Sunday, March 3, 2013

ख़त...

जैसे ठंड के दिनों में सुबह टांगे पर बैठकर स्कूल जाना... परिक्षा के दिनों में खेलने के आधे घंटे का सुख चुरा लेना... अपने घर के अंधेरे कोने में तकिये लगाकर अपना एक अलग घर बनाना... ज़रुरी काम के बहाने से बार-बार टाल पर मिट्टी खाने जाना... लंबी दौपहरों में देर तक म्मताज़ भाई की पतंग की दुकान पर बैठे रहना... कबीट ख़ाते हुए ताड़का वद्ध देखना... नदी में लंबे गोते लगाकर दस पैसे ढूंढ लेना.. एक कचौड़ी और थोड़ी सी जलेबी के लिए कई दिन इंतज़ार करना... पड़े हुए पैसे मिल जाने के ख़्वाब देखना... और फिर देर तक कल्पना में जीना कि कैसे खर्च करुंगा उन्हें... मज़ार पर जाकर अपने भगवान की बुराई करना... बहुत चालाक हो जाने की इच्छा रखना... बारिश में भीगना... बेंजो सीख़ना पर दिल में तबला बजाने की इच्छा रखना... बाहर जाना और वापिस घर कभी ना आने की ज़िद्द पालना... घर में पड़े रहना और पड़े-पड़े बाहर होने का डर पाल लेना.... लंबे समय तक धूप में चलना... पीपल, ईमली को छोड़ना और बरगद की छाया तलाशना... माँ के होने में माँ को खोजना... घर से निकलना और बार-बार घर वापिस आना...। इन सबमें कहीं कविता है... पर कविता यह नहीं है। एक वाक़्य से दूसरे वाक्य पर कूदते हुए बीच के बिंदुओं में कहीं कविता ताकती है। मैं महसूस करता हूँ... मिलने और नहीं मिलने के बीच का अंश... किसी गलती को करने की इच्छा और उस गलती को ना करने के बीच कहीं है कविता। बचपन के छूटने और बड़े होने के बीच... हम सभी को पता है। कुछ बदलने की प्रक्रिया में है सब कुछ... फिर भी दूर लगता है..। क्योंकि यह सब है सबमें... सबके पास... पर कविता किसके लिए है? यह प्रश्न बहुत बड़ा है...। हमेशा वह किसी के लिए होती है... निजी से निजी चीज़ भी किसी के लिए होती है। शायद कई दिनों बाद खुदी के पढ़ने के लिए भी हो सकती है... पर हमारे अवचेतन को हमेशा पता होता है कि किस लिए है। यह जीवन असल में एक ख़त है... किसी के लिए... पूरा जी लेने के बाद हम चाहते हैं कि बुढ़ापे में एक दिन हम बरामदे में बैठे हुए चाय पी रहे होंगे... हल्की मुलायम धूप होगी और उस दिन, कांपते हाथों से मैं अपना जीवन.... जो कि एक लिफाफे या डायरी में होगा... खोलूंगा और उसे वह ख़त पढकर सुनाऊंगा... उस पढ़्ने की फिर एक कहानी होगी...। जिसे जंगल में चलते हुए कह दूंगा... कहानी कहते हुए मैं उसके सारे झूठ जी लूंगा...।

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मानव

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल