Thursday, December 15, 2011

सपना....


बहुत पहले मैं एक लड़की को जानता था जो चिड़िया हो जाने का सपना देखा करती थी।
हम अकसर एक दूसरे से अपने सपनों की बात करते थे... बात हम सीधी करते थे पर मुझे वह सारी बातें सपनों सी लगती थीं। मैं उससे जब भी कहता कि मुझे मेरे सपने कभी याद नहीं रहते... तो वह हंस देती थी...। वह कहती थी कि यह कोई रटने वाली चीज़ थोड़ी है जिसे याद रखना होता है!!! उसे सब याद था...। उसके सपनों का दायरा बहुत बड़ा था... वह बचपन की घटनाए भी सपनों की तरह सुनाती थी।
एक चिड़िया का घोंसला उसके घर के ऊपर था... जब भी वह टूटे हुए अंड़ों को देखती तो उदास हो जाती... कभी-कभी उसे चिड़िया के छोटे बच्चे भी नीचे पड़े हुए दिखते जिन्हें वह बिना हाथ लगाए वापिस धोंसलों तक पहुंचा देती। उसके बचपन की कई दोपहरे चिड़िया के धोंसले की पहरेदारी में बीतती थी। एक दिन उसने सपना देखा था कि वह एक चिड़िया के धोंसले में पड़ी हुई है...दूसरे चिड़िया के बच्चों के साथ। वह अपने परों को निकलता हुआ देख सकती थी...। धीरे-धीरे उसकी उम्र के बच्चे.. अपने परों को झटके के साथ खोलकर धोंसले से कूदने लगे थे.... और ऊपर आसमान में उड़ने लगे... वह अकेली रह गई थी.. डरी हुई। अब उसकी बारी थी। उसने उड़ने की तैयारी की.. अपने परों को झाड़ा... फैलाया..। वह धोंसले के कोने तक आई.... और ऊपर आसमान को देखने लगी...। वह कूदने ही वाली थी कि उसे नीचे एक भूखी बिल्ली दिखी जो उसका इंतज़ार कर रही थी...। उसने एक गहरी सांस भीतर खींची और अपने परों को चौड़ा करके धोंसले से कूद गई.... कूदते वक़्त उसने अपनी आंखें बहुत कस कर बंद कर ली थीं। तभी उसकी नींद खुल गई..।
हम लोग नदी किनारे धूम रहे थे जब उसने मुझे यह सपना सुनाया था। उसके सपने हमेशा बीच में कहीं खत्म हो जाते थे... हमेशा अंत होने के पहले उसकी आँखें खुल जाती थी। ’फिर क्या हुआ?’ जैसे प्रश्नों की मैं झड़ी लगा देता... जवाब में वह सिर्फ यही कहती की ’बस मैंने इतना ही देखा था।’ वह कहती थी कि हमें हमेशा अधूरे सपने याद रहते हैं... बीच की ख़ाली जगह... आधे कहे हुए संवाद... चुप्पी...। मुझे सपने याद नहीं रहते थे... मेरे सपने अपना अंत लेकर आते थे शायद... मुझे यूं भी अंत की हमेशा चिंता रहती थी...। किसी भी कहानी को पढ़ते हुए मैं उसके अंत का बोझ अपने कंधे पर लिए हुए उसे पढ़ता... अगर अंत अच्छा होता तो मुझे कहानी पसंद आती वरना मैं चिढ़ जाता। एक दिन उसने मुझसे कहा कि ’तुम पहले कहानी का अंत पढ़ लिया करो... फिर तुम कम से कम कहानी का मज़ा तो ले पाओगे।’ मैं उसकी बात समझता था... पर मैं उसके जैसा नहीं सोच सकता था... मैंने अपना पूरा जीवन भविष्य को देखते हुए जीया था... पर वह कभी भी भविष्य के बारे में बात नहीं करती थी। हम दोनों के बीच सबसे बड़ा अंतर सपनों का ही था। उसे अधूरेपन की आदत थी... और मैं अपने देखे हर सपने को उसकी नीयती तक पहुंचाना चाहता था।
मुझे वह अभी भी याद है। क्योंकि वह बीच में ही वापिस मुड़ गई थी... जबकि मैं आगे चलता रहा। मुझे लगा वह किसी अगले मौड़ पर मुझसे ज़रुर टकराएगी और हम वापिस साथ चलना शुरु कर देंगें... पर ऎसा नहीं हुआ..। वह जिस दिन मुड़ी थी तब से मुझे सपने याद रहने लगे। उसके अधूरे सपनों का अंत मैं अपने सपनों में देखने लगा... उसके जाने के बाद।
काम की तलाश वाली उम्र में मैं उससे मिला था। मुझे लगता था कि यह उन लड़्कियों जैसी है जो सपनों में जीती है। मैं उसे बार-बार खींचकर यथार्थ पर लाता था पर वह हर बार मुझसे छूटकर कहीं चली जाती थी। वह कहती थी कि ”मैं जल्दी से पैंतिस की होना चाहती हूँ.. मुझे यह उम्र बहुत बकवास लगती है। मैं बस पैंतिस होने तक का समय काट रही हूँ।’ वह मेरे हद के बाहर की लड़की थी.. वह जो कहती थी वही जीती थी.. शायद इसीलिए मैं उसकी तरफ इतना आकर्षित हुआ था। मैं उससे अकसर पूछा करता था कि ’हम दोनों एक साथ क्या कर रहे हैं?’ तो वह तपाक से जवाब देती कि ’हम दोनों एक साथ नहीं है..।’ मैंने उसके साथ अपने भविष्य के सपने देखने लगा था... भविष्य के सपने देखना मेरा स्वभाव था... मैं ऎसा ही था... मुझे दुकानों-दुकानों धूमना अच्छा लगता था। हर दुकान के सामने मैं बहुत देर तक खड़ा रहता था... और सपने देखता था.. जब मेरा घर होगा तो मैं यह रंग के पर्दे लगाऊंगा.. इस तरीक़े का फर्नीचर होगा..। मेरे सपने वहीं पर खत्म नहीं होते थे.. मैं उन्हें अपनी डायरी में नोट भी कर लेता था.. उनके दाम के साथ... फिर उसे ज़बर्दस्ति उन दुकानों पर ले जाता और उसकी राय पूछता..। उसे मेरी यह आदत बहुत बचकानी लगती थी.. पर वह हर बार मेरे साथ हो लेती... मुझपर हंसने के लिए.. और मुझे उसका हंसना बहुत सुंदर लगता। मैं हर बार उसे हंसाना चाहता था.. इसलिए अपनी बचकानी आदतों को उसके सामने दौहराता रहता।
एक दिन मैंने उसे एक झूठा सपना सुनाया...। मुझे ऎसा कोई सपना नहीं आया था पर मैंने उससे झूठ कहा कि मैंने कल रात तुम्हारा सपना देखा था कि तुम मेरे साथ पहाड़ों में धूम रही हो..। हमारी शादी हो चुकी है और तुम उड रही हो... मैंने तुम्हें अपने सपने में उड़ते हुए देखा था। इस सपने का उसपर बहुत गहरा असर हुआ था... मैं जानता था वह चिड़िया हो जाने का सपना देखती है। उसने मेरे झूठे सपने में अपनी आँखें बंद कर ली.. और मैं अपने झूठे सपने की उड़ान को रोक नहीं पाया..। मुझे उस झूठ के असर को देखकर चुप हो जाना चाहिए था पर मैं चुप नहीं हुआ... मैं अपने सपने गढ़ने लगा..। हर कुछ दिनों में मैं उसे एक सपना सुना देता... और वह हर बार अपनी आँखें बंद कर लेती। मैंने कभी उसे अपने इतना करीब महसूस नहीं किया था... वह मेरे पास थी... बहुत पास। इन्हीं सपनों के बीच कहीं हमने साथ रहने का फैसला कर लिए...। यह उसका फैसला नहीं था... जब उसकी आँखें बंद थी मैं उसे अपने घर ले जा चुका था। वह मेरे झूठे सपने में थी और मैं उसे सच में अपना बना चुका था। उसने मुझसे शादी नहीं की थी... पर हम साथ रहने लगे थे। मैंने अपने घर को अपने सारे बचकाने सपनों से सजा दिया था... वही पर्दे.. वही फर्नीचर जिसे देखकर वह खूब हंसी थी..। अब वह उन सबके बीच में रहने लगी थी। मुझे लगा था कि वह बहुत हंसेगी पर वह चुप होती गई थी।
उसकी एक आदत थी जिससे मैं बहुत चिढ़ता था... वह अपना हर जॉब कुछ ही महीनों में छोड़ देती थी। वह अपने भविष्य की कुछ भी संभावना देखते ही बिदक जाती थी... तुरंत छोड़ देती... प्रमोशन के लेटर पर वह अपना इस्तिफ़ा कंपनी में दे आती..। मैंने अपनी काम तलाशने की उम्र से जो जॉब पकड़ा था मैं आज भी उसी ऑफिस में था... मैं बार-बार उसे अपना उदाहरण देता कि देखो आज मैं कितना सफल हूँ। वह कभी बहस में नहीं पड़ती थी.. ऎसी बातों में वह हर बार पहाड़ों पर चलने की बात कहती और मैं हर बार बात टाल जाता।
मैंने उसे अपने साथ लगातार धरेलू होते देखा था..। मैं जब भी उसे अपने घर में काम करता हुआ देखता था तो मुझे अजीब सी जीत का अहसाह होता था। जैसे मैंने कोई जंगली जानवर को पालतू बना दिया हो। जैसे...हाथी का दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करना हमें बहुत अच्छा लगता है... शेर हंटर की टाप पर कुर्सी पर बैठ जाए तो हम ताली बजा देते हैं... आसमान में उड़ते हुए पक्षी हो अपने घर के पिंजरे में अपना नाम पुकारते हुए सुनना कितना सुख देता है... मैं उसी सुख में था।
फिर वह दिन आ गया.....
वह रविवार का दिन था। छुट्टी थी... और वह किचिन में आटा गूंद रही थी। मैंने पूछा
’क्या कर रही हो”
तो वह कहने लगी कि..
’मैं पूरियां बना रही हूँ।’
’पूरियां क्यों? आज कोई त्यौहार है क्या?’
’ना... इस महीने मैं पैंतिस की हो जाऊंगी।’
’इस महीने मतलब... तुम्हारा जन्म दिन कब है?’
’जन्म दिन का पता नहीं है... पर इसी महीने कभी है। मैं खुद को पैंतिस महसूस कर रही हूँ...। मैं अपने परों को बड़ा होते देख सकती हूँ।’
’मैं पैंतिस की हो जाऊगीं...’ के बाद मुझे नहीं पता कि वह क्या कह रही थी..। मैं बार-बार उसका उड़ना सुन रहा था... मैं डर गया। मुझे उसका सपना याद था.. वह चिड़िया होना चाहती थी हमेशा से...। वह बस पैंतिस होने का इंतज़ार कर रही थी।
’तो अब तुम क्या करने वाली हो?’
’पूरियां बनाऊगीं और पतली आलू टमाटर की सब्ज़ी।’
’नहीं मेरा मतलब है.. पैंतिस होते ही क्या करोगी?’
’उड़ जाऊंगी।’
वह अपनी बातों में एकदम सहज थी..। मैं डर गया..। इस बार मैंने उससे कहा..
’सुनों मैं एक हफ्ते की छुट्टी ले रहा हूँ ऑफिस से... चलो कहीं पहाड़ों पर चलते हैं।’
’ना... मेरी इच्छा नहीं है..।’
’अरे तुम ही कहा करती थीं... पहाड़ों पर जाना है.. अब क्या हुआ?’
’बस... इच्छा नहीं है...।’
वह बहुत खुश दिख रही थी..। उसकी आँखों में जंगलीपन वापिस दिखने लगा था..। वह मेरे साथ रहकर.. या मुझे सहकर सिर्फ पैंतिस होने तक का वक़्त काट रही थी। वह पैंतिस होते ही उड़ जाएगी...। मुझे लगा मैं किसी पिंजरे में बंद शेर के पास खड़ा हूँ.... जिसे पता है कि वह जब चाहे तब पिंजरा तौड़कर भाग सकता है.. इसलिए वह उस पिंजरे में खुश है... शांत है.. पूरियां बना रहा है। मेरी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि मै क्या करुं.. इसे पालतु बनाना मेरा भ्रम था.. यह कभी भी मेरा बनाया हुआ पिंजरा तोड़कर चली जाएगी। मेरे सपने... उनका क्या..? झूठे ही सही... पर मैंने उन्हें अपनी पूरी शिद्दत से देखा था... उन्हें मैं उनकी नीयती तक पहुंचाना चाहता था। मुझे कुछ हो रहा था.. मैं ऊपर से नीचे तक कांपने लगा।
’सुनों मैं तुम्हें जाने नहीं दूंगा।’
मैंने कुछ ऎसे कहा मानों मैं कह रहा हूँ कि मैं तुम्हें उड़ने नहीं दूंगा।
’क्या कह रहे हो तुम?’
’मैं तुम्हें उड़ने नहीं दूंगा।’
इस बार मेरे मुँह से उड़ना ही निकला.. पर मैं रोक नहीं पाया...। मैंने उसे बहुत कसकर पकड़ लिया...।
’अरे क्या कर रहे हो तुम... तेल गर्म है... जाओ यहाँ से...। अरे मुझे लग रही है। तुम... दूर रहो..।’
उसने मुझे धक्का दिया मैं फर्श पर आकर गिर गया। मुझे सब कुछ छूटता हुआ दिख रहा था.. मेरा सपना.. मेरा भविष्य...। मेरी आँखों में अजीब सी जलन हो रही थी जिसकी वजह से मेरी आँखों से लगातार पानी आ गिर रहा था। वह डर रही थी... वह डर के मारे सोफे के ऊपर चढ़ गई.. मैं अभी भी फर्श पर था। मुझे लगा कि वह सोफे के ऊपर से छलांग लगाएगी और उड़ जाएगी... मैं भूख़ी बिल्ली की तरह बस उसके फर्श पर गिर जाने का इंतज़ार करुंगा..। मैं अपनी पूरी ताकत से उठा और उसकी और झपट्टा मारा..। मैं उसे रोकना चाहता था। वह कुछ बड़बड़ाए जा रही थी पर मुझे बार-बार उसके उड़ जाने का डर था.. सो मैं बस उसके परों को ज़ख़्मी कर देना चाहता था। वह इस तरह मुझे छोड़कर नहीं जा सकती थी। कुछ देर की हथापाई में मैंने अपने सिर पर किसी कठोर चीज़ का प्रहार सा महसूस किया... शायद वह कुकर था... या कढ़ाई.... पता नहीं पर मैं बेहोश हो चुका था।
जब नींद खुली तो मैं अपने घर में अकेला था... वह कहीं भी नहीं थी। मैंने उसे बहुत ढ़ूढ़ने की कोशिश की पर वह उसके बाद मुझे कभी नहीं मिली...। मैंने अपने झूठे सपनों में उसे कुछ सालों तक फसाए रखा था... बस... या शायद वह मेरे झूठे सपनों के बारे में जानती थी पर उसे पैंतिस होने तक का वक़्त काटना था... सो वह मेरे झूठ के साथ बनी रही। मैं हमेशा भ्रम में ही था... कि वह मेरे प्रेम में धरेलू हो चुकी है... वह अपने सपनों से बाहर आ चुकी है.. और मेरे यथार्थ में जीने लगी है...। पर ऎसा नहीं था... वह हमेशा सपने में ही थी..। उसने एक बार कहा था कि ... ’जो सपना देखता है... वह कभी भी उड सकता है...।’ वह उड़ चुकी थी..।
यह बहुत पुरानी बात है..। आज रात सच में मैंने उसका सपना देखा था कि वह पहाड़ों में देवदार के एक वृक्ष पर बैठी मुझे देख रही है... जब तक मैं उसका नाम पुकारता वह उड़ चुकी थी... दूर पहाड़ों की ओर...।

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल