Sunday, February 24, 2013
प्यादा...
दीवार पर हम चिपक जाते हैं...। किसी तरह से बस दृश्य से गायब हो जाए... दूर चांद पर दीवार दिखती है.. उस दीवार पर मौसम नहीं बदलते हैं। नीचे मौसम के शिक़ार हम हैं... इन दिनों भीग रहे हैं देर तक अकेले...। फिर वह सपने सा धुंधला दृश्य दिखता है जिसमें पहली बार सभी मैदान में खड़े दिखते हैं... मैं इनमें से कुछ लोगों को पसंद करता हूँ और कुछ को नापसंद.. पर सभी एक दूसरे में इतने घुले-मिले हैं कि किसी को भी अलग से देखना असंभव है। मैं छांटना चाहता हूँ... क्या हम हमेशा इसी प्रयास में नहीं लगे रहते हैं? छांट दे... अलग कर दे अच्छे बुरे को.. प्रिय को अप्रिय से.. कहानी को नाटक से... कविता को शायरी से... पर सब एक दूसरे में फसे हुए हैं..। फिर मैं पहले दिन के बारे में सोचने लगता हूँ... पहले दिन जब यह सब शुरु हुआ था। वह एक तरीक़े का शतरंज का खेल जैसा था... मैं दूर था... सभी लोग अपने-अपने काले-सफेद खानों में चुप शांत खड़े थे...। मेरा किसी से भी कोई सीधा संबंध नहीं था... तब शायद हमने पहली ग़लती की थी... मस्ति के लिए... हमने एक छोटे प्यादे को आगे सरका दिया था...। हमें नहीं पता था कि उसका नतीजा यह होगा कि हम किसी एक तरफ हो जाएंगे... अब जीवन में या तो सफेद कदम रखना है या काले... हम यह रंग नहीं लांग सकते अब..। और बहुत समय बाद पता चलता है कि असल में हमने बहुत पहले एक खेल शुरु कर दिया था... हमें लगता है कि हमने चुना था.. पर असल में हम चुन लिये गए थे..। शतरंज के बगल में पड़े हुए कुछ प्यादे.. घोड़े नज़र आते हैं.... हम इस खेल के राजा हैं जिसके हाथ में कुछ नहीं हैं। इस खेल में हम सालों बने रहते हैं... क्यों कि हर चाल में हम सालों गवां देते है... जैसा कि रोज़ उठने पर हम टटोलते हैं कि इस जीवन ने हमारे सामने क्या चाल चली है... जीवन भी धीमा और तेज़ चलता है... कई बार रुक जाता है... बहुत लंबे समय तक..। अंत तो आता ही है... आभी नहीं तो सालों बाद.... हम इस बीच छोटे-बड़े कांप्रोमाईज़ करते चलते हैं... यह सारे कांप्रोमाईज़ समय मांगने जैसा है... हम मांगना चाहते है कि बस हमें बने रहने दो...। हम चिल्लाना चाहते हैं कि हम सफेद नहीं हैं... काले भी नहीं है... हम बस परिस्थिति में फसें हैं.. और अपनी चाल को जितना हो सके टाल रहे हैं...। हमें टालना आ जाता है। बीच में दूसरों को मारने में हमें खुशी मिलती है.... पर वह क्षणिक है... समय बीत रहा होता है... जैसे हम इस खेल में फसें हैं... बाक़ी भी यही है.. हम दिखाते नहीं है... क्योंकि हमें लगता है कि हम एक दिन जीत जांएगें.... असल में हम जीतते कभी भी नहीं है हम अपनी अंतिम हार टाल रहे होते हैं...।
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मानव
परिचय
- मानव
- मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल
4 comments:
हार भी जीवन का उपहार ही तो है।
शतरंज सजी है, जीवन भर प्यादों से ही खेलते रहे, अन्तः को बचाते रहे, रीते।
अन्त भी कभी शुरुआत ही था,और अन्त को टालते टालते हम फिर एक दिन शुरुआत पर पहुचते है|दरअसल शतरंज चौकोर है,पर भावनाओं घटनाओं का प्रवाह गोल ही है|
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