Monday, August 12, 2013
Colour Blind...4
एक पर्दा दिखता है। मेरे और टेगोर के बीच..। मैं कभी भी उन्हें पूरी तरह देख नहीं पाता हूँ। तभी एक व्यक्ति पर्दा हटाकर सामने आता है...। ना यह टेगोर नहीं है... इसने तो जींस और टी-शर्ट पहनी हुई है.. तभी वह कहता है कि वह टेगोर होने का अभिनय कर सकता है...। मैं अभिनय शब्द नहीं सुनता हूँ और उसके भीतर टेगोर का होना टटोलने लगता हूँ। मैं उसे गाने के लिए कहता हूँ... वह कविता कहता है... मैं उसे बैठने के लिए कहता हूँ... वह नाचने लगता है... उसकी चुप्पी में मुझॆ शब्द दिखते हैं... और उसके बोलते ही सब कुछ फिर से धुंधला हो जाता है।
सच में किस तरह से दिख सकता है वह जिसे मैं टेगोर समझे बैठा हूँ। फिर प्रश्न यह भी है कि क्या मैं सच में महज़ टेगोर देखना चाहता हूँ...? या मैं टेगोर के बहाने खुद का उलझा हुआ कुछ सुलझा रहा हूँ। मैं हमेशा अपने सबसे उलझे हुए समय में.... अपने किसी नाटक की आड़ में छुप गया होता हूँ...। नाटक की उलझनों के सामने जीवन की पीड़ा बहुत टुच्ची दिखती है। हर बार रिहर्सल के बाद जब मैं... एक चाय और सिगरेट... के साथ होता हूँ... एक आश्चर्य मानों... बगल जैसी किसी जगह आकर बैठ जाता है। मैं अपनी सांस रोक लेता हूँ... यह तितली का आपके कंधे पर बैठने जैसा अनुभव है... मैं देर तक महसूस करता हूँ उसका बैठना पर उसे देख नहीं सकता हूँ। मेरे हिलते ही वह नदारद होगी। फिर अचानक लगता है कि मैं टेगोर भी नहीं देख सकता... मुझे नहीं पता कि मैं टेगोर देख पा रहा हूँ कि नहीं...। अपने आश्चर्यों और टेगोर के बीच अचानक मुझे एक तितली सांस लेती हूँ महसूस होती है। मैं बस इन तितली के रंगों के बीच color blind सा कुछ तलाश रहा हूँ। मुझे जो देखता है... और जो मेरे देखते ही नदारद हो जाएगा के बीच.... यह नाटक पल रहा है....।
मेरे आश्चर्यों में आज मुझे बचपन में देखा टमाटर का छोटा सा पेड़ याद आया (कश्मीर में...)। मुझे हमेशा लगता था कि टमाटर बज़ार में मिलते हैं.. कोई इन्हें बनाता है शायद... पर उसे उगते हुए एक पेड़ पर देखना... यह मेरे लिए अदभुत था... मैं हंसता हूँ.... चाय के कुछ घूंट खीचकर ... सिगरेट बुझाता हूँ....। ठीक अभी कुछ सुलझा सा लगने लगा है.... यह सोचकर ... खुद से वर्जीनिया वुल्फ की लाईन कहता हूँ.... let’s take a walk….. |
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मानव
परिचय
- मानव
- मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल
4 comments:
मन मेल खा गया तो कपड़ों का क्या?
ये लेख छोटी सी प्लेट में मनपसंद खाना |अद्भुद जायका|
very contemplative... waiting to see the play... welcome to Santiniketan
Manav ji. I know this is a bit off handed. But. You should not smoke.
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