Friday, August 2, 2013

Colour Blind...3

टेगोर... क्या है इस नाम में...? मैं क्यों आकर्षित हो रहा हूँ उस बच्चे से... उसकी चुप्पी से... उसके अकेले खेलते रहने से.... टेगोर। एक विशाल से मैदान में एक बच्चा पालकी में बैठे हुए अपना छोटा संसार जीने लगता है। चॉक से बने गोले के बीच... पानी में सिर घुसा देने की सज़ा पाता है। किसी दूसरे की बनाई हुई फिल्म की तरह अपने ही बाप का जीवन देखता है। इस संसार में मुझे कोई कमी नहीं लगती है... इस संसार की सुंदरता टेगोर को भी उसके बड़े होने के बाद समझ में आई..। उसके बचपन के अकेलेपन में बहुत सारे खेल शुमार थे। बड़े होने में एक प्रतिक्षा थी... किसीकी... कोई था जो आ नहीं रहा था... कोई था जो चला गया था..। या वह असल में रतन थे.. (पोस्टमास्टर कहानी की लड़की) जो पीछे छूट गए थे। जो पूरा जीवन पोस्ट ऑफिस के चक्कर काटते रहे। किस जगह मैं टेगोर को पकड़ सकता हूँ? कैसे उनके लिखे में उनकी मन:स्थिति तक पहुंचा जा सकता है। उनका प्रेम बिना पीड़ा के नहीं दिखता... पीड़ा ढ़ूंढ़ने जाओ तो प्रेम पा लिया ऎसा लगता है। बचपन में ’मैं भी हूँ...’ की लड़ाई शुरु हुई... अपने होने को सिद्ध करने में जब अपने घर का दरवाज़ा खोला तो पूरा बंगाल था... जब बंगाल का दरवाज़ा खोला तो पूरा देश था... फिर विदेश... लड़ते-लड़ते अचानक पूरे ब्रह्मांड में उन्होंने खुद को सबसे छोटा पाया...। फिर सब धुल गया.... देश.. विदेश... सब कुछ... फिर वापिस वह अपनी पुरानी प्रतिक्षा पर लोट आए... किसी की... किसी एक की... वह वापिस पोस्ट-ऑफिस के चक्कर काटने लगे... कोई एक मिले जो बस सब सुन ले। फिर एक तरह से बहुत स्वार्थी भी दिखे... जिसने अपने लिखे को दूसरे के जिए में बटोरा... कभी भी किसी भी कहानी को उसके नेचुरल अंत तक नहीं पहुंचने दिया...। पर नेचुरल शब्द टेगोर पर जाता भी नहीं है जितना उन्होंने अपने जीवन में काम किया वह नेचुरल नहीं है। मैं कई बार उनसे संवाद करना चाहता हूँ जिसमें एक प्रश्न बार-बार दिमाग़ में आता है कि इतना सारा क्यों लिख रहे थे वह? मैं इस बात के मूल में पहुंचना चाहता हूँ इस नाटक के द्वारा... कि काम का इतना सारा बोझ.. जिसके अंत में वह टैगोन नहीं होना चाहते थे। सामान्य उनके जीवन में कुछ भी नहीं था...। आज सुबह उठा तो लगा टैगोर ने मेरी तरफ मुड़कर देखा... मेरी बहुत से सवालों का वह जवाब देने ही वाले थे कि सपना टूट गया। एलार्म चीख़ रहा था... मैं भागकर अलार्म बंद करके फिर लेट गया ज़ोर से आँख बंद की और टैगोर की आख़री झलक याद करने लगा...। व्यर्थ था सब कुछ..। करवटें... करवटें और फिर कुछ करवटें... मैंने बिस्तर त्याग दिया। बहुत देर तक किचिन में खड़ा रहा... चाय का पानी चढ़ा दिया था पर गैस चालू नहीं की... मैं खड़ा रहा... सपने का सिर पैर मेरी समझ से परे था। मेरी टैगोर से मुलाक़ात (सपने में...) उनके Switzerland प्रवास के दौरान हुई... जब वह तीन महीने के लिए Switzerland / Italy में विक्टोरिया का इंतज़ार कर रहे थे और वह नहीं आई। हमारी बातचीत में मैं कहे जा रहा था और वह चुप थे... बीच-बीच में एक गहरी सांस की आवाज़ आती और सब चुप... मेरे सारे सवाल व्यर्थ थे मानों वह सुन ही नहीं रहे हों... फिर पता चला कि मैं असल में एक स्क्रीन के सामने खड़ा हूँ जिसपर उनके इंतज़ार का लाईव टेलिकास्ट चल रहा है। जबकि मैं भी Switzerland में ही था... मैं उसी विला में था जिसमें वह थे पर मैं उन्हें स्क्रीप पर देख रहा था। सपना बिना किसी संवाद के खत्म हो चुका था। कुछ देर बाद मैंने गैस चालू की... चाय बनने की प्रक्रिया शुरु हो गई थी पर मैं वहां नहीं था। मुझे बैचेनी महसूस हो रही थी.. टैगोर की छवी मेरे दिमाग़ में बहुत सुंदर सी थी... फिर अचानक यह इंतज़ार वाली बात ने पता नहीं उस छवी के साथ क्या छेड़-छाड़ की कि लगा मैं इस बारे में उनसे बात करना चाहता हूँ.... पर कर नहीं पा रहा हूँ क्योंकि मैं उन्हें स्क्रीन पर देख रहा हूँ... सामने नहीं। मैं समझता हूँ उनकी मन: स्थिति को.... इस घटना के बाद वह ओर भी करीब थे... एक सीधे साधे इंसानी रुप में... जिसे ज़रुरत थी उस वक़्त किसी की..। मुझे लगा मैं उन्हें पकड़ सकता हूँ उनकी कहानीयों में... उनकी कविताओं में... पर वह हर बार छूट जाते थे... अब अचानक लगा कि वह मेरे सामने हैं... हम आँखो में आँखे डालकर एक दूसरे को देख ही रहे थे कि सपना टूट गया। बहुत कमज़ोर क्षणों में हम अचानक अपनी सारी कमान छोड़ देते हैं... फिर ऎसा करना है और ऎसा नहीं कर सकते के बीच की सारी की सारी उठापटक अपना मानी ख़ो देती है। ठीक ऎसे वक़्त शायद हम खुद को पहली बार देख लेते हैं... बिना आईने.. बिना कपड़ों के...। जैसे का तैसा सा सब कुछ सामने पड़ा होता है और हमें यक़ीन नहीं होता कि यह क्या हो रहा है...? असहायता.... यह शब्द मुझे टेगोर से जोड़ती हैं...। मैं इस नाटक में कुछ इस शब्द की कविता खोज रहा हूँ।

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

अपने कुछ खोये हुये तारों की पहचान हो गयी हो सपनों में

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल