Friday, August 30, 2013

नाम “गुड्डू” निकला... (पिछली पोस्ट से जुड़ा हुआ....)

आह!!! उस चाय वाले का
मेरे पूरे शरीर ने उसका नाम सुनते ही ‘नहीं ई ई...’ चीख़ा। इसलिए शायद लेखक जिसके बारे में भी लिखना चाहते हैं... उसका नाम वह खुद ही रखते थे। किसी के होने से ही उसकी कहानी घट रही होती है...। सुबह की लंबी walk समुद्र पर रुकी....। सुबह छ: बजे समुद्र उफान पर था.... पानी की आवाज़ भीतर घट रहे संसार को संगीत दे रही थीं... मैं शांत बैठा रहा। दूर एक अकेली लड़ी बैठी हुई थी..... सिर पर चुनरी ओढ़े.... अपनी गुलाबी चप्पलों को बगल में रखे हुए वह अपना सिर घुटनों में दबाए हुई थी। बीच-बीच में वह समुद्र की तरफ देख लेती.. मैं उसकी चुनरी में से उसका चहरा देखने की कोशिश कर रहा था... चहरे के बिना कैसे कहानी जानी जा सकती है....। सुबह छ: बजे मेरे अलावा वह ही थी उस Beach पर.... सो मेरी जिज्ञासा, हर उसके सिर उठाने पर उसके सामने कूद जाना चाहती थी। मैंने सोचा मैं अपनी उपस्थिति दर्ज कराता हूँ.... कुछ गाकर... ख़ांसकर... अचानक हंसकर... या इन पत्थरों पर गिरने का अभिनय करके...। मैंने कुछ नहीं किया...। असल में इस सुबह में बहुत शांति है... सिर्फ पानी की आवाज़ है.. मैं उस पवित्रता में और कुछ भी नहीं हिंसक नहीं देख सकता था। मैंने उस लड़की की तरह पीठ मोड़ ली..... हम दोनों अपने अपने-अपने एकांत के साथ पूरे संसार के सामने बैठे थे...। एक बारको मुझे लगा कि मैं असल में पृथ्वी के ऊपर बैठा हूँ..... और पूरे ब्रंम्हांड को अपने सामने देख रहा हूँ... और दूसरे तरफ वह गुलाबी चप्पल वाली लड़की है जो मेरी ही तरफ पृथ्वी के ऊपर बैठी है पर वह ब्र्ह्मांड नहीं वह धरती के गर्भ में कहीं झांकने की कोशिश कर रही थी...। अचानक मुझे उसका धरती का मूल टटोलना मेरे ब्रह्मांड बांचने से ज़्यादा सुखद लगने लगा...। मैंने उसकी तरफ पलटा... और चौंक पड़ा वह मुझे देख रही थी.... और सब बिख़र गया... वह भी “गुड्डू...” निकली...। उसके हाथ में मोबाईल था वह गाने और मेसेज़ कर रही थी..... उसके देखने में एक दूसरी कहानी थी... जो इस सुबह की मेरी कहानी में दर्ज नहीं हो पा रही थी। मैं उठा और वहां से तुरंत चल दिया...। हमेशा दिमाग़ में इस तरह एक अजान लड़की को देखकर लगता है कि आज मैं पहली बार जीवन में किसी ऎसी लड़की से मिलूंगा जिसका मैं बरसों से इतंज़ार कर रहा था....। जो घटक की फिल्म से सीधा निकलकर आई हो... जो इतने सालों टेगोर की कहानी कविता में भटकर रही थी ... आज सुबह छ: बजे मैंने Beach पर उसे देख लिया है....। बस ठीक उसे वक़त मुझे वहां से निकल जाना चाहिए था... और अपनी डॆस्क पर बैठकर एक कहानी लिख देनी थी.... ’सुबह के घटने में उसका होना....’। पर मैंने ऎसा नहीं किया.... मुझे उत्सुक्ता थी...कुछ दूसरा देखने की.... कहीं कुछ छिपा बैठा है उसे ढूंढ़ निकालने की... कुछ नया आश्चर्य वगैहरा-वगैहरा। “जो मुझसे नहीं हुआ... वह मेरा संसार नहीं....” (कहीं पढ़ा था... याद आ गया।) वापसी में लगभग अलग-अलग टपरियों पर चाप पी.... गुरुद्वारे भी मथ्था टेक लिया वहां भी चाय मिल गई। वापिस आकर पहली बार मैंने ’सुबह’ Coetzee का लेटर पढ़ा..... मातृभाषा पर... उसमें Derrida की किताब का ज़िक्र है... Monolingualisam of the Other – 1996… यह किताब बहुत इंट्रस्टिंग लग रही है..। एक बार किसी ने शमशेर से मातृभाषा के ऊपर कुछ पूछा था... तो उनका जवाब था कि इस दुनियां में बोली जाने वाली सारी भाषांए हमारी मातृभाषा हैं। मुझे यह जवाब बहुत सुंदर लगा था... और कुछ इसी तरीक़े की पर पेचीदगी के साथ Derrida की किताब होगी जिसे पढ़ने में मज़ा आएगा.. क्यों कि वह बहुत सारी भाषा के जानकार थे। इसके बाद अचानक मेरी निग़ाह एक पुरानी ख़रीदी हुई किताब पर पड़ी जिसे जल्द पढूंगा की अलमीरा में रखा हुआ था... THE MASATER OF GO-YASUNARI KAWABATA… अभी इसे शुरु किया है...। “IT IS EASY TO ENTER THEE WORLD OF THE BUDDHA, IT IS HARD TO ENTEER THEE WORLD OF THE DEVIL.”

1 comment:

Swapnrang said...

वो भी "गुड्डू" निकली..
बढ़िया है.

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल