मेरे भीतर उतर गए थे। मैंने दुबेजी से कहा कि आप मुझे यह कविता दे दें.. दुबेजी ने साफ मना कर दिया। कहने लगे कि “तुम लड़कियों को इंप्रेस करने के लिए मांग रहे हो.. मैं नहीं दूंगा।“ मैंने फिर वह कविता उनसे नहीं मांगी... पर कई बार उनके मुँह से सुनी। फिर एक दिन इंटरनेट पर मुझे वह कविता मिल गई। मैंने तुरंत उसे याद कर ली सोचा दुबेजी को एक दिन सुना दूंगा... पर वह दिन नहीं आ पाया...। दुबेजी की तबियत बहुत ख़राब हो गई थी। मैं उन्हें यह कविता कभी नहीं सुना पाया। “मन एक मैली कमीज़ है...” मेरी किताबों की शेल्फ में दुब्की पड़ी एक पतली सी किताब। इस किताब में भवानी भाई की लगभग सारी उमदा कविताएं है.. सिवाए ’सुख का दुख’ को छोड़कर। भवानी भाई की सारी कविताओं में जो कविता मेरे सबसे क़रीब है वह है “घर की याद”। मैंने इस कविता को पढ़कर रोया हूँ... ज़ार-ज़ार.. इतनी इंमानदार कविता... इतनी सहज और सरल। शायद इसलिए भवानी भाई का असर इतने भीतर तक होता है। पिछले कुछ सालों से मेरे घर होने वाली सारी देर रात की महफिलों का अंत हम इसी कविता से करते हैं....। मैं जब भी इसे पढ़ता हूँ... मैंने देखा है कि उस वक़्त हम सब अपने घरों में.. अपने माँ बाप के पास चले जाते हैं.... “पिताजी भोले बहादुर.. वज्र-भुज नवनीत सा उर”, “माँ कि जिसकी स्नेह-धारा का यहाँ तक भी पसारा, उसे लिखना नहीं आता, जो कि उसका पत्र पाता।“ इस कविता का एक-एक वाक़्य भीतर कई ज़ंग लगे दरवाज़े खोल देता है.. हर बार यह कविता मैं बिल्कुल नए तरीक़े से पढ़ रहा होता हूँ। हर बार लगता है कि यह कविता मैं पहली बार समझ रहा हूँ। भवानी भाई की कविता इतनी सहज है कि आपसे बात करती है... आप इसे कह देतें है और लोग वाह कर देते हैं... उनकी कविताओं में कविता का भारीपन नहीं है। भवानी प्रसाद मिश्र स्कूल के दिनों से साथ हुए थे.. अब भवानी भाई नाम से मेरे जीवन में बस गए थे। उनका नाम लेते ही लगता है कि मैं किसी बहुत अपने की बात कर रहा हूँ... जिनका एक लंबा साथ है मेरे जीवन में रहा है। इस बीच दुबेजी की तबियत बहुत बिगड़ती चली जा रही थी। एक दिन उनसे पृथ्वी थियेटर में मुलाकात हुई... मुझसे उनकी हालत देखते नहीं बन रही थी..। उन्होंने कहा कि एक कविता सुनाओं... हम दोनों के बीच कविता का संबंध बहुत सुंदर था... और मेरे मुँह से फिर भवानी भाई निकले... मैंने उन्हें “आराम से भाई ज़िन्दगी ज़रा आराम से” सुनाई। “आराम से भाई ज़िन्दगी ज़रा आराम से, तेज़ी तुम्हारे प्यार की बर्दाश्त नहीं होती अब।इतना कसकर किया गया आलिंगन ज़रा ज़्यादा है जर्जर इस शरीर को.... आराम से भाई ज़िन्दगी ज़रा आराम से...।“ वह मुग़्ध इसे सुनते रहे। उन्हें आश्चर्य हुआ कि उन्हें इस कविता के बारे में बिल्कुल नहीं पता था। तुरंत उन्होंने मुझसे यह कविता मांगी... मैंने कहा कि आप ’सुख का दुख’ दे दीजिये मैं आपको यह कविता दे दूंगा... इस हाथ ले इस हाथ दे...। दुबेजी हसने लगे.. कहने लगे ’सुख का दुख’ तो तुम्हें मैं नहीं दूंगा। मैंने उनसे वादा किया कि मैं अगली मुलाक़ात में उन्हें यह कविता दे दूंगा...। मैं वादा पूरा नहीं कर पाया। दुबेजी तीन महीने कोमा में रहने के बाद चल बसे। मृत्योपरांत सभी लोग पृथ्वी थियेटर में मिले उन्हें श्रधांजली देने के लिए... मुझसे कविता पढ़ने को कहा गया। तब मैंने अपनी जेब से “सुख का दुख” निकाली...। इच्छा हुई कि इस कविता के पहले मैं एक पूरी यात्रा के बारे में बात करुं.... भवानी प्रसाद मिश्र से लेकर भवानी भाई तक... उस टूटे-फूटे किले के सन्नाटे से... पीपल के पेड़ तक... “आराम से भाई ज़िन्दगी ज़रा आराम से” से “सुख के दुख” तक.. और तब यह कविता सुनाऊं... क्योंकि मैंने सीख़ा है कि जब आपको कविता के पीछे की कहानी पता चलती है तब कविता आपकी अपनी हो जाती है। जैसे भवानी भाई मेरे अपने हो चुके थे। मैं सीधे कविता पर आया... कविता सुनाई और चुप चाप वहां से चल दिया। दुबे जी की वज़ह से मैं भवानी भाई के करीब आया और भवानी भाई की वजह से दुबेजी के..। बहुत कम ऎसे लेखक होते हैं जिनको लेकर आपके मन में यह ख़्याल आता है कि एक शाम चाय के साथ इनके साथ टहला जाए...। भवानी भाई को लेकर मेरे भीतर बार-बार यह ख़्याल आता है कि इनके साथ एक बार टहला जाए.. किसी एक लंबी शाम को... एक छोटी यात्रा जैसी चाय पी जाए। उनके मुँह से उनकी कविताएं सुनी जाए... और जो बात मैं सच में उनसे पूछना चाहता हूँ कि क्या सच में उन्होंने होशंगाबाद के उस टूटे-फूटे किले के पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर “सन्नाटा” लिखी थी।

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल