Saturday, July 27, 2013

Colour Blind....1

हमें कोई पेंटिग क्यों पसंद आती है? मैंने कहीं यह पढ़ा था.. कि जब हम अपने जीवन के अंश उन रंगों में कहीं देख लेते है तो वह रंगो का समूह हमसे बात करता दिखता है... हम कहते हैं यह पेंटिग मुझे बहुत पसंद है। टेगोर अब मुझे रंगो में दिखते हैं... एक विशाल केनवास पर सघन रंगों के बड़े-छोटे स्ट्रोस..। थोड़ा दूर हटके उस पेंटिग को देखों तो जगहें नज़र आने लगती हैं... कुछ लोगों के चहरे दिखने लगते हैं। मैं जगह को पकड़ता हूँ... उसमें कुछ चहरों को मिलाकर पेंटिंग के करीब पहुंचता हूँ... तो वहा सिर्फ एक कत्थई रंग का ब्रश स्ट्रोक नज़र आता है... जैसे किसी कोरे कागज़ पर महज़ ’क...’ लिखा हो...। मैं इन सारी गड़मड़ आकृतियों से बात करने लगता हूँ... रंगों के गहरे स्ट्रोक्स को जब छूने जाता हूँ तो वह अभी भी गीले लगते हैं। कुछ रंग कम हैं... यह समझ में आता है... पर कमी और भी कहीं है...। असल में कमी ठीक शब्द नहीं है... ख़ाली है कुछ ऎसा लगता है। मानों एक कुर्सी पूरी ज़िदग़ी खाली रखी है कि वहां कोई आकर बैठेगा। यह ख़्याल आते ही मुझे यह पेंटिंग अपनी लगने लगती है। अभी-अभी टेगोर नाटक का अपना हिस्सा ख़त्म करके चाय पी रहा हूँ। इस तरह से लेखन मैंने पहले कभी नहीं किया... एक व्यक्ति का लिखा हुआ और उसके जीवन के अंशो को दिमाग़ में रखकर संवाद लिखते जाना। मुझे कहीं बीच में लगा कि मैं बहुत असंभव से बिख़राव को एक धागे में पिरोने की कोशिश कर रहा हूँ....। यह एक तरह की लघु कथा है... जिसमें हर जगह टेगोर है और असल में कहीं भी नहीं है...। लिखना खत्म करते ही लगा कि जैसे घर में से कुछ सामान निकल गया है...। कमरा ख़ाली लगने लगा। मैं गाना गुनगुना रहा था मुझे लगा कि वह गूंज रहा है... दीवारों से टकराकर सारा संगीत वापिस मेरे पास चला आ रहा है... कितना ख़राब गाता हूँ मैं.... मैं चुप हो गया। यह चुप्पी भी कितनी हल्की है... मैं चल रहा हूँ तो लग रहा है कि कपड़े नहीं पहने हैं...। एक सहारा चाय है जो बहुत अच्छी बनी है... अदरक़ गले को सहला रही है।

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

विचारों के उत्कृष्ट बादलों पर..

माँ said...

बहुत दिनों बाद तुम्हारा कुछ लिखा पढ़ने को मिला |बहुत दिनों बाद मन ने मनपसंद खाना खाया |

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल